21 अप्रैल 2020

शैक्षिक तकनीकी: रोचक हो जाती है भाषा की कक्षा

शैक्षिक तकनीकी: रोचक हो जाती है भाषा की कक्षा
मनोहर चमोली ‘मनु’
आम चुनाव 2019 के समय कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हुईं कि एक आदर्श इण्टर काॅलेज में चार दिन सामूहिक कक्षाओं को पढ़ाने का मौका मिला। मई का प्रथम सप्ताह। विद्यालय परिसर में लोक सभा चुनाव सम्पन्न होने के बाद ईवीएम मशीन रखी हुई थीं। 23 मई को मतगणना होनी है। स्कूली छात्र आस-पास के सरकारी कक्षों में बिठाए गए थे। यह ऐसा अवसर था, जब प्रातःकालीन सभा के बाद और मध्यांतर तक कक्षा छःह से आठ के तीस छात्रों से संवाद करने का मौका मिला। चार दिनों के संवाद के समय को जोड़ लें तो यह लगभग आठ घण्टे का समय रहा। अध्यापक साथी सुभाष मलासी भी साथ रहे। छात्रों के पास पाठ्य-पुस्तकें अमूमन नहीं ही थीं। बस्ता था। काॅपियां थीं पर विषयों की किताबें अभी आनी शेष थीं। मोबाइल के माध्यम से शिक्षण के तरीके के अलावा कोई और विकल्प नहीं था।

हालांकि हम शिक्षा आयोग के आलोक में ही कक्षा-कक्ष को संचालित करने वाले थे। 1953 में ही माध्यमिक शिक्षा आयोग में कहा गया था,‘‘किसी विषय के अध्ययन के लिए केवल एक पाठ्यपुस्तक का प्रावधान नहीं होना चाहिए, बल्कि दिए गए मानकों के अनुसार कई पुस्तकें प्रस्तावित होनी चाहिए, और विकल्प चुनने की छुट स्कूल को मिलनी चाहिए।‘‘
इसी बात को ध्यान में रखते हुए हम आज कक्षा-कक्ष में स्कूली किताब से हटकर एक अलग गतिविधि से भाषाई कौशलों के विकास का प्रयास करने को तत्पर थे। यूँ तो एनसीएफ 2005 सुझाता भी है कि विभिन्न स्तरों पर पाठ्यचर्या के उद्देश्यों को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए। बच्चों में चारों ओर की दुनिया के प्रति जिज्ञासा को पोषण मिले। ताकि वह बाद के स्तरों पर तकनीकी एवं संख्यात्मक कौशल प्राप्त कर सके। दस्तावेज सूचना एवं संचार तकनीक (आईसीटी) को सामाजिक खाई पाटने में कुशल औजार मानता है।
सीखने-सीखाने की प्रक्रिया में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि कक्षा-कक्ष में पाठ्यपुस्तक और उससे इतर सामग्री में आए प्राकृतिक,सामाजिक एवं अन्य संवेदनशील मुद्दों को समझने और उन पर चर्चा करने के अवसर उपलब्ध होने चाहिए। इस प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए शिक्षा तकनीकी तो बेहद कारगर सिद्ध हो सकती है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 शैक्षिक तकनीकी पर जोर देती है। रूपरेखा में स्पष्ट लिखा है कि शिक्षण तकनीक को अगर शिक्षा की गुणवत्ता में कमी को पूरा करने मात्र के लिए प्रयोग में लाया जाए तो शिक्षकों का शिक्षण से ही मोह-भंग हो सकता है। अगर शिक्षण तकनीक का उपयोग पाठ्यचर्या के सुधार के लिए होना है तो शिक्षकों और बच्चों को केवल उपभोक्ता की तरह नहीं बल्कि सक्रिय उत्पादकों के रूप में देखना होगा।
इक्कीसवीं सदी के युग में हमारे स्कूल हैं और कक्षा-कक्ष में मोबाइल पर प्रतिबन्ध की बात लगातार की जाती रही है। दस्तावेज वीडियो फिल्म और वीडियो गेम को बच्चों की कल्पनाशीलता को निखारने में सहायक बताते हैं। भाषा की कक्षा में वीडियो फिल्म में किसी स्थानीय व्यक्ति का साक्षात्कार भी दिखाया जा सकता है। प्रख्यात कवि-लेखकों की रचनाएं एवं गीत आॅडियो-वीडियो में सुनाए-दिखाए जा सकते हैं। लेकिन क्यों? सूचना संप्रेषण तकनीक के उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए छात्रों को भी यह अवसर दिए जाएं कि वे भी अपनी खुद की रचनाएँ,बातचीत,प्रस्तुति और अनुभवों को दर्ज कर सकें। शैक्षिक तकनीकी का छात्र भी इस्तेमाल करेंगे तो उनकी अपनी सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता निखरेगी।
राजेश उत्साही जी की एक सरल-सी लगने वाली कविता मोबाइल स्क्रीन पर आई। छोटी कविता के साथ-साथ कक्षाओं की विविधता से सरल इसे श्यामपट्ट पर लिखना सरल लगा। अचानक ख्याल आया कि श्रुतलेख के तौर पर इसे लिखाया जाए। यह ध्यान में तो था ही कि सामूहिक कक्षा में भाषाई कौशलों के विकास के लिए रोचक गतिविधि की जानी होगी। ऐसा कोई प्रकरण या विषयवस्तु जिससे छात्रों को सीखने वालों के तौर पर पहचानने वाली स्कूली संस्कृति हर बच्चे की रुचियों और उसकी संभावनाओं को बढ़ाने में सहायक हो। बस फिर क्या था। पहले श्रुतलेख कराया गया। कविता यह है-

हाथ दुआ है
हाथ दवा है
हाथों में ही
बसी हवा है
हाथ प्यार है
हाथ वार है
हाथों में ही
आविष्कार है
हाथ रेल है
हाथ खेल है
हाथों में ही
चम्पी तेल है
हाथ कलम है
हाथ श्रम है
हाथों में ही
छुपी शरम है
हाथ कान है
हाथ जुबान है
हाथों में ही
यह जहान है।
श्रुतलेख की गतिविधि मोबाइल की स्क्रीन से पूर्ण हुई। छात्र लिख चुके थे। ध्यान यह रखना था कि एक कक्षा-कक्ष में तीन कक्षाओं के सक्षम और विभिन्न अक्षमताओं को झेल रहे बच्चे भी भाग ले सकें। यह सबके सीखने के लिए एक गतिविधि बन सके। श्रुतलेख कराने से लोकतांत्रिक ढंग से छात्रों में स्व-अनुशासन के साथ अपने अनुभवों को साझा कराना चुनौतीपूर्ण लगा। सो,तरीका बदलना ठीक लगा। श्रुतलेख लिखने के बाद संभवतः छात्र सोच रहे थे कि अब उनकी काॅपी जांची जाएगी। जांचने का तरीका बदल दिया गया। यह सोच गया कि क्यों न वे ही एक-दूसरे का लिखा हुआ जांचे? छात्र समझ नहीं पाए। उन्हें बताया गया कि सुनकर लिखी गई कविता को अब जांचना है कि क्या ठीक से सुना गया? यह भी संभव है कि ठीक से बोला न गया हो। यह भी कहा गया कि गलत शब्द पर गोल घेरा नहीं किया जाना है सही का निशान लगाना है। यह सुनकर कुछ चेहरे मुस्कराने लगे।
बत्तीस छात्रों की एक-एक कर काॅपी जांचने में लगने वाले समय को बचाने की युक्ति यह थी कि गलत लिखे गए शब्द श्यामपट्ट पर उतार लिए जाएं। छात्रों से कहा गया कि उन शब्दों को दोहराएं जो अधिकतर गलत लिखे गए होंगे। यह इसलिए भी जरूरी लगा कि सुनने,बोलने,पढ़ने और लिखने की भाषिक क्षमताएँ विषयों के अनुशासन से इतर भी बढ़ाई जा सकती है। अन्ततः छात्रों को ज्ञान के निर्माण के लिए भाषिक क्षमताओं के बुनियादी महत्त्व को जानना ही है।
छात्र बताने लगे। उन्हें लिखा गया। वे शब्द यह रहे-
दुवा (दुआ) , बार (वार) आविसकार, आवीसकार, आवीष्कार, (आविष्कार) , चमपी,चम्पि (चम्पी) , शरम,शर्म (श्रम) , छूपी (छुपी)
श्यामपट्ट पर सही शब्द लिखे गए। उनका उच्चारण भी दोहराया गया। अधिकतर छात्र अपनी काॅपी में लिखे गए गलत शब्द से सही शब्द का मिलान करने लगे। छात्रों से यह नहीं कहा गया कि इन्हें वे उतारें। लेकिन फिर भी कुछ छात्र श्यामपट्ट पर लिखे गए शब्दों को उतार रहे थे।
अब समय था कविता को मोबाइल की स्क्रीन से देखकर श्यामपट्ट पर लिखना। एक छात्र को बुलाया गया। वह मोबाइल की स्क्रीन से कविता को पढ़ता गया और इस तरह सुनकर कविता को श्यामपट्ट पर उतार लिया गया।
छात्रों को यह नहीं कहा था कि वह इसे फिर से काॅपी पर उतारें। लेकिन छात्र स्वतः इसे फिर से काॅपी पर लिख रहे थे।
अब बात थी कविता पर बात करने की। छात्रों से इतना ही कहा गया कि कविता का अर्थ नहीं बताना है। वे बातें बतानी हैं जो कविता में आ रही हैं। साथ में उन बातों से हम और क्या-क्या बात कर सकते हैं।
सन्नाटा छा गया। सबकी आँखें फिर से कविता पर जम गई। सब श्यामपट्ट को जैसे घूर रहे थे। होंठों से बुदबुदाने लगे। छात्रों को याद दिलाया गया कि हम श्रुतलेख के बहाने इसे काॅपी पर लिख चुके हैं। दूसरी बार हमने एक-दूसरे की काॅपी जांचते समय इस कविता को दूसरी बार पढ़ा है। फिर गलत शब्दों को लिखते समय हम सभी की नज़र कविता पर तीसरी बार गई है। चैथी बार जब कविता श्यामपट्ट पर लिखी गई है तब भी कविता को फिर से पढ़ा जा चुका है।
यह सब सुनने के बाद भी छात्र चुप रहे। छात्रों से पुराना परिचय तो था नहीं। सो एक नियम बनाया गया। जो छात्र भी अपनी बात कहेगा वह अपना नाम और कक्षा भी बताएगा। थोड़ी देर तक फिर से सन्नाटा ही छाया रहा। बार-बार उकसाने पर अरमान ने कहा,‘‘दुआ हाथ उठाकर की जाती है।‘‘ अब नमन ने कहा,‘‘चोट लगने पर हाथों से ही मालिश की जाती है।’’
अब तो एक-एक कर दर्जन भर वाक्य सुनने को मिले। हम चाहें तो मोबाइल से ध्वन्यांकन कर सकते हैं। दृश्यांकन भी कर सकते हैं। लेकिन यह तब ठीक रहता है जब छात्रों को पता न चले। अन्यथा वे असहज हो जाते हैं। कविता को लिखना,पढ़ाना और पढ़वाना तो पारम्परिक शिक्षण ही है। फिर शैक्षिक तकनीकी का सार्थक प्रयोग कहाँ हुआ? यह ध्यान रखना होगा कि नए विचारों और सूचनाओं को पहुँचाने का काम शैक्षिक तकनीकी से हो। यह भी ज़रूरी होगा कि यह एकतरफा न हो। दोतरफा अंतःक्रिया हो तो ही तकनीक का उपयोग शैक्षिक माना जाएगा।
बहरहाल छात्रों को कविता पर कुछ बातें कहनी थीं। उन्होंने जो खास बातें कही, वह यहाँ दी जा रही हैं।
‘‘बाल कटिंग में हाथों का बड़ा योगदान है।‘‘
‘‘माली का हुनर उसके हाथों में है।‘‘
‘‘चित्रकार के हाथ भी कमाल के होते हैं।’’
‘‘नमस्ते में भी हाथ उठते हैं।’’
‘‘मोबाइल के लिए भी हाथ जरूरी हैं।’’
‘‘बन्दूक भी हाथ से चलाई जाती है।’’
‘‘माऊस के लिए हाथ चाहिए।’’
‘‘अच्छी फोटो के लिए हाथ नहीं हिलना चाहिए।’’
‘‘थप्पड़ भी हाथ से मारा जाता है।’’
‘‘चेहरा धोने के लिए भी हाथ चाहिए।’’
‘‘डांस करते हुए हाथों का महत्व है।’’
‘‘झाड़ू लगाते हुए भी हाथ चाहिए।’’
‘‘रोटी बेलने में हाथ ज़रूरी हैं।’’
‘‘आटा गूंथना भी हाथों से होता है।’’
‘‘टाटा-बाॅय भी हाथ से करते हैं।’’
‘‘लिखना भी हाथ से ही होता है।’’
‘‘टाइप करना हो तो हाथ जरूरी है।’’
‘‘पुताई के लिए हाथ खास हैं।’’
‘‘गाड़ी चलाने के लिए हाथ इस्तेमाल होते हैं।’’
‘‘साइकिल बिना हाथों के सीखना मुश्किल है।’’
‘‘ताली भी हाथ से बजती है।’’
‘‘कई खेलों में हाथ का योगदान है।’’
‘‘गेंदबाज के लिए हाथ जरूरी है।’’
‘‘बल्लेबाज के लिए भी है।’’
‘‘मुक्केबाज़ के लिए भी।’’
अब तो बातों का सिलसिला था कि चल पड़ा था। तीनों कक्षाओं के उपस्थित बत्तीस छात्रों में हर किसी ने तीन से चार वाक्य अलग-अलग समय पर बोले। सबके केन्द्र में कविता में आया केन्द्रीय भाव ‘हाथ’ ही था।
कविता केन्द्रित इस गतिविधि में दो बातें ध्यान देने योग्य थीं। पहली कि यह तीन कक्षाओं की एक सामूहिक कक्षा है। कक्षा छह,सात और आठ के छात्रों को एक ही कक्षा-कक्ष में बिठाकर लगभग दो घण्टे रोचकता के साथ व्यस्त रखना महत्वपूर्ण था। दूसरी बात यह थी कि पाठ्य पुस्तक का इस्तेमाल न कर शैक्षिक तकनीकी का इस्तेमाल करना था।
छात्र जान रहे थे कि मोबाइल से एक कविता पढ़ी गई है। पढ़वाई गई है। मोबाइल से देखकर ही उसे श्यामपट्ट पर उतारा गया है। अब आगे क्या होने वाला है? यह सवाल छात्रों के मन में कौंध रहे थे। छात्रों को प्रारम्भ में ही कह दिया था कि किसी तरह की परीक्षा नहीं है। सवालों के सही-गलत सभी जवाब स्वीकारे जाएँगे।
छात्रों को भी यह रोचक लग रहा था कि बगैर किसी पाठ्यपुस्तक के उनकी किताबों की विषयवस्तु से हटकर आज क्या होने वाला है। शुरुआत तो पारम्परिक तरीके से सुनना और पढ़ना से ही हुई थी। लेकिन अब छात्रों को लग चुका था कि आज कक्षा में मात्र नकल कर लिखना-लिखाना नहीं हो रहा है। वैसे भी रोजमर्रा की पारम्परिक कक्षा से हट कर यह कक्षा कई मायनों में अलग हो ही गई थी।
शिक्षा के दस्तावेज कहते भी हैं-‘शैक्षिक तकनीक का बेहतर उपयोग तब हो सकेगा जब विषयों या मुद्दों को गैर उपदेशात्मक रूप में विकसित किया जाए ताकि शिक्षार्थी ज्ञान के नेटवर्क से बेहतर रूप में जुड़ पाएँ और अपनी रुचि के स्तर के अनुसार सीख पाएँ।’
यही सोचकर अब हस्तक्षेप करना जरूरी लगा। श्यामपट्ट के दांयी ओर जगह बची थी। वहाँ चाॅक से लिखा गया-‘अपने हाथ जगन्नाथ।’ छात्रों की ओर देखा गया। वे सब इन तीन शब्दों को घूरते जा रहे थे। अब लिखा गया-‘एक हाथ दे एक हाथ ले।’ ‘हाथ कंगन को आरसी क्या,पढ़े-लिखे का फ़ारसी क्या।’ लोकोक्तियों के साथ एक-दो मुहावरे श्याम-पट्ट पर लिखे। लेकिन छात्र चुप रहे।
अब स्मृति में जो मुहावरे आते गए, वह छात्रों के समक्ष साझा किए गए। एक बार फिर मोबाइल का सहारा लिया गया और हाथ आधारित मुहावरों और लोकोक्तियों को छात्रों के समक्ष रखा गया। यह मौखिक तौर पर बस छात्रों के समक्ष पढ़े गए। एक के बाद दूसरे को पढ़ने में थोड़ा विराम लिया गया। ताकि छात्र भी इनका आशय समझने का प्रयास करें। जिनमें यह प्रमुख हैं-
‘हाथ आजमाना।’
‘काम में हाथ डालना।’
‘हाथ सेंकना।’
‘बहती गंगा में हाथ धोना।’
‘दो-दो हाथ करना।’
‘बायें हाथ का खेल होना।’
‘लंबा हाथ मारना।’
‘हाथ धोकर पीछे पड़ना।’
‘हाथ तंग होना।’
‘हाथ-पाँव मारना।’
‘हाथ पर हाथ धरकर बैठना।’
‘हाथ के तोते उड़ जाना।’
‘हाथ-पाँव फूलना।’
‘हाथ खींचना।’
‘हाथ धो बैठना।’
‘हाथ पीले करना।’
‘एक हाथ से ताली नहीं बजती।’
इन मुहावरों और कहावतों को मोबाइल स्क्रीन से पढ़कर सुनाना एक उद्देश्य के साथ किया गया। छात्र हैरान थे कि भाषा की कक्षा में भी गूगल का इस्तेमाल हो सकता है ! वे यह समझ रहे थे कि यह गतिविधि सवाल पूछने की नहीं थी। स्मृति पर आधारित जवाब देने की नहीं थी। संभवतः वह यह भी समझ रहे थे कि यह सुनने के कौशल के साथ-साथ शब्दों पर विशेष ध्यान देने वाली गतिविधि है।
साथी शिक्षक सुभाष भी जान और समझ रहे थे कि यह गतिविधि ज्ञान और अनुभव को इस प्रकार शामिल कर पा रही थी जिससे शिक्षा बोझ के तौर पर ग्रहण न की जाए। ऊब से हटकर छात्र आनंद ले रहे थे। वे साधारण बात को भी इस तरीके से खास समझ रहे थे।
अब फिर से कविता पर लौटना उचित लगा। अब बात हुई कि कविता में आए शब्दों के तुक मिलाते हैं। यह भी कहा गया कि सार्थक तुक पर बात करें। जैसे हाथ का साथ। बस फिर क्या था ! छात्रों को इसमें ख़ूब मज़ा आया। तुक मिलाने की गति इतनी तेज थी कि माथापच्ची अधिक हो गई। फिर नियम बनाया गया कि क्रमवार और पँक्तिवार ही आगे बढ़ा जाए।
शैक्षिक तकनीकी से संबंधित एनसीएफ 2005 कहता भी है-‘सामग्री और मानव के वातावरण से कल्पनाशील एवं सक्रिय रूप से जुड़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना। यह बात कलाओं के लिए भी सही है जिन्हें पाठ्यचर्या के अन्य क्षेत्रों में समेकित करने के अलावा विशेष सामग्री एंव उपकरणों की ज़रूरत है। उपकरणों के इस्तेमाल के मौके, उनके उपयोग में निपुणता हासिल करने के मौके और उपकरणों के देखभाल के माके बच्चों को मूल्यवान अनुभव दे सकते हैं।’
यही हुआ। शब्दों के तुक बताने में छात्र अपने अनुभवों को साझा कर रहे थे। शब्दों के तुक जो छात्रों ने सुझाए। कुछ यहाँ दिए जा रहे हैं-
छुआ-बुआ-सुआ-हुआ,
दवा,हवा,सवा (सवा की सार्थकता पर एक छात्र ने कहा कि सवा एक, सवा दो)
प्यार-बुखार-शुमार-क्वार,
वार-जार-लार-तार-पार-मार-हार
आविष्कार-परिष्कार-तिरस्कार-बहिष्कार,
रेल-खेल-जेल-तेल-मेल-
श्रम-भ्रम,
शरम-करम-नरम-परम-भरम
कान-मान-भान-जान-तान-पान
जहान-मकान-लगान-मचान-महान
भाषाई दक्षता के विकास में एक बात बहुत ही विशिष्ट है। मौलिक लेखन। यदि छात्र एक जैसे शब्दों से ही सही वाक्यों का निर्माण करते हैं तो वह सहपाठियों के वाक्यों से भिन्न हो सकता है। वह अपने अनुभव के आधार पर वाक्य निर्माण कर सकते हैं। भाषा की कक्षा में सूरज के उगने का वर्णन हर छात्र अपने अनुभव के आधार पर अलग-अलग कर सकता है। कोठारी आयोग ने तो साठ के दशक में ही कह दिया था,‘‘पाठ्यचर्या का पुनर्निरीक्षण तदर्थ प्रकृति का रहा है और इसे राज्य स्तर पर तैयार किया जाता रहा है जिसे सभी स्कूलों में एक समान रूप से लागू कर दिया जाता है। ऐसी प्रक्रियाएँ शिक्षकों एवं मुख्य अध्यापकों के प्रभाव को क्षीण बनाती हैं और नवाचार एवं खोज की संभावना को नष्ट करती हैं।‘‘
अतः यह जरूरी भी था कि कविता के आधार पर अब छात्रों की मुक्त और मौलिक सोच उनके वाक्य निर्माण में आ सके तो बेहतर होगा। श्यामपट्ट से अब कविता को मिटा दिया गया। लेकिन कविता में आए कुछ शब्दों को श्यामपट्ट पर लिखा गया। इस बार एक छात्र को चाॅक पकड़ाई गई। मोबाइल के स्क्रीन से कविता के कुछ शब्द फिर से बोले गए और छात्र ने सुनकर उन्हें श्यामपट्ट पर उतार लिया। उन शब्दों को यहाँ भी दिया जा रहा है।
हाथ, दुआ, दया, हवा, प्यार, वार, आविष्कार, रेल, खेल, तेल, कलम, श्रम, कान, जुबान, जहान।
छात्रों ने अपनी काॅपी में इन्हें उतार लिया। छात्रों से कहा गया कि इन पन्द्रह शब्दों में से कोई दस शब्दों को शामिल करते हुए एक-एक वाक्य बनाएं। प्रत्येक छात्र को दस शब्दों से दस वाक्य बनाने थे। छात्रों से कहा गया कि वे वाक्यों का निर्माण स्वंय और सिर्फ स्वयं करेंगे। अगल-बगल में बैठे सहपाठियों के बनाए वाक्यों की नकल नहीं उतारेंगे। यहाँ उन्हें पर्याप्त समय दिया गया। यह भी कहा गया कि मध्याह्न भोजन के बाद इस पर बात होगी। आज की समूची गतिविधियों के लिए पहले ही काॅपी के मध्य का संयुक्त पेज निकलवा लिय गया था ताकि बाद में संकलित किया जा सके।
बहरहाल छात्रों ने अपनी समझ और कल्पना से वाक्य निर्माण किए। इन वाक्यों में कृत्रिम किताबी गंध नहीं थी। थी तो उनकी अपनी दुनिया की ख़ुशबूएँ। कुछ बानगी यहाँ प्रस्तुत है।
उसने हाथ जोड़कर मुझे नमस्ते किया।
ये हाथ ही हैं जिनसे पाप और पुण्य दोनों होते हैं।
दवा हो या ज़हर थोड़ा ही काफी है।
पौड़ी में हवा में ठंडक है।
हवा तो कान में भी मौजूद रहती है।
हमें प्रेम प्यार से रहना चाहिए।
कल बुधवार है।
कड़वे बोल भी वार की तरह चोट पहुँचाते हैं।
विज्ञान का आविष्कार वरदान है।
अब रेल पहाड़ों में भी आने वाली है।
पढ़ाई के साथ खेल भी जरूरी है।
मैंने रेल नहीं देखी है।
पहली रेल कब चली?
खेल को खेल की तरह लेना चाहिए।
दीवारों के भी कान होते हैं।
चींटी के कान छूना चाहता हूँ। ऐसे कई वाक्यों को देखकर प्रसन्नता हुई। सीखने के प्रतिफल जिन्हें हम लर्निंग आउटकम्स कहते हैं उसके कई बिन्दुओं में भाषा की बारीकियों पर ध्यान देना औरअपनी भाषा गढ़ना भी प्रमुख है। इस लिहाज़ से यह गतिविधि संभवतः सफल ही रही।
पूरी प्रक्रिया में दो घण्टे से अधिक का समय बीत गया। पता ही नहीं चला। छात्रों ने भी पूरी तन्मयता के साथ अपनी ऊर्जा लगाई। सहयोग किया। पानी पीने और लघु शंका को छोड़ दे ंतो एक बार भी ऐसा अवसर न आया जब उन्होंने एकाग्रता भंग की हो।
कहना उचित होगा कि नवसंचार का उपयोग जब से बढ़ा है हमारी शैक्षिक तकनीक में भी आमूलचूल सुधार हुआ है। सार्वजनिक विद्यालयों में ब्लैक-बोर्ड ‘ब्लैक’ नहीं रह गए हैं। प्राथमिक, पूर्व प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, हाईस्कूल और इण्टमीडिएट स्तर पर अब ब्लैक-बोर्ड की जगह वाइट बोर्ड आ गए हैं। ग्रीन-बोर्ड भी आ गए हैं। किसी भी शैक्षणिक संस्था में शैक्षिक तकनीकी का पता यूँ ही चल जाता है। मसलन यदि वे संस्था अभी भी श्यामपट्ट (दीवारों पर काला रंग पुता हुआ बोर्ड) के सहारे चल रही है तो अंदाज़ा लग जाता है कि वह नवसंचार के साधनों से दूर हैं यदि निकट हैं तो उनका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि परम्परागत शिक्षण और उनकी तकनीक त्रुटिपूर्ण हैं। अब वे बीते जमाने की बात हो गई हैं। नहीं। क़तई नहीं। कक्षा को निरंतर रोचक बनाए रखना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। अब तो और भी चुनौतीपूर्ण है। हम अपने आस-पास देखते ही हैं। स्कूल पूर्व ही बच्चे मोबाइल का, कंप्यूटर का बेहतरीन इस्तेमाल करने लगे हैं। वे अंग्रेजी और हिन्दी सहित क्षेत्रीय भाषाओं के सहारे आसानी से नवसंचार का उपयोग करते हैं। ये दीगर बात है कि उपयोग में क्या करते हैं। यह कहना सही होगा कि अब कक्षा-कक्ष में छात्रों के सम्मुख किताब लेकर खड़े हो जाने से बेहतर शिक्षण नहीं ही होगा। रोज-ब-रोज़ तो नहीं ही होगा। हर रोज़ सफ़ेद चाॅक से दीवार में काले रंग की आयताकार आकृति में बेढब-ढब लिखावट से बेहतरीन शिक्षण अधिगम हासिल नहीं होगा।
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया पर जब हम विचार करते हैं तो भाषा की कक्षा के स्तर पर कई बिन्दु सामने आते हैं। सीखना-सिखाना तब और प्रभावी हो जाता है जब कक्षा में तरह-तरह की कहानियाँ,कविताएँ आदि को संदर्भ के अनुसार पढ़कर समझने-समझाने के अवसर उपलब्ध हों। एक-दूसरे की लिखी हुई रचनाओं को सुनने,पढ़ने और उस पर अपनी राय देने,
उसमें अपनी बात को जोड़ने,बढ़ाने और अलग-अलग ढंग से लिखने के अवसर हों। आस-पास होने वाली गतिविधियों,घटने वाली घटनाओं को लेकर प्रश्न करने,बच्चों से बातचीत करने,टिप्पणी करने,राय देने के अवसर उपलब्ध हों। अन्य विषयों,व्यवसायों,कलाओं आदि (जैसे-गणित,विज्ञान,सामाजिक अध्ययन,नृत्यकला,चिकित्सा आदि) में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली को समझने और उसका संदर्भ एवं स्थिति के अनुसार इस्तेमाल करने के अवसर हों। इन कुछ बिन्दुओं का सीधा और प्रभावी संबंध अत्याधुनिक सूचना तकनीक से है। यदि ये कक्षा-कक्ष में हैं तो भाषा की कक्षा का वातावरण जीवंत हो पड़ता है।
स्कूली छात्रों को ध्यान में रखते हुए जब हम यह विचार करते हैं कि भाषा की कक्षा में आखिर उन्होंने पढ़ने,सुनने और लिखने के अलावा आज क्या सीखा? क्या समझा? तब कई बार हम सीखने के प्रतिफल ध्यान में नहीं रख पाते। सूचना तकनीक के नए औजार हमें भाषाई कौशलों के विकास के साथ-साथ लर्निंग आउटकम्स की बेहतर प्राप्ति में सहायक हैं। मौटे तौर पर हम कक्षा पाँच के छात्र अधिगम देखें तो कुछ सीधे हमें हमारी शैक्षिक तकनीक को बदलने पर विवश करते हैं। भाषा की बारीकियों पर ध्यान देते हुए अपनी भाषा गढ़ना भी जरूरी है। अपनी पाठ्यपुस्तक से इतर सामग्री (अखबार, बाल पत्रिका,होर्डिंग्स आदि) को समझते हुए पढ़ना और उसके बारे में बताना भी सीखने का प्रतिफल है। इन सबसे बड़ी बात यह है कि विविध प्रकार की सामग्री पढ़ने के बाद छात्रों की संवेदनशीलता बढ़े। वह स्वयं में सकारात्मक मानवीय मूल्यों में वृद्धि को महसूस करंे। यदि यह न हुआ तो पढ़ना महज़ वर्णो की पहचान कर उसे पहचानना भर ही तो हुआ।
सेवारत् प्रशिक्षणों अक्सर यह बात प्रमुखता से स्वीकार की जाती भी है कि कक्षा की गतिविधियों को किताबों तक सीमित कर देने से बच्चों की रुचियों और उनके सामथ्र्य के विकास में बाधा आती है। इनमें से कई बाधाएँ इसीलिए उठती है क्योंकि स्कूल की रोजमर्रा की गतिविधि को बहुत ही अनुशासित ढंग से संचालित करने का दबाव रहता है। बस ज़रूरत इस बात की है कि हम देशकाल और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए नित नई गतिविधियों के बारे में सोचे।
नई शिक्षा नीति 2019 का मसौदा सार्वजनिक हो चुका है। उसमें भी 2023 तक हर तरह के स्कूलों को शैक्षिक तकनीकी से अद्यतन करने की सिफारिश की गई है। यह आज की मांग भी है और अनिवार्यता भी।
सन्दर्भ: माध्यमिक शिक्षा आयोग 1953
कोठारी आयोग 1964
एनसीईआरटी कृत पुस्तक हिंदी भाषा-प्राथमिक स्तर, सीखने के प्रतिफल।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005
महाशक्ति आर्गेनाइजेशन 2015,मुहावरे और लोकोक्तियाँ
‘सीखने के प्रतिफल’ एनसीईआरटी,नई दिल्ली
॰॰॰
मनोहर चमोली ‘मनु’
7579111144 
chamoli123456789@gmail.com

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