2 मई 2014

काश..... ! स्कूल जाने वाले दुनिया के बच्चे एक साथ हड़ताल कर दें.....


 स्कूल जाने का पहला दिन था। बस इतना ही याद है कि मेरा पहला शिक्षक एक अध्यापिका थी। बच्चे टाट-पट्टी पर बैठे हुए थे। मुझे भी वहीं बैठना था। अध्यापिका के माथे पर पूर्णमासी के चाँद सरीखी, बड़ी-सी लेकिन सूर्ख लाल बिन्दी चमक रही थी। सिर के बीचों-बीच लंबी माँग करीने से निकाली गई थी। माँग में लाल सिन्दुर दूर से ही चमक रहा था। अध्यापिका के हाथ हलके से हिलते तो चुडि़या खनखनाती हुई बज रही थीं। अध्यापिका ने रंग-बिरंगी साड़ी पहनी हुई थी। पैरों में चमकीली पाजेब भी उनके चलने पर बज उठती। 

            मैं घर से स्कूल कैसे गया? मेरे साथ कौन था? मैंने पहला अक्षर कैसे और कब सीखा था? मैंने पढ़ना कैसे सीखा? इन सवालों का जवाब मैं नहीं दे सकूँगा। कारण? कुछ भी याद नहीं। हाँ। इतना जरुर याद है कि स्कूल जाने से पहले मैं अपने दो बड़े भाईयों को स्कूल जाते हुए देखता था। शायद उन्हें स्कूल जाते हुए देखकर, मेरे मन में विद्यालय की केाई प्यारी-सी छवि बन गई होगी।

            शायद यही कारण रहा होगा कि मैं भी अपने दोनों बड़े भाईयों की तरह बिना चीखे-चिल्लाए और रोए स्कूल जाने के लिए सहर्ष तैयार हो गया हूँगा। विद्यालय में मेरी पहली पिटाई कब हुई? यह भी याद नहीं है। हाँ। इतना जरूर याद है कि मुझे अक्षर ज्ञान कराने वाली स्कूल में दो अध्यापिकाएँ थीं। हैडमास्टर सरदार थे। उनकी पगड़ी हर रोज रंग बदल देती थी। लेकिन वह केवल कक्षा पाँच को ही पढ़ाते थे।

दोनों अध्यापिकाओं के बच्चे भी हमारे सहपाठी थे। अक्सर हमारी अध्यापिकाएँ पिटाई की शुरुआत अपने बच्चों से ही करती थीं। कई बार तो ऐसा होता था कि सुबह बड़ी अध्यापिका अपने बच्चों को पीटती तो मध्यांतर के बाद छोटी वाली अध्यापिका अपने बच्चों पर टूट पड़तीं। मुझे अच्छे से याद है कि दोनों अध्यापिकाएँ जब पीटती थीं तो इतना पीटती थीं कि उनकी कलाई पर पहनी रंग-बिरंगी चूडि़या जिनमें हरी और लाल ज्यादा होती थीं, टूट जाया करती थीं। कई बार चूडि़याँ टूटते समय या तो उनके हाथों को जख़्मी कर देती थीं या जिसकी पिटाई हो रही है उसके गाल, कान, गले आदि में चूडि़यों के टूकड़ों से छिटपुट घाव हो जाया करते थे।

            विद्यालय में मेरी पहली पिटाई कब हुई थी? यह भी याद नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि मेरी स्कूल में पिटाई ही नहीं हुई। हुई है। लेकिन मैं अन्य सहपाठियों की तरह अधिक नहीं पीटा गया हूँ। उन दिनों बुनियादी स्कूल में अंग्रेजी नहीं पढ़ाई जाती थी। मैंने अंग्रेजी के वर्ण कक्षा छह में जाकर सीखे। फिर भी बुनियादी स्कूल सज़ा का केन्द्र था। मन-मस्तिष्क में यह गहरे पैठ गया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, स्कूल तो जाना ही पड़ेगा। मैंने स्कूल न जाने का कभी बहाना नहीं बनाया। यह मुझे याद है।

            हमारा स्कूल बहुत दूर था। अक्सर देर से स्कूल पहुँचने वाले छात्रों की प्रातःकालीन सभा में ही पिटाई हुआ करती थी। सजा देने से पहले देर से आने छात्रों की अलग से लाईन बन जाती थी। प्रातःकालीन सभा की समाप्ति पर देर से आने वालों को छोड़कर अन्य छात्र अपनी-अपनी कक्षाओं में चले जाते थे। सज़ा देने की जिम्मेदारी हैडमास्साब की हुआ करती थी। वह इस बहाने कभी हथौड़े (स्कूल का घण्टा बजाने वाला लकड़ी का हथौड़ा) से सिर पर गुठली बना दिया करते थे। दो-दो लड़कियों की चुटिया बाँधकर गोल-गोल घुमाते थे। रिंगाल (बाँस की एक जंगली प्रजाति) की बेंत से कभी हाथों में तो कभी पुटठों पर पिटाई होती थी। लड़कों को मुर्गा बनाकर उनकी पीठ पर ईंट रख दी जाती थी। यदि ईंट गिर गई तो फिर बेंत से पिटाई हुआ करती थी। सबसे मारक पिटाई कण्डाली से होती थी। कण्डाली को बिच्छू घास भी कहा जाता है। हाथों और पैरों में इस घास को छुआया जाता था। कण्डाली के काँटे शरीर में चुभ जाते थे। जिस पर कण्डाली लगती थी, वह 'सूसूसूसू' की आवाज निकालता। झनझनाहट तो कई बार चैबीस घण्टे तक रहता था। 

अध्यापिकाएँ तो थप्पड़ों और मुक्कों से पिटाई किया करती थी। कभी-कभी वे तर्जनी और अनामिका के बीच पेंसिल रखकर जोर से दबाया करती थीं। तब अंगुलियों में तीव्र दर्द हुआ करता था। हम सब बुनियादी स्कूलों में टाट पट्टी पर ही बैठा करते थे। एक सज़ा यह भी हुआ करती थी कि खड़े रहो। मध्यांतर तक भी लगातार खड़ा रहना अजीब सा लगता था। यदि दीवार के सहारे पीट टेक ली तो मुर्गा बनने की दूसरी सजा मिल जाया करती थी।

कक्षा एक से पाँच तक का बुनियादी स्कूल नए प्रवेशित बच्चों को देखा-देखी बहुत कुछ सीखा देती है। वरिष्ठ छात्रों को पीटता देख कर नवागंतुक छात्र तो वैसे ही सहम जाते थे। तब यही मनावैज्ञानिक तरीका था कि बड़ी कक्षा के एक-दो बच्चों को पीट दो, छोटी कक्षा के बच्चे खुद-ब-खुद चुप हो जाएँगे।

            मेरे बुनियादी स्कूल में कक्षा एक और दो के छात्रों को एक साथ बिठाया जाता था। कक्षा तीन और चार के छात्रों को एक साथ और कक्षा पाँच के छात्र दूसरी कक्षा में बिठाए जाते थे। उन दिनों समूचा स्कूल दो या तीन कक्षों में ही सिमटा होता था। सुबह का घण्टा बजने से स्कूल की छुट्टी का घण्टा बजने तलक स्कूल प्रांगण में बहुत कुछ ऐसा घटता था, जो सबके सामने घटता था। कक्षा पाँच के छात्रों की पिटाई हो रही है तो कक्षा चार से लेकर कक्षा तीन के छात्र भी सतर्क हो जाया करते थे। कक्षा एक और दो के बच्चे आँखें फाड़-फाड़कर देखते थे। मानो किसी खेल का सीधा प्रसारण देख रहे हों।

मुझे लगता है कि दब्बू, डरपोक, संकोची, अंतर्मुखी बच्चे स्कूल में अग्रेतर छात्रों के साथ घट रही घटनाओं से सबक ले लिया करते हैं। मैं भी ऐसा ही करता था। बावजूद उसके सज़ा मुझे भी मिलती थी। 

            एक दिन देर से आने वाले छात्रों की पिटाई हो रही थी। मैं कक्षा से उचक कर देख रहा था। हैडमास्साब की नज़र मुझ पर पड़ गई। वे दौड़ते हुए आए और सीधे मेरे सिर पर हथौड़े की एक चोट की। चोट बहुत तेज तो न थी, लेकिन सिर पर एक गुठली तो बन ही गई थी। मुझे याद है कि वह मध्यांतर के बाद तक भी वह गुठली सिर पर कायम रही।

            एक बार की बात है। मध्यांतर हुआ। उन दिनों क्रिकेट खेल देखना रोमांचकारी अनुभव हुआ करता था। दो बड़ी कक्षाओं के सहपाठी मुझे अपने साथ मैच दिखाने ले गए। हम मैच देखने में इतना रम गए कि समय का आभास ही नहीं रहा। उन दिनों कलाई घड़ी भी आम नहीं हुआ करती थी। सूरज के ढलने और उगने के हिसाब से समय का अनुमान लगाया जाता था। दौड़-दौड़ कर स्कूल पहुँचे तो स्कूल में छुट्टी हो चुकी थी। हमारे बस्ते भीतर ही कैद हो गए थे। घर पहुँचे तो खूब डाँट पड़ी। अगले दिन स्कूल तो जाना ही था। स्कूल में पूरा दिन मुर्गा बना रहा। मध्यांतर में भी हम मुर्गा बना रहे। कमर और घुटनों में दर्द कई दिनों तक रहा।

            एक दिन हैडमास्साब नहीं थे। दूसरी अध्यापिका भी नहीं थीं। कक्षा पाँच को छोड़कर अन्य कक्षाएँ एक साथ बैठी थीं। हम छात्रों की बातचीत शोरगुल में बदल गई। फिर कलम, लंच बाॅक्स और किताबें हम एक-दूसरे पर उछालने लगे। हम टाटपट्टी में कक्षावार लाईन से बैठे हुए थे। मेरे आगे बैठे सहपाठी ने दूर बैठी किसी छात्रा के पिता का नाम लेकर उसे चिढ़ाया। छात्रा ने चिढ़कर छोटा सा पत्थर मेरे सहपाठी को निशाना बनाकर फेंका। ठीक मेरे आगे बैठा सहपाठी झुक गया। परिणामस्वरूप पत्थर मेरी बाँयी आँख के ठीक ऊपर माथे पर जा लगा।

‘‘खून-खून!’’ मेरा सहपाठी चिल्लाया। दो-तीन बच्चे अध्यापिका को बुला लाए। मेरी आसमानी कमीज और खाकी पैण्ट में खून की बूँदे टपक-टपक कर उन्हें बदरंग बना चुकी थी। अध्यापिका आईं। अध्यापिका ने मुझे पकड़कर पानी की टंकी के नीचे खड़ा कर दिया। मेरा सिर धोया। अपने साड़ी के पल्लू से मेरा सिर पोंछा। माँ की तरह दुलारा। खून था कि रुक ही नहीं रहा था। अध्यापिका दौड़कर किसी डाॅक्टर से रुई, डिटाॅल और पट्टी ले आईं। मेरी मरहम-पट्टी की।

मध्यांतर हुआ। अध्यापिका ने मुझे अपने घर से लाए पराँठा और मेथी-सौंप की खुशबू से भरा आम का आचार खिलाया। सब कुछ सामान्य होने के बाद सब अपनी-अपनी कक्षा में चले आए। उस छात्रा को अध्यापिका ने दूसरे कमरे में बुलाया। उसकी खूब पिटाई हुई। वह जोर-जोर से चिल्ला रही थी। रो रही थी। मुझे अजीब सा लग रहा था। पिट वो रही थी और डर मैं रहा था। घर जाकर मेरी पिटाई तय है। मैं यही सोच रहा था। लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ। घरवालों को मेरी आँख बच जाने से संतोष था। उस दिन के बाद शायद ही उस छात्रा ने मेरे साथ कभी बात की हो। लेकिन मेरे आगे बैठने वाला वह सहपाठी उस छात्रा को कई दिनों तक चिढ़ाता रहा। कहता रहा-‘‘ले। पत्थर दूँ। लगा निशाना। लगा-लगा।’’

            कक्षा पाँच में पहुँचा तो हैडमास्साब का फरमान सुना-‘‘सब निब वाले पैन से ही लिखेंगे। किसी के पास डाॅट पैन होगा तो मैं उठा कर फैंक दूँगा।’’ वे ऐसा ही करते। यदि कोई डाॅटपैन से लिखता हुआ दिखाई देता तो वे सबके सामने पैन के दो टूकड़े कर दिया करते थे।

एक दिन हैडमास्साब स्कूल में नहीं थे। हमारी कक्षा खाली थी। खाली दिमाग शैतान का घर होता ही है। किसी छात्र ने निब के पैन से स्याही छिड़क दी। मेरी कमीज पर उसके धब्बों ने विचित्र सा आकार बना दिया। मुझे गुस्सा आया। मैंने अपना पैन निकाला और जोर से छिड़क दिया। उसके धब्बे दूर तक नहीं जा पाए। तभी मेरे दूसरे सहपाठी ने अपनी हथेली में स्याही की शीशी रख ली। वह एक टाँग पर चलने लगा। शीशी प्लास्टिक की थी। वह लुढ़ककर दूसरे सहपाठी के सिर पर जाकर फैल गई। स्याही गले से कालर और फिर कमीज की यात्रा पर चल पड़ी। मैंने वह स्याही की शीशी उसके काॅलर से निकालने की कोशिश की ही थी कि हैडमास्साब आ गए।

बस फिर क्या था। उन्होंने आव न देखा ताव और मुझ पर बरस पड़े। सिर पर, गले में,  गालों में, कानों पर चटाचट थप्पड़ों की बारिश से मैं अपने घुटनों पर जाकर सिमट गया। तभी स्याही से भीगा छात्र बोला-‘‘सरजी। ये नहीं, वो था।’’

हैडमास्साब का हाथ हवा में ही रुक गया। जो होना था, वो तो हो चुका था। मैं पीटा जा चुका था। हैडमास्साब के होंठो के किनारों पर सफेद थूक जम चुका था। उनकी सांसें जोर-जोर से बाहर आने का आतुर थी। बड़ी-बड़ी आँखें लिए वह कक्षा से बाहर निकल गए। फिर बेंत लेकर आए। पहाड़ा पूछने के बहाने से फिर उस दिन समूची कक्षा न जाने कितनी बार पिटी। मैं फिर पीटा गया।

            कक्षा छह के लिए मुझे दूसरे स्कूल में भर्ती कराया गया। यहाँ आकर जैसे हम एक ही दिन में बहुत बड़े हो गए थे। हमें बैठने के लिए स्टूल और डैस्क जो मिले थे। हिन्दी पढ़ाने के लिए एक नई अध्यापिका आईं। वे जैसे ही श्यामपट्ट पर लिखने के लिए चाॅक घुमाती, सहपाठी 'हूहूहूहू' की आवाजें निकालते। मैडम झट से छात्रों की ओर मुड़ती, ताकि 'हूहूहूहू' करने वाले को पहचाना जा सके। ये रोज की बात होती। तब बगल की कक्षा के गुरुजी आते और सबको डाँट पड़ती। तब जाकर कुछ देर पढ़ाई शुरू होती।

             एक दिन मैडम ने पढ़ाया। अब श्यामपट्ट पर लिखाने की बारी थी। वे जैसे ही श्यामपट्ट की ओर बढ़ी। सहपाठी चिल्लाए। तभी मेरे दाँयी ओर बैठे सहपाठी ने अपने बाँए हाथ के अँगूठे और तर्जनी से मेरी दाँयी जाँघ पर तीव्रता से चूँटी काटी। मैं उठकर चीखा। मैडम ने समझा मैं भी 'हूहूहूहू' करने वालों में शामिल हूँ। वो तेजी से मेरी ओर बढ़ी। मैडम के हाथ में डॅस्टर था। वही डस्टर मेरे सिर पर दे मारा। मैंने प्रहार वाली जगह पर दोनों हथेलियाँ रखी और सीट पर झुक गया। ‘धम्म। धम्म।’ तीन-चार मुक्के मेरी पीठ पर जा पड़े। गुस्से में तमतमाई मैडम सीधे स्टाॅफ रूम में चली गई। ऐसे कई किस्से हैं, जब मैं अकारण भी पीटा गया।

            दो-दो साल बड़े दो भाई के बाद में तीसरा था। मेरी छोटी बहिन मुझसे दो साल छोटी थी। मुझ पर दो भाईयों की निगाहें हमेशा रहती थीं। मेरी निगाह अपनी छोटी बहिन पर रहती थीं। यही कारण था कि पढ़ना भले ही अरुचिकर रहा हो, पढ़ने स्कूल जाना मजबूरी थी। अन्यथा मेरा वश चलता तो मैं भी औरों की तरह स्कूल जाते समय किसी पेड़ या झाड़ी में जा छिपता और छुट्टी के समय घर लौटता। मेरा वश चलता तो मैं भी कभी पेट दर्द, तो कभी दाँत दर्द का बहाना बनाता। मेरा वश चलता तो बीच-बीच में स्कूूल से बंक मार लिया करता।

यह सब तो हो नहीं सका। लेकिन हर रोज स्कूल जाते समय यह डर तो बना रहता था कि कहीं आज स्कूल में पिटाई न हो जाए। पिटाई से बचने के लिए हर वादन में सतर्क रहना बेहद कठिन काम था। यह सब कारण स्कूल में बेमज़ा के परिणाम ही तो थे। काश ! स्कूल आनंददायी होते। आज भी अपवादस्वरूप स्कूल सज़ा देने के स्थल हैं। अधिकतर मामलों में ऐसी सज़ाएँ उसे दी जाती है, जो उन सजाओं को पाने के लिए जि़म्मेदार ही नहीं होता। ऐसी सजा जो किसी एक को मिलनी थी, समूची कक्षा को मिलती है। ऐसी सज़ा जो बेहद सूक्ष्म हो सकती थी, लेकिन वृहद रूप में मिलती है।

अपवादस्वरूप आज भी पूरी दुनिया में स्कूल ही ऐसा केन्द्र है, जहाँ दुनिया के समूचे अभिभावकों के संभवतः नब्बे फीसद बच्चे पढ़ते हैं। अभिभावक की नज़र में आज भी स्कूल उनकी आस्था का केन्द्र हैं। उन्हें लगता है कि उनका पाल्य स्कूल में घर के बाद सबसे ज्यादा सहज और सुरक्षित है। उन्हें लगता है कि उनका पाल्य बहुत कुछ स्कूल में ही सीख सकता है। लेकिन अधिकतर स्कूल आज भी स्कूल को सज़ा देने के भयावह केन्द्र के रूप में पाल-पोस रहे हैं।

            विद्यालय तमाम सज़ाओं का पोषण केन्द्र है। कुण्ठा पाल लेना सीखने का केन्द्र है। अत्याचार को चुपचाप सहन करने का अभ्यास केन्द्र है। चुप्पी साध लेने का प्रशिक्षण स्कूलों में ही दिया जाता है। आत्मकेन्द्रित हो जाने का घोल यहीं पिलाया जाता है। तमाम खतरे पाल्यों के मन-मस्तिष्क में जाने-अनजाने में ही सही स्कूल से ही प्रवेश कर लेते हैं। यह तमाम अमिट निशान फिर जिन्दगी भर शरीर का, मन का और स्वभाव का साथ देते हैं।

            अपने अनुभवों के आधार पर तो अब मैं यही कहूँगा कि विद्यालय में छात्रों को किसी भी प्रकार सजा नहीं दी जानी चाहिए। सजा को पहले विकल्प में तो कतई नहीं लिया जाना चाहिए। यह अन्तिम विकल्प भी नहीं है। न जाने कितने बालमन सज़ा पाने के बाद कभी जीवन के विद्यालय में सफल न हुए होंगे। सज़ा कभी सफलता का मार्ग नहीं सुझाती। उलट कई ग्रन्थियाँ बनाने को बाध्य करती है।

            मुझे मेरे स्कूली जीवन में जब-जब सजा मिली। जिस प्रकार की भी सजा मिली। भले ही मैं गलती पर था। जब मैं गलती पर नहीं था, तब भी। मैं घण्टों मिली जा चुकी,भुगती जा चुकी सजा के बारे में सोचता रहता था। कई-कई दिनों तक वह समूचा चित्र मेरी आँखों के सामने घूमता रहता था। सजा का वाकया बार-बार सोचकर मैं म नही मन कुढ़ता था। खुद पर खीजता था। मेरा बहुत अनमोल समय जाया हुआ होगा। मैं आज जो कुछ हूँ, उससे इतर मैं जो कुछ हो सकता था, उसके पीछे स्कूल में मिली सजा ही जिम्मेदार है। काश ! प्रत्येक स्कूल के एक-एक कक्षा कक्ष में अत्याधुनिक कैमरे लग जाएँ। प्रत्येक स्कूल की एक-एक गतिविधि सार्वजनिक होनी चाहिए। ताकि दुनिया का कोई भी शिक्षक जानबूझकर या अनजाने में बालमन के कोमल मन-मस्तिष्क को ठेस न पहुँचाए।

            सोचता हूँ यदि दुनिया का हर स्कूल जाने वाला बच्चा हड़ताल कर दे तो क्या होगा? दुनिया का हर स्कूल जाने वाला छात्र हमेशा के लिए स्कूल की ओर पीठ कर ले तो क्या होगा? दुनिया जीते-जी मर जाएगी। सोचता हूँ कि स्कूल में मिलने वाली सजा ने न जाने कितने बचपन की परोक्ष रूप से हत्या कर दी होगी। संभवतः कहीं भी, किसी के पास स्कूल में मिलने वाली सजा के परिणामों का लेखा-जोखा नहीं है।

लेकिन फिर भी, विद्यालय का कोई विकल्प नहीं है। आज भी विद्यालय में बच्चे समूह में सीखते हैं। भिन्न परिवार, पड़ोस और स्थलों के भिन्न-भिन्न बच्चों के बीच रहकर ही तो एक छात्र संघर्ष करता है। सीखता है। समझता है। सहभागिता, सहयोग, प्रेम, सहिष्णुता, भाईचारा आदि यहीं तो सीखता है।

  यही कारण है कि आज भी एक-एक विद्यालय चाहे वह कैसा भी है। कहीं भी है। भले ही वह मज़ा का केन्द्र नहीं बन पाया है, लेकिन एक-एक स्कूल की मौन बरसों से खड़ी दीवारें यही तो कहती हैं-‘‘कुछ बात तो है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’’ 

23 अप्रैल 2014

बालसाहित्य: यथार्थ एवं कल्पना

बालसाहित्य: यथार्थ एवं कल्पना

-मनोहर ‘मनु’ 
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आपकी ही तरह मैंने भी बचपन में सैकड़ों कहानियाँ सुनी हैं। यह याद तो नहीं कि मैंने कैसे पढ़ना-लिखना सीखा। हाँ इतना याद है कि जब पढ़ना-लिखना सीख लिया तो अनगिनत कहानियाँ पढ़ने को मिली। मुझे अच्छी तरह से याद है कि बचपन में ही मैंने रेल, समुद्र, गिलहरी, हाथी और जहाज के दर्शन कहानियों में कर लिए थे। बस इन्हें अपनी आँखों से देखा नहीं था।

मुझे याद है जब मैं बारहवीं कक्षा पास कर आई0टी0आई0 करने देहरादून आया, तब मैंने पहली बार गिलहरी को देखा था। गिलहरी इतनी छोटी होती है! यह मेरे लिए हैरानी की बात थी। मैं अपलक गिलहरी को देखता रहा। बहुत दिनों तक गिलहरी मेरे मन-मस्तिष्क में छायी रही। किस्सों-कहानियों में तो गिलहरी बेहद चतुर और बड़ों-बड़ों को हराने वाली सशक्त पात्र बन कर मेरे मन में अच्छी तरह ठस गई थी। लेकिन वास्तव में वह कुछ ओर ही निकली। हलकी सी आहट पाते ही एकदम से पेड़ पर चढ़ जाती है। असल में वह कौआ को भी क्या चकमा देती होगी। लेकिन मेरे सामने तो पूर्व में गिलहरी कहानियों में हीरो की तरह आई थी। मुझे अजीब सा लगा।

ऐसा ही कुछ हाथी, रेल और समुद्र को पहली बार देखने पर हुआ था। समुद्र का तट देखना तो मेरे लिए अविस्मरणीय घटना जैसी थी। समुद्र भी मैंने तब देखा जब मैं स्नातक का छात्र हो चुका था। वैसे अभी मैंने समुद्री यात्रा नहीं की है। समुद्र विहंगम होता है। उसकी लहरों में इतना शोर हो सकता है। जहाँ तक नज़र जाती है, वहाँ तक पानी ही पानी होता है। यह सोच समुद्र को देखकर दूर तलक गई। जबकि कहानियों में समुद्र इस तरह से कहीं नहीं आया था।

आज मैं चालीस वसंत देख चुका हूँ। लेकिन मैंने आज तक हवाई जहाज अपने हाथों से छूकर नहीं देखा है। यात्रा तो दूर की बात है। हवाई जवाज को अपने हाथों से छूना और जहाज की यात्रा करना मेरे लिए आज भी रोमांच का विषय होगा। कहने का अभिप्राय यही है कि किसी चीज़,सामग्री, जीव या और भी जो कुछ हो, उसके बारे में पढ़ना और सुनना अलग बात है तथा उसे अपने हाथों से छूकर देखना या अपनी नंगी आँखों से साक्षात् सामने देखना बिल्कुल अलग बात है। उसका आनंद ही कुछ और है। पहली बार देखी गई चीज़ के बारे में पूर्व में अनुमान और कल्पना करना बिल्कुल ही दूसरी बात है। उसी को दृश्य-श्रृव्य माध्यमों से देखकर जानना एक अलग अनुभूति है।कई बार जब तक हमने कोई जीव या सामग्री देखी नहीं है, उसकी कल्पना कर अनुमान लगाना दूसरा ही मामला हो जाता है। फिर जब भी हम उस जीव या सामग्री को साक्षात् देख लेते हैं,तो अक्सर वस्तु-चीज़-जीव-सामग्री हमारे अनुमान और कल्पना की पकड़ से बेहद दूर होती है।

शायद ही कोई ऐसी चीज़ होगी, जिसका अनुमान हमने उसे अप्रत्यक्ष रूप में देखकर किया होगा और जब हमने उसे प्रत्यक्ष देखा हो तो वह एकदम सटीक या बेहद करीबी मिली हो।तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि अनुमान और कल्पना करना निरर्थक रहा? क्या अनुमान और कल्पना का जीवन में कोई महत्व नहीं है? है। बहुत है। असीमित है। अनुमान और कल्पना के मायने बच्चों के हिसाब से तो और भी दिलचस्प हैं।

 हम हर आयु के स्तर के बच्चों के लिए अनुमान और कल्पना को बेहद फंतासी जैसा स्थापित करें। यह कहीं न कहीं बच्चे की अनुमान शक्ति और कल्पना के साथ खिलवाड़ होगा। माना कि हम राई का बीज की अवधारणा बच्चों के समक्ष रख रहे हैं तो वह हमारी रचना सामग्री में पहाड़ की तरह न आए। हम राई का जो भी रेखाचित्र खींचें, वह ऐसा हो कि कहीं न कहीं बच्चे के मन-मस्तिष्क में राई की अवधारणा को पुष्ट करने में मदद मिले। बच्चा अपने स्तर पर राई का एक काल्पनिक खाका या चित्र बना सके। जब बच्चा जीवन में कभी भी राई का बीज पहली बार देखे तो वह इतना आश्चर्य व्यक्त न करें कि यह न कह दे-‘‘अरे! राई का बीज ऐसा होता है?’’

हाँ। यह अलग बात है कि यथार्थ से परे काल्पनिकता के सहारे हम कोई अवधारणा नहीं बल्कि कोई मूल्य प्रदर्शित करना चाहते हैं। मसलन मुंशी प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह है। यह कहना ठीक न होगा कि ईदगाह बालसाहित्य में नहीं आ सकती। यह विषय दूसरा हो जाएगा। यहाँ उस कहानी को कोई भी पढ़ सकता है। बच्चा भी। खैर....हामिद के बारे में सवाल उठ सकता है कि आखिर उस उम्र का बच्चा अपनी दादी के प्रति इतना संवेदनशील कैसे हो सकता है?असल जीवन में यह अपवाद ही नहीं असंभव-सा लग सकता है। बाल स्वभाव तो चंचल होता है। जहाँ अन्य बच्चे मेला से अपने लिए भिन्न-भिन्न खिलौने लाए, वहीं हामिद चिमटा कैसे ले सकता है? बमुश्किल तो मेला देखने के लिए अनुमति मिली। खर्च करने के लिए कम पैसे। उस पर तुर्रा यह कि बच्चा चिमटा उठा लाया। लेकिन यह कहानी बच्चे की दिमागी परिपक्वता से इतर उसमें जगाती संवेदनाओं की कहानी है। मानवीय मूल्यों की ओर इशारा करती हुई कहानी है। और भी बहुत कुछ कहाती-सुनाती-जगाती हुई कहानी है।

खैर....अब हम इस कहानी में भी यथार्थ खोजने लगे तो हो गया। इस कहानी में हामिद का दादी के प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्शन भी है। कहानी कहीं न कहीं यह भी बताने का प्रयास करती है कि हमें अपनी खुशियों के साथ दूसरों के कष्टों की भी चिन्ता करनी चाहिए। यह भी बड़े कभी-कभी ही नहीं अक्सर छोटों की गहरी सोच की थाह नहीं पा पाते।अनुमान और कल्पना कुछ न करे, लेकिन इतना तो करे कि बच्चे उस चीज़,वस्तु या जीव के प्रति सोचे, चिन्तन करे। उसे खोजे,तलाशे और जीवन के साथ उसका अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करे। मुझे लगता है कि बालसाहित्य लिखते समय रचनाकार के अंतःस्थल में एक औसत खाका तो ध्यान में रखता ही होगा कि आखिर उसकी रचना किस आयु वर्ग के बच्चे के लिए है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उस रचना के अधिकाधिक पसंद न किए जाने के खतरे बढ़ जाएँगे। हालांकि मोटे तौर पर इस तरह का विभाजन ठीक नहीं माना जाता। लेकिन जब हम कल्पना और यथार्थ को शामिल करने की बात कर रहे हैं, तब यह जरूरी होगा।

मैं अपने घर से शुरू करता हूँ। मेरा छोटा बेटा अभी पन्द्रह महीने का है। वह अपनी उम्र के बच्चों की तरह ही बड़ों की बाते सुनता है। अंगुली के इशारे से प्रतिक्रिया भी करता है। कुछ शब्द स्पष्ट बोलता है। जहाज बोलो तो बाकायदा बाया हाथ उठाकर हवा में घुमाता हुआ घुघुघुंघुघुघुं की आवाज करता है। बड़ा बेटा चार साल का होने वाला है। वह कहानियाँ गौर से सुनता है। बीच-बीच में अपनी आँखों को आसमान की ओर नचाते हुए मेरी परवाह किए बिना उस कहानी में अपनी कहानी जोड़ने लगता है। कुछ पात्र जोड़ने लगता है। कभी कभी नहीं, अब तो अक्सर वह मुझे टोकते हुए कहता है कि नहीं उसने ऐसे बोला होगा। नहीं, वो फिर वहाँ जाता है। आदि-आदि बातें शामिल करता है। इस वय वर्ग के बच्चे हा नहीं ज्यादा नहीं से बड़ों की समझ से नहीं अपनी समझ से अपनी राय दे रहे होते हैं।

अब अपने परिवार के दो भतीजों और दो भतीजियों की बात पर आता हूँ। सबसे छोटा भतीजा सात साल का हो गया है। भतीजी आठ की है। शेष दो दस और बारह वर्ष के हैं। जब मैं इन सबकों एक साथ बिठाकर कोई कहानी सुनाने लगता हूं तो दस और बारह साल वाले बच्चे कहानी में यथार्थ वाली कहानियांे पर अधिक गौर करते हैं। उन्हें फंतासी कहानी अब ज्यादा दिलचस्प नहीं लगती। वहीं सात साल का भतीजा और आठ साल की भतीजी को ऐसी कहानियाँ सुनने में मज़ा आता है, वे दोनों जीवन की सच्चाईयों से इतर कल्पना और अति कल्पना से अधिक सराबोर वाली कहानियों को अधिक पसंद करते हैं। यथार्थपरक कहानियाँ सुनते हैं लेकिन उनके चेहरे तब सामान्य हो जाते हैं। मानों उन्हें बेस्वाद और भरपेट भोजन कर लेने के बाद फिर से भोजन करने को कहा जा रहा हो। हाँ। वह अपने जी चुके जीवन में देखी-भोगी गई बातों से हर कहानी को जोड़ना नहीं भूलते।

अब यह जरूरी भी नहीं कि इन छह बच्चों के आधार पर हम समेकित बच्चों के स्वभाव का सार निकाल लें। लेकिन मैं तो अक्सर कहानी की चर्चा करते समय बच्चों की आयु को देखते हुए इन बातों पर लम्बे समय से किसी निष्कर्ष की तलाश में हूँ।कई बार अलग-अलग आयु के बच्चों को एक साथ चार-पाँच कहानियाँ ले जाकर सुनाने-पढ़ाने के अध्ययन ने मुझे चैंकाया है। यदि कहानियों में आयु वर्ग के हिसाब से कथावस्तु नहीं है तो बच्चों के समूह में कई बच्चे बौर होने लगते हैं। वह प्रतिक्रिया करना छोड़ देते हैं। एक के बाद एक कर सारी कहानी नहीं सुनाने से भी वह चाव नहीं आ पाता जो पहली कहानी सुनाते समय सब बच्चों के चेहरे पर था। बच्चे दूसरी कहानी के बाद से ही अपनी एकाग्रता खोने लगते हैं। ऐसा क्यों हुआ होगा?

बालसाहित्य की कोई रचना पढ़ने या सुनाने से पहले जब भी हम यह परख लेते हैं, या अंदाजा लगा लेते हैं कि अमुक रचना किस आयु वर्ग के बच्चों के लिए अधिक उचित है तो अमूमन वह अपवादस्वरूप बच्चों में ग्राह्य हो जाती है। यदि कहानी सुनाते समय हम बच्चों की आयु के अनुसार यथार्थ और कल्पना का घोल तय कर कहानी का चयन कर लेते हैं तो कहानी चल पड़ती है। बच्चे एकाग्रता से सुनते भी है और उन्हें मज़ा भी आता है। बहुत छोटे बच्चों को यथार्थपरक कहानियां ज्यादा नहीं भाती। उन्हें तो चटपटी, मज़ेदार, गुदगुदाने वाली, कल्पनाओं के पँख लगाने वाली कहानियाँ ज्यादा भाती हैं। उन्हें अभी जीवन के कड़वे और सच्चे तानो-बानों से बुनी कथावस्तु से क्या लेना-देना?लेकिन वहीं जो बच्चे बड़े हो रहे है। वे जो अब अपने ही जीवन को अपने अनुभव के साँचे में फिट करते हुए एक-एक कदम आगे बढ़ाने लगे हैं, उन्हें अति काल्पनिक, फँतासी से इतर उन यथार्थवादी कहानियों में अधिक मज़ा आता है, जिनसे वे खुद दो-चार होते हैं। कहानी सुनाने के साथ यदि ऐसा अधिक मज़ेदार होता है, तो फिर हम यही प्रयोग रचना लिखते समय क्यों नहीं कर सकते?

दुनिया की आबादी में बच्चे तीस फीसद से अधिक हैं। यह बच्चे दुनिया का भविष्य हैं। राष्ट्र की प्रगति में बच्चों की भूमिका महत्वपूर्ण है। स्वस्थ और समग्र विकसित बच्चा ही तो किसी राष्ट्र के विकास में महती भूमिका निभाता है। विकसित देशों की नीतियों पर नज़र डालने से स्पष्ट होता है कि वह देश अन्यों की अपेक्षा इसलिए भी समृद्ध हैं, क्योंकि उन्होंने बच्चों को खुशहाल बचपन दिया। बच्चों के हित में कई योजनाएँ संचालित की।

आज अभिभावक गर्भस्थ शिशु से लेकर बालिग होने तक अपने बच्चे के प्रति बेहद सजग और संवेदनशील दिखाई देते हैं। आज उनकी शिक्षा, खेल, कॅरियर रहन-सहन और खान-पान तलक के पहलूओं पर बाज़ार की पैनी नज़र है। पिछले दो दशकों में बच्चों के प्रति उदार और दूरदर्शिता से भरे नज़रिए में आशातीत वृद्धि हुई है।बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ बालसाहित्य पर भी विहंगम चर्चा, बहस और विमर्श तेजी से बढ़े हैं। आज बच्चों में पढ़ने के प्रति रुचि जगाने वाली कई पत्रिकाएँ बाज़ार में हैं। ये और बात है कि बच्चे क्या पढ़ना चाहते हैं? बच्चों को पढ़ने के लिए कैसी सामग्री दी जानी चाहिए? बच्चों को कैसी सामग्री नहीं देनी चाहिए? क्या बाल पत्रिकाएँ बच्चों को स्वस्थ साहित्य उपलब्ध करा पा रही हैं? क्या बच्चों की पत्रिकाएँ बच्चों के लिए हैं? बालसाहित्य से बच्चों में वैज्ञानिक जागरुकता को कैसे बढ़ाया जा सकता है? इस तरह के कई सवाल हैं, जिन पर समय-समय पर बालसाहित्यकार चर्चा कर रहे हैं।

इन दिनों एक बेहद महत्वपूर्ण सवाल विमर्श का विषय बना हुआ है। बालसाहित्य में कितना यथार्थ हो और वह कितना कल्पना से भरा हुआ हो? इसमें कोई दो राय हो नहीं सकती कि अब तक जितना भी बालसाहित्य लिखा गया है, उसमें बहुत सारी रचना सामग्री बाल मनोविज्ञान, बाल स्वभाव और बाल रुचियों की दृष्टि से असरदार नहीं है।नीरस और निष्प्रभावी रचना के कई कारण हो सकते हैं। एक बड़ा कारण तो यह है कि बाल साहित्यकारों में अमूमन अधिकतरों ने बच्चे को कच्चा घड़ा, मिट्टी का लोंदा और कोरी स्लेट मान लिया। यह धारणा भी एक कारण है कि बच्चों को कुछ भी परोस दो, वह उसे ग्रहण कर ही लेगा। यह भी कारण संभव है कि रचना का निर्माण करते समय बच्चे की अवस्था का ध्यान ही न रहा हो। यह भी संभव है कि किसी रचना की प्रक्रिया के समय बच्चे की समझ, रुचि और मनःस्थिति का ध्यान न रहा हो। यह भी संभव है कि बालसाहित्यकार ने अपने बचपन को ध्यान में रखते हुए रचना लिखी हो, जबकि जब वह रचना अस्तित्व में आई तब उसके बचपन को बीते चालीस साल और गुजर गए हों। क्या चालीस सालों में बच्चों का बचपन वैसा ही रहा होगा? तब क्या ऐसी रचना सामग्री चालीस साल बाद के बचपन में जी रहे बच्चे का भाएगी?

सामान्यतः दुनिया में बच्चों की आयु वर्ग का कोई सार्वभौमिक खाका नहीं है। कहीं तो बालिग होने तक के सभी बच्चों को बच्चा ही माना जाता है। कहीं किशोर उम्र चैदह से सोलह है तो कहीं तेरह से पन्द्रह मानी जाती है तो कहीं कुछ और मानी जाती है। आपराधिक कृत्यों में भी बच्चे की उम्र सीमा में मत-मतान्तर हैं।

शैक्षिक लिहाज़ से देखें तो कक्षा पाँच तक के बच्चों के लिए अलग स्कूल हैं। कक्षा छह से आठ में पढ़ने वाले बच्चों के लिए अलग स्कूल हैं। नौ और दस में पढ़ने वाले बच्चों के लिए अलग स्कूल हैं। यानि इन आयु वर्ग के बच्चों की हर तरह की जरूरते अलग-अलग हैं।

बहरहाल आम तौर पर हम अपने आस-पास यह सुनते आए हैं कि कि बच्चा हर साल अपने रंग बदलता है। जब तक बच्चा चलना-फिरना नहीं सीख लेता, उसकी एक सीमित दुनिया होती है। लेकिन उस सीमित दुनिया में भी उसका अपना अनुभव मायने रखता है। वह खुद देखकर-टटोलकर अपनी समझ बढ़ाता रहता है।जब हम उन बच्चों की दैनिक क्रियाएँ देखते हैं, जो चलने-फिरने लगता है तो उसकी गतिविधियाँ तेजी से बढ़ने लगती हैं। वह अब संकेतों से आगे अपनी भावनाओं को सार्थक-निरर्थक ध्वनियों के सहारे आकार देने लगता है। वह हर अनोखी और नई चीज़ को अपने हाथ में लेने को आतुर रहता है।जब हम उन बच्चों की दैनिक क्रियाओं को देखते हैं, जो तीन साल से अधिक के हो गए हैं, तो वह कई काल्पनिक बातों और चीज़ों को बातचीत में शामिल करने लगते हैं। यह बच्चे अब किस्सा सुनाने लग जाते हैं। कहानी सुनने में इनकी दिलचस्पी बढ़ने लगती है। यह बच्चे तेजी से बातों को ग्रहण करते हैं। अपनी अभिव्यक्ति में बड़ों का अनुसरण करते हैं।

छह साल की उम्र तक आते-आते बच्चा अपने मन की कहने लगता है। अपने मन की करने लगता है। कई बार वह बड़ों की बातों को सुन कर भी अनसुना करने लगता है। मना करने वाली बातों को-गतिविधियों को ही करता है। करना चाहता है। लेकिन खुद हुए अनुभव से ही वह किसी दृष्टिकोण को आत्मसात् करने लगता है।सात साल की उम्र तक आते-आते बच्चा कहने लगता है-‘‘क्या ऐसा होता है? नहीं नहीं। ऐसा थोड़े न होता है।’’

इन सब उदाहरणों का जिक्र यहाँ करने का मकसद मात्र इतना ही है कि उपरोक्त बच्चों की आयु के लिए एक ही रचना कैसे कारगर हो सकती है? पढ़ना सीख गए बच्चों के लिए तो और भी चुनोतियाँ हैं। अभी-अभी जो बच्चे अक्षर पहचान कर वाक्य मिलाकर पढ़ना सीखें हैं, उनके लिए लिखना तो और भी चुनौती भरा है। 

अब उपरोक्त आयु वर्ग के बच्चों को ध्यान में रखते हुए विचार करते हुए आसानी से महसूस किया जा सकता है कि सभी बच्चों के लिए एक जैसी कल्पना मुनासिब नहीं होगी। क्या कल्पना और अति कल्पना में अन्तर नहीं रखना होगा? वह भी आयु वर्ग के बच्चों के स्तर के आधार पर।ऐसे आयु वर्ग के बच्चे जो अब जीवन की असलियत को समझना शुरू करने लगते हैं। वे जान चुके होते हैं कि सूरज तो स्थिर है। सूरज न तो डूबता है और न ही उगता है। वे जान चुके होते हैं कि चन्दा मामा नहीं है। चाँद तो एक ग्रह है। आदि-आदि। अब इस तरह के जानने और मानने वाले बच्चों के लिए भी क्या अलादीन का चिराग चलेगा? नहीं चलेगा।

यहाँ एक सवाल उठ सकता है। फिर तो फिल्में और फिल्मी गीत भी यथार्थपरक होने चाहिए? जवाब कुछ भी हो। फिल्म और गीत कुछ नहीं सीखाते। यह कहना तो गलत होगा। यह कहना भी गलत होगा कि किसी भी फिल्म से हम कुछ सीखते ही नहीं। लेकिन अमूमन फिल्म और गीत हम मनोरंजन के लिए देखते-सुनते हैं। अब बालफिल्म और बाल गीतों के लिए यह कहना दूसरी बात हो जाएगी। बालसाहित्य के मामले में भी यह चिन्तन जरूरी होगा कि क्या बालसाहित्य का मकसद मात्र मनोरंजन करना रह गया है?

आज तो बच्चों के पास मनोरंजन के कई साधन हैं। तब भला बालसाहित्य का मकसद विहंगम नहीं होना चाहिए?आज आवश्यकता इस बात की है कि हम कोशिश करें कि बालसाहित्य ऐसा रचें, जो बच्चों के भावी जीवन में मददगार हो। कल्पनाओं की उड़ान हो तो ऐसी हो, कि बच्चे के मन-मस्तिष्क में उसका सकारात्मक असर पड़े। वह शक्तिमान की तरह छत से छलांग न लगाने की कोशिश करें। वह जान ले कि शक्तिमान जो दूसरों की मदद करने के लिए पलक झपकते ही पहुँच जाता है, उन्हें भी अपनी क्षमतानुसार मदद का भाव अपने ह्दय में संजोना है। कल्पना और अनुमान की उड़ान से बच्चों में वैज्ञानिक जागरुकता जगे तो कोई बात बने।

ऐसा साहित्य किसी काम का नहीं जो बच्चों में सामाजिक समरसता की बजाए आपस में ईष्याभाव से उपजी प्रतियोगिता कराने लगे। आखिरकार बचपन से किशोर और फिर युवा होने की यात्रा में भी तो वह यथार्थ का सामना करता है। फिर हमारा बालसाहित्य उस यथार्थ का सामना करने के लिए क्यों न बच्चों को साहित्य के सहारे तैयार करे? बस इस बात का ध्यान रखते हुए कि बचपन कहीं खो न जाए। सुनहरा बचपन फिर कभी लौटता नहीं। सतरंगी सपनों की अनन्त यात्रा और अति काल्पनिक उड़ानों का आनन्द बचपन में ही लिया जा सकता है। इसे जीवंत बनाए रखना और बचाए रखना बालसाहित्यकारों की ही जिम्मेदारी है। बशर्ते वह बालसाहित्य का सृजन नई पौध की आवश्यकताओं और रुचियों के अनुरूप कर सकें।
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-मनोहर ‘मनु’ 

15 फ़र॰ 2014

हर जीव जरूरी .. Champak. Feb 1st 2014

हर जीव जरूरी

-मनोहर चमोली ‘मनु’

जंबो हाथी ने चिंघाड़ते हुए कहा-‘‘आज फैसला होकर ही रहेगा। शेर सिंह ने आज फिर हिरनों के झुण्ड पर हमला बोल दिया। हमें अपना राजा बदलना ही होगा।’’

रंभा गाय बोली-‘‘चंपकवन में जीना मुहाल हो गया है। हम अपने बच्चों की सुरक्षा क्या खाक करेंगे, जब हम सुरक्षित नहीं हैं। आज फैसला हो ही जाए। चंपकवन में या तो हम रहेंगे या फिर शेर सिंह।’’

‘‘हांहा। जंबो दादा तुम संघर्ष करो। हम तुम्हारे साथ हैं।’’ जंपी बंदर ने भी सुर में सुर मिलाया। केची कछुआ और मिटू तोता भी नारे लगाने लगे। 

मीकू चूहा बोला-‘‘अरे! हुआ क्या है? ये तो पता चले।’’

जंबो हाथी बोला-‘‘इस चंपकवन में और हो भी क्या सकता है। मैंने खुद देखा। आज शेर सिंह ने छिप कर हिरनों के झुण्ड में वार किया। मेरे सामने ही उसने एक कमजोर हिरन को दबोच लिया।’’ 
चीकू खरगोश ने कहा-‘‘जंबो दादा। उस घने जंगल में तुम क्या कर रहे थे?’’

जंबो हाथी ने बताया-‘‘मैं अपने मकान के लिए इमारती लकड़ी लेने गया हुआ था।’’
 मीकू चूहा हंसते हुए जंबो हाथी से बोला-‘‘ओह! तो आप नया मकान बना रहे हो। इसका मतलब यह हुआ कि उसमें बिजली की व्यवस्था भी करोगे।’’

जंबो हाथी ने कहा-‘‘क्यों नही। मेरा मकान अत्याधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण होगा। ए.सी.,टी.वी. और फ्रिज तो मैं खरीद भी चुका हूं।’’

यह सुनकर चीकू खरगोश जोर से हंस पड़ा। जंबो हाथी को गुस्सा आ गया। वह चीकू खरगोश से बोला-‘‘इसमें हंसने वाली कौन सी बात हो। हम सब वैसे ही शेर सिंह से परेशान हैं। तुम बेकार में हमे और परेशान मत करो।’’

चीकू खरगोश ने मुस्कराते हुए कहा-‘‘जंबो दादा। यदि शेर सिंह चंपकवन में नहीं रहेगा तो चंपकवन में बिजली भी नहीं आ सकेगी।’’
 जंबो हाथी चौक पड़ा। मिटू तोता सहित अन्य जानवर भी चीकू खरगोश का मुंह ताकने लगे।

मीकू चूहा बोला-‘‘चीकू सही कह रहा है। पहले तुम यह तय कर लो कि शेर सिंह को चंपकवन में रहने दोगे या बिजली भगाओगे?’’ 

जंबो हाथी को गुस्सा आ गया। वह चिंघाड़ते हुए बोला-‘‘चीकू और मीकू। तुम क्या शेर सिंह के ऐजेंट हो? क्या तुम्हें शेर सिंह से खतरा नहीं है? शेर सिंह ने हमारा जीना हराम कर दिया है। हम उसे मार कर ही दम लेंगे।’’

रंभा गाय बोली-‘‘ये चीकू और मीकू कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हैं।’’

चीकू खरगोश बोला-‘‘बहक तो तुम रहे हो। जोश के साथ होश संभाल कर कदम उठाओ। ये चंपकवन हैं। यहां जंगल का नियम चलता है। हर ताकतवर कमजोर को अपना निवाला बनाता है। जंगल के अपने नियम होते हैं। मांसाहारी जीव शाकाहारी को खाते ही हैं। शाकाहारी जीव भी तो घासपात खाते हैं। क्या कभी सोचा है कि हम सब एकदूसरे के पूरक हैं। भले ही कोई किसी को अपना शत्रु मानें लेकिन जिंदा रहने के लिए शत्रु भी जरूरी है। जिंदा रहने के लिए हम एक दूसरे पर ही निर्भर हैं।’’ यह सुनकर जंबो हाथी का गुस्सा शांत हो गया। 

मीकू चूहा बोला-‘‘जंबो दादा। आपने जो मकान बनाया है। उसमें पेड़ों से ही इमारती लकड़ी हासिल की है। याद रखो। कितने नन्हे पौघों को तुम अपने पैरों से कुचल देते हो। पैड़ों की टहनियां तोड़ते हो। हजारों पत्तियां तुम दिन भर में निगल जाते हो। सोचो। यदि सारे जीव शाकाहारी होते तो? भोजन की कमी हो जाती। हमारे कई सारे जीव लुप्त हो रहे हैं। क्यों? कभी सोचा है?’’

रंभा गाय ने कहा-‘‘हम्म। ये बात तो है। हर जीव किसी न किसी का भोजन तो है ही। हम भी घासपात और चारापत्ती पर निर्भर हैं। यदि घासपात ही न हो तो हम कैसे जिंदा रहेंगे?’’

चीकू खरगोश बोला-‘‘बिल्कुल सही कहा रंभा ने। यदि हम जिंदा नहीं रहेंगे तो मांसाहारी जीव भी जिंदा नहीं रहेंगे। दोस्तों। चंपकवन में हर जीव जरूरी है। चाहे वो कोई भी हो।’’

जंबो हाथी ने शांत भाव से कहा-‘‘ये तो हमने सोचा ही नहीं। लेकिन शेर सिंह का बिजली से क्या संबंध है? ये भी तो बताओ।’’

मीकू चूहा उछलता हुआ बोला-‘‘मैं बताता हूं। दोस्तों। यदि शेर सिंह नहीं रहेगा और दूसरे मांसाहारी जीव नहीं रहेंगे तो शाकाहारी जीवों की आबादी बढ़ती चली जाएगी। इतनी बढ़ जाएगी कि चारापत्ती की कमी हो जाएगी। फिर घासपात के बदले पेड़ों की पत्तियां भी नहीं बचेगी। टहनियांे के साथसाथ वृक्ष भी नहीं बचेंगे। वृक्ष नहीं बचेंगे तो चंपकवन ही नहीं धरती से सारे जंगल और वनसंपदा नष्ट हो जाएगी।’’

चीकू खरगोश ने बीच में बोलते हुए कहा-‘‘जब जंगल ही नहीं होंगे तो बारिश कहां से होगी। जब बारिश ही नहीं होगी तो पर्वतों में बर्फ ही नहीं बचेगी। नदीतालाब ही नहीं बचेंगे। नदीतालाब ही नहीं बचेंगे तो बांध कहां से बचेंगे। जब बांध ही नहीं बचेंगे तो बिजली कहां से बनेगी।’’

जंबो हाथी ने हंसते हुए कहा-‘‘जब बिजली ही नहीं बनेगी तो चंपकवन में बिजली कहां से आएगी। फिर मेरे टी.वी.,कूलर, फ्रिज का क्या होगा।’’ 
यह सुनकर सब हंस पड़े।
 तभी शेर सिंह की दहाड़ सुनाई दी। सब पलक झपकते ही नौ दो ग्यारह हो गए।

12 फ़र॰ 2014

भात की खुशबू आज भी याद है..CHAKMAK Feb 2014


भात की खुशबू आज भी याद है


-मनोहर चमोली ‘मनु’

   
    बात उन दिनों की है, जब मैं बुनियादी स्कूल में पढ़ता था।  ये वो दिन थे, जब खाकी रंग की खद्दर की पैण्ट और नीली कमीज स्कूल में चला करती थी। प्लास्टिक के जूते चलते थे। उस समय प्लास्टिक के जूते यदि ‘बाटा’ कम्पनी के हैं, तो अच्छा-खासा रौब गालिब होता था।

    ताजवीर मेरा दोस्त था। ताजवीर मुझसे लंबा था। पढ़ने-लिखने में वह होशियार था। फिर भी ताजवीर न जाने क्यों मेरी नकल करता। मैं जैसा करता, वो भी वैसा ही करता। मैं घर में पढ़ने लगता, तो वह भी पढ़ने बैठ जाता। मैं घूमने निकलता, तो वो भी पीछे-पीछे आ जाता। 


    ये ओर बात थी कि ताजवीर मेरी खूब मदद करता था। हम दोनों एक-दूसरे से अपनी बातें साझा करना नहीं भूलते थे। हम एक-डेढ़ घण्टा पैदल चलकर स्कूल पहुँचते थे। दूर-दूर तक मोटर मार्ग नहीं था। गाँव से कोई शहर जाता, तो बूढ़े-बच्चे और जवान मुँह अँधेरे उसे विदा करने जाते। गाँव में बनी चीजों की छोटी-छोटी पोटलियाँ बनाई जाती थी। पोटलियों के दो-तीन नग बनाये जाते थे। इन नगों को सिर पर उठाकर मोटर मार्ग तक छोड़ने जाने का काम हम बच्चों का ही होता था। 

    उन दिनों शहर जाने वाले का सामान छोड़ना, गर्व की बात समझी जाती थी। बदले में पचास पैसा और कागज का एक रुपए का नोट बख्शीश मिला करती थी। शहर से गाँव आने वाली बस सेवा शाम को पहुँचती थी। यही बस सुबह शहर लौट जाया करती थी। 

    हम बच्चों को बस देखने का मौका कभी-कभी ही मिलता था। स्कूल में आकर हम बताते थे कि इस बार की बस का नम्बर फलाँ-फलाँ था। टेलीफोन के बारे में हमने सुना भर था। हम रेडियो ही सुना करते थे। टी0वी0, सिनेमा और रेल के बारे में हमंे कुछ खास जानकारी नहीं थी। कभी-कभी आसमान में उड़ते सैन्य जहाज हमारी चर्चा का हिस्सा बन जाते। 

    हमारी स्कूली किताब हमारे लिए ज्ञान और सूचना का भण्डार थी। बुजुर्गों की बातें हमारे लिए अनमोल धरोहरें थीं। इन सबसे आगे था, रेडियो। रेडियो भी हर घर में नहीं था। हम बच्चों का सीमित संसार था। किसी को कोई जल्दीबाजी नहीं थी। कोई हड़बड़ाहट नहीं थी। न ही कोई दबाव था। हम कभी किसी प्रकार के तनाव से दो-चार नहीं हुआ करते थे। कुल मिलाकर हम अपने संसार में बहुत खुश थे। अलबत्ता जो शहर से लौटते हमारी उत्सुकता उनके सामान को टटोलन-देखने की जरूर हुआ करती थी। 

    मेरे गुरुजी हमारे ही गाँव के थे। छोटा हो या बड़ा। गाँव का हर आदमी उन्हें ‘गुरजी’ ही कहता था। गुरजी के सिर के बाल झक सफेद हो चुके थे। वह आँखों में मोटा चश्मा पहनते थे। खादी का कुर्ता और चैड़ी मोरी वाला लंबा खद्दर का पायजामा। यही उनका पहनावा था। उनके कांधे में हमेशा झोला टंगा रहता था। दांये हाथ पर लंबी छड़ वाला काला छाता उनकी पहचान था। वे कभी-कभी उसे गरदन के पीछे कुर्ते में खोंस कर चलते थे। 

    मुझे याद नहीं पड़ता कि वे कभी शहर गए हों। हाँ। विभाग के काम से वे जरूर बैठकों में जाते रहे होंगे। वे हल लगाते थे। क्यारी बनाते थे। जंगल जाकर लकड़ी काटते थे। जड़ी-बूटियों का उन्हें अच्छा ज्ञान था। गाँव की दुख-तकलीफांे में खड़े होते थे। शादी-ब्याह में सबसे पहले और सबसे आगे खड़े रहते थे। मजेदार बात यह थी कि विशालकाय लोहे की काली कडाहियों में शादी के बाराती-घराती के लिए भात भी वे ही पकाते थे। दूर-दूर तक वे अकेले पढ़े-लिखे और संवेदनशील इंसान माने जाते थे। उनके सैकड़ों विद्यार्थी रहे होंगे, जिन्हें अक्षर ज्ञान देने वाले वे पहले अध्यापक थे।  

    बदलाव प्रकृति का नियम है। यह जरूरी भी है। आज जो पूरा लगता है, कल अधूरा लगेगा। तभी तो नित नये अनुसंधान होते रहेंगे। तभी तो हम यह कहेंगे कि हमारे जमाने में ऐसा कहाँ होता था। तभी तो नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से किस्सा-कहानी सुनेगी। अन्यथा सब कुछ ठहर जाएगा। कहने-सुनने को कुछ नहीं रहेगा। यही हमारे साथ हुआ। गुरजी कब हमारे लिए अतीत की बात हो गए,पता ही नहीं चला।   

    दरअसल गुरजी रिटायर होने वाले थे। वे अक्सर हमसे कहते-‘‘अरे। तुम्हारे बाप-दादाओं को भी मैंने पढ़ाया है। अब बहुत हो गया। अब तुम्हें शहर से पढ़ाने कोई नए ‘मास्साब’ आएंगे। तुम्हें तब पता चलेगा कि मास्टर कैसे होते हैं। पढ़ाई कैसी होती है।’’ हमें लगता कि गुरजी यूँ ही मजाक कर रहे हैं। ‘रिटायर’ शब्द हमारे सीमित संसार के शब्दकोश में जो नहीं था। लेकिन वही हुआ। जो गुरजी ने कहा था। 

    एक दिन अचानक मैंने सुना कि नये मास्टर जी गाँव में पहुँच चुके हैं। राम रतन सिंह राव। इतना लंबा नाम भी किसी का हो सकता है! मैं चैंक पड़ा था। नये मास्साब गुरजी के यहाँ ठहरे हैं। यह सुनते ही मैं दौड़कर गुरजी के घर जा पहुँचा। ताजवीर मुझसे पहले वहाँ खड़ा मुस्करा रहा था। वह नये मास्साब को पानी पिला रहा था। मुझे ताजवीर का मुझसे पहले वहाँ पहुँचना अच्छा नहीं लगा। मैंने मन ही मन में ठान लिया था कि मैं नये मास्साब की नज़रों में अच्छा विद्यार्थी बन कर दिखाऊँगा।

    यह शाम का समय था। खलिहान में गाँधी आश्रम की नई दरी बिछाई गई थी। नये मास्साब को हम बच्चों ने आसानी से पहचान लिया था। एक तो वे टेरीकाॅट की पैण्ट-कमीज पहने हुए थे। गाँव में शायद ही कोई ऐसे कपड़े पहनता था। उनके पैरों में भूरे रंग के जूते चमचमा रहे थे। यह जूते चमड़े के थे। ऐसे जूते मैंने पहली बार देखे थे। मास्साब का रंग गोरा था। सिर के बाल काले और घुंघराले थे। बगल में दो बड़े नए सूटकेस शान से खड़े थे। वे कुर्सी पर बैठे हुए थे। हमारे गुरजी जमीन पर पालथी मार कर बैठे हुए थे। हमने पहली बार ऐसा आदमी देखा था। जिसके चेहरे पर न दाढ़ी थी, न ही मूंछ।

    राम रतन सिंह राव मुझे पहले ही नज़र में भा गए थे। स्कूल में उनका आज पहला दिन था। पहले ही दिन उन्होंने हम सभी से हमारा नाम पूछा। घर-परिवार के बारे में पूछा। कितने भाई हैं? कितनी बहिन हैं? पिताजी क्या करते हैं? घर में कौन-कौन हैं? पहला दिन हम बच्चे अपने ही बारे में बताते रहे। छुट्टी का घंटा जब बजा, तब पता चला कि सारा दिन बीत गया है। मास्साब की बाँयी कलाई पर सोने की घड़ी है। ताजवीर बता रहा था। तब मुझे सोना-चाँदी के बारे में कुछ खास पता भी नहीं था। ताजवीर मास्साब के बारे में बहुत सारी बातें बता रहा था। मसलन उनके पास क्या-क्या है। वे ढेर सारी रंग-बिरंगी किताबें लेकर आए हैं। उनके पास अखबार भी है।

    अखबार! यह शब्द मेरे लिए नया था। मैं सोच रहा था-‘‘ये ताजवीर तो मेरे से आगे निकल रहा है।’’ मैंने चाहकर भी ताजवीर से अखबार के बारे में नहीं पूछा। घर लौटा। खाना खाया। फिर मैं सीधे मास्साब के घर की ओर चल पड़ा। मास्साब को गाँव के सबसे ऊपर वाला एक खाली मकान रहने के लिए दिया गया था। 

    राम रतन सिंह राव मेरे लिए ही नहीं, हम सबके लिए दिलचस्प इंसान हो गए थे। वे आए दिन शहरों के किस्से सुनाते। देश-दुनिया के बारे में बताया। चाँद-तारों के बारे में बताया। उन्होंने हम बच्चों को अखबार के बारे में बताया। बच्चों की पत्रिकाओं के बारे में बताया। सिनेमा के बारे में बताया। रेल के बारे में बताया। वे ही थे, जिन्होंने हमें कैमरा दिखाया। दूरबीन दिखाई। उन्होंने ही बताया था कि सूरज एक जगह खड़ा है। हिलता भी नहीं। हमारी उत्सुकता बढ़ाने के लिए वे नित नई चीजें स्कूल में लाते। हम अपने हाथों में पकड़कर उन नायाब चीज़ों को छूते थे। सहलाते थे।

     गाँव में ढिबरी और काँच की शीशी पर केरोसीन वाले लैम्प जलते थे। वे ही तो थे, जो सबसे पहले लालटेन और गैस लाईटर लेकर गाँव में लाए थे। उन्होंने ही एल.पी.जी. गैस के बारे में बताया था। उनकी बातें किसी किस्सा-कहानी की तरह लगती थीं।

    गाँव में पहला ब्लैक एण्ड वाइट टी0वी0 मास्साब ही लाए थे। उस दिन तो गाँव में भीड़ जुट गई थी। कभी-कभी तो लगता था कि मास्साब का मकान ही समूचा गाँव है। कोई किसी की ढूँढ-खोज कर रहा होता तो सब एक ही सवाल पूछते-‘‘अरे! मास्साब के यहाँ तो नहीं है?’’

    मास्साब ने ही हमें बताया था कि शहर में आदमी आदमी को खींचता है। हाथ रिक्शा और साईकिल रिक्शा के बारे में उन्होंने ही हमें पहली दफा जानकारी दी थी। वे हर चीज़ का चित्र श्याम पट्ट पर बनाते। उनके बनाये चित्र बहुत ज्यादा जीवंत तो नहीं होते थे। लेकिन चित्र को देखकर हम उस अनदेखी वस्तु की छवि मन में बना लिया करते थे। 

    मास्साब की बातों में जादू हुआ करता था। पढ़ाते-पढ़ाते वे किस्सा-कहानी सुनाने लग जाते। मुझे याद है कि वो अक्सर कहते थे कि एक दिन वो भी आएगा, जब मशीन से नोट निकला करेंगे। जब दूर बैठे हुए आदमी से हम साक्षात् बात कर रहे होंगे। वो दिन भी आएगा, जब चाँद में शहर बनेंगे। आज सूचना और तकनीक ने हमें ए.टी.एम. उपलब्ध कराया है। आज इंटरनेट के माध्यम से हम समूची दुनिया से जुड़ गए हैं। वे दूरदर्शी भी थे। कई लोग उनसे सलाह-मशविरा भी लेने आते थे।

    चलिए। फिर वहीं लौटते हैं, जब मैं सीधे मास्साब के घर की ओर चल पड़ा था। मैं दबे पाँव मकान के मुख्य द्वार पर खड़ा था। 

    ‘‘कौन?’’ मास्साब ने भीतर से ही पूछा। मैं भाग जाने को हुआ।
    ‘‘अरे ! मनोहर तुम? चले आओ। भागते क्यों हो?’’ मास्साब जैसे सब समझ गए थे।

    मास्साब की रसोई में भात पक रहा था। लेकिन भात की खुशबू मुझे मदहोश कर रही थी। हम गाँव वाले तो मोटा अनाज खाते थे। मँडुवा, झंगोरा, सोयाबीन, तोर और मकई। हम उन्हीं सब्जियो, दाल और अनाज के बारे में जानते थे, जो हमारे खेत-खलिहान में उगाया जाता था। कभी तीज-त्योहार में ही चावल बनता था। वह भी सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान का मोटा चावल। वह भी हमारे लिए किसी बड़ी दावत से कम न था। गुड़ और गुड़ से बनी चीजों का स्वाद भी मास्साब ने हमारी जीभ को चखाया था।    

    मैं मास्साब के पास जो नई चीज़ें थीं, उन्हें देखने आया था। मुझे लगा था कि वे बड़े चाव से मुझे एक-एक चीज़ के बारे में बताएंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मास्साब प्याज और मूली काट रहे थे। सलाद बना रहे थे। मैं तो चूल्हे की आग पर पक रहे भात की खुशबू को जोर-जोर से साँस लेकर अपने भीतर सहेज रहा था। मैं लम्बी साँस लेते हुए आँखें बंद कर रहा था। मास्टर जी ने देख लिया। वे हँसते हुए बोले-‘‘खाना खाया कि नहीं?’’ 

    मैंने ‘न’ में सर हिलाया। मास्साब ने दो स्टील की चमचमाती थालियाँ पानी से धोई। साफ कपड़े से पोंछते हुए दरी के ऊपर रख दी। भात पक चुका था। गाँव में सभी के पास एल्युमिनियम और काँसे की थालियाँ होती थीं। मैंने एक थाली हाथों में उठा ली। थाली में अपना चेहरा साफ जो दिखाई दे रहा था। मास्साब ने बताया कि यह स्टील है। एक धातु है। अब मास्साब एक-एक कर अपनी चीज़ों के बारे में बताने लगे। लेकिन मेरा ध्यान तो अब भात पर ही था। फिर मास्साब ने दोनों थालियों में दाल-भात परोसा। 

    वाह! अहा ! जितने भी खुशी और आश्चर्य के विस्मयादिबोधक चिह्न होते हैं, वे मेरे मन में उछल रहे थे। भात की खुशबू के सामने दाल कौन सी बनी थी, यह जानने की मैंने कोशिश नहीं की थी। घर से भरपेट खाना खाकर ही मैं मास्साब के घर की ओर चला था। उसके बावजूद मैंने छककर दाल-भात खाया। 

    मैंने मास्साब से पहले ही अपनी थाली चाट दी थी। दोबारा परोसने का कोई विकल्प नहीं था। यह मैं पहले ही देख चुका था। मैं उठा और मास्साब के लिए धारे से एक बाल्टी पानी भरकर लाया। दोनों पतीले और दोनों थालियाँ मैंने मांजी। मास्साब मंद-मंद मुस्करा रहे थे। मज़ेदार बात यह थी कि बरतन मांजने का सही तरीका भी उन्होंने मुझे बताया था। मास्साब मुझे किसी दूसरी दुनिया के प्राणी लगे थे। मैं और मेरे जैसे बच्चे तब कहाँ जानते थे कि गाँव से बाहर की दुनिया में शहरों के शहर भी बसा करते हैं। 

    मैं उछल-उछल कर अपने घर लौटा था। मैंने अपने पेट पर कई बार हाथ फेरा था। गोल लोटे का आकार पेट पर उभर आया था। ताजवीर को मैंने सारा किस्सा सुनाया। ताजवीर ने कहा-‘‘कल से मैं भी आऊंगा। मास्साब के खाना खा लेने के बाद जो भात बचेगा, एक दिन तू खाएगा और एक दिन मैं खाऊंगा।’’ 

    मुझे उसका सुझाव मानना पड़ा। हम दोनों स्कूल की छुट्टी के बाद तेज कदमों से घर लौटते। खाना खाते और मास्साब के घर की ओर चल पड़ते। एक दिन धारे से पानी मैं लाता और ताजवीर बरतन धोता। दूसरे दिन मैं बरतन मांजता और धारे से पानी ताजवीर लाता। एक दिन बचा-खुचा भात ताजवीर खाता। दूसरे दिन भात खाने की बारी मेरी होती। हम दोनों एक-एक दिन का इंतजार बड़ी बेसब्री से करते थे। पकाने वाले बरतन में बचे भात से हम यह अंदाजा लगा लेते थे कि आज मास्साब ने भूख से कम भोजन किया है या औसत या फिर औसत से अधिक।

    पहले-पहल तो कभी ताजवीर के हाथ, तो कभी मेरे हाथ मुट्ठी भर भात ही हाथ लगता था। लेकिन धीरे-धीरे मास्साब शायद जानबूझकर चावल ज्यादा भिगो देते थे। शायद वे यह नहीं जान पाए कि हम दोनों में भात खाने की बारी का कोई गुप्त समझौता हुआ है।  
 
    आज ताजवीर विदेश में है। वो किसी बड़े होटल का सबसे बड़ा रसोईया बन चुका है। उसने तो न जाने दुनिया के किन-किन खेतों के चावल से बना भात खा लिया होगा। वहीं आज मैं अध्यापक हूँ। मैं भी तमाम किस्म के चावलों से बना भात खा चुका हूँ। लेकिन मास्साब की रसोई में बने भात की खुशबू जैसे आज भी दिल-दिमाग में ताज़ा है।

7 फ़र॰ 2014

बादल क्यों बरसता है? Room to Read, Year-2013

बादल क्यों बरसता है?


पहले धरती और बादल पास पास रहते थे। इतने पास कि एक-दूसरे को छू लेते। तब धरती बहुत हल्की थी। इतनी हल्की कि हवा में उड़ जाती।


एक दिन धरती ने कहा- ‘‘थक गई हूं। कहीं दूर घूमने जाना चाहती हूं।’’

बादल ने कहा ‘‘तो जा न। किसने रोका है। लेकिन लौट आना। मैं तुझे याद करुंगा।’’

धरती हंसते हुए कहने लगी-‘‘ये बात है। लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा?’’

बादल सोचने लगा। फिर बोला-‘‘मैं बरसने लगूंगा। बारिश करुंगा। समझ लेना कि मैं याद कर रहा हूं। लेकिन याद रखना। बस लौट आना। नहीं तो मैं नाराज हो जाऊंगा।’’

धरती शरमा गई। धरती सकुचाई। धरती ने नजरें झुका लीं। फिर पूछने लगी-‘‘लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा?’’
बादल फिर सोचने लगा। कहने लगा-‘‘मैं ओले गिराऊंगा। तूझे ओलों से ढक दूंगा। समझ लेना कि मैं नाराज हो रहा हूं।’’

धरती घूमने चली गई। धरती नीचे और नीचे की ओर टपक पड़ी।

कई दिन बीत गए। बादल धरती को याद करने लगा। याद में बरसने लगा। इतना बरसा कि बस बरसता रहा।

धरती हरी-भरी हो गई। धरती पर पेड़ उग आए। पहाड़ बन गए। नदिया बन गईं। समुद्र बन गया। खेतियां लहलहाने लगीं। पशु-पक्षियों ने धरती को बसेरा बना लिया। धरती भारी हो गई। अपनी धुरी पर घूमने लगी।
तभी से धरती घूम रही है। आज भी बादल धरती को याद करता है। खूब बरसता है। जब नाराज होता है तो ओले बरसाता है। 

4 जन॰ 2014

बाल कहानियों का संग्रह ‘अंतरिक्ष से आगे बचपन’

मित्रों! वैसे तो अपने बारे में बात करना अजीब-सा लगता है। लेकिन जब मन प्रसन्न हो तो उस भाव को व्यक्त कर लेना चाहिए। यही सोच कर अपने मन की प्रसन्नता बाँट रहा हूँ। 

मेरा बाल कहानियों का पहला संग्रह ‘अंतरिक्ष से आगे बचपन’ प्रकाशित हो गया है। इस संग्रह में पच्चीस बाल कहानियाँ हैं। 

पुस्तक में शामिल कहानियों के पहले पाठक प्रख्यात बाल साहित्यकार श्री रमेश तैलंग जी हैं। 

पुस्तक का मूल्य 125 रुपए है। 

आप इसे मंगा सकते हैं-  
प्रकाशक : कीर्ति नवानी, विनसर पब्लिशिंग कम्पनी, 8,प्रथम तल,के॰सी॰ सिटी सेंटर, नजदीक नया तहसील भवन, 4 डिसपेन्सरी रोड,देहरादून-248001. उत्तराखण्ड (भारत) 

वेबसाइटः www.winsar.org - 

E-mail : winsar.nawani@gmail.com 

पुस्तक का ISBN है-978-81-86844-40-3

31 दिस॰ 2013

नंदन जनवरी 2014 बाल कहानी

एकजुटता में है ताकत

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    चंकी चूहे का रो-रोकर बुरा हाल था। अब क्या करे? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। चंकी के बैल हष्ट-पुष्ट थे। मेहनती थे। राजा शेर की सवारी चंकी के खेतों के सामने से गुजरी थी। चंकी अपने बैलों से खेतों को जोत रहा था। राजा को चंकी के बैल पसंद आ गए थे। राजा ने चंकी  के बैल जबरन हांक लिए। उसने अपने दरबारियों को आदेश दिया कि वे बैलों को सीधे महल ले चलें। बेचारा चंकी विरोध भी नहीं कर पाया। दरबारियों में लोमड़, भेड़िया और लकड़बग्घा थे। वे बैलों को मार-मारकर महल की ओर ले गए।
    चंकी बहुत मेहनती था। जल्दी उठता। हल उठाता। अपने बैलों को हांकता और खेतों की ओर चल पड़ता। खेत जोतता। बीज बोता। निराई-गुड़ाई करता। फसल को समय पर पानी से सींचता। फसलें लहलहातीं।
    चंकी समय-समय पर फसल की देख-रेख करता। जब फसल पक जाती, उसे काटता। भंडार भर लेता। छोटा-बड़ा पक्षी हो या जानवर। कीट हो या पतंगा। सब चंकी की मेहनत का सम्मान करते। कोई भी मुसीबत में होता, तो चंकी सबसे  पहले मदद को तैयार रहता। सब एक ही बात कहते-‘‘चंकी हम सबकी शान है।’’
    मगर आज तो हद ही हो गई थी। राजा चंकी के बैल छीन कर ले गया है, यह ख़बर आग की तरह फैल गई। सबने चंकी को घेर लिया। चंकी ने सारा किस्सा सुनाया।
    चींटी बोली-‘‘हम राजा को सबक सिखाएंगे।’’ चींटी ने सीटी बजाई। पलक झपकते ही सैकड़ों चींटियां इकट्ठी हो गई।
    केकड़ा बोला-‘‘राजा है, तो क्या हुआ? ऐसे तो कोई भी किसी को लूट लेगा।’’ केकड़े ने ताली बजाई। क्षण भर में ही वहां सैकड़ों केकड़े जमा हो गए।     हजारों मकड़ियां आ गईं। बिच्छुओं की फौज से खेत भर गया। कांव-कांव करते कौओं का जमघट लग गया। बाज, चील, उल्लू और चमगादड़ों का तांता लग गया। सबने मिलकर विशालकाय रथ बनाया। फिर रथ राजा के महल की ओर चल पड़ा।
    रथ के पीछे पशु-पक्षियों की फौज चल पड़ी। फौज ने कोहराम मचा दिया। चूहों के दल ने राजा के अन्न भंडार पर हमला बोल दिया। महल में भगदड़ मच गई। राजा का सलाहकार सियार हांफते हुए आया। उसने शेर से कहा-‘‘महराज। गजब हो गया! चंकी चूहे ने महल पर हमला बोल दिया है। हमारी फौज उसकी फौज का सामना करने के लिए तैयार ही नहीं है। अगर चंकी को उसके बैल वापिस नहीं दिए गए तो हम युद्ध हार जाएंगे। महल तबाह हो जाएगा। चंकी के बैल छोड़ने में एक पल की भी देरी ठीक नहीं है। महाराज। देर मत कीजिए।’’
    राजा डर गया। उसने चंकी के बैलों को छोड़ दिया। युद्ध शुरू होने से पहले ही समाप्त हो गया। चंकी को उसके बैल मिल गए। सब नाचते-गाते वापस लौट आए। चंकी अपने बैलों को चूम रहा था।000

28 दिस॰ 2013

लौट आई किताबें...बाल कहानी

लौट आईं किताबें

----------Manohar Chamoli 'manu'
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अभिध स्कूल से घर लौटी तो दंग रह गई। सुबह आलमारियों में किताबें थीं।
‘‘किताबें कहां गईं? कल रात को तो मैंने कलर बुक में सपफेद परी देखी थी।’’ अभिध यही सोच रही थी।

अभिध की दादी ने उसे बताया था कि आलमारियों में रखी कुछ पत्रिकाएं बहुत पुरानी हैं। उसके पापा की उम्र से भी बहुत पुरानी। अभिध अक्सर दादी से आलमारियों में रखी कोई न कोई पत्रिका जरूर निकलवाती। दादी उन किताबों के पन्ने उलटती-पलटती। चित्रों को देर तक देखती। मुस्कराती और पिफर अभिध को कहानी सुनाने लग जाती।
अभिध खाली आलमारियों को देखकर रोने लगी। दादी और उसकी मम्मी ने समझाया। लेकिन अभिध थी कि रोती ही जा रही थी। उसने स्कूल बैग भी कंध्े से नहीं उतारा। उसने कुछ भी खाने से इनकार कर दिया।
अभिध की दादी ने मोबाइल पर बात की-‘‘अनिल बेटा। तुरंत घर आ जाओ। ये लड़की मेरी और कमला की तो एक भी नहीं सुन रही है। शायद तुम आकर इसे कुछ समझा सको।’’
कुछ ही देर में अभिधा के पिता घर आ पहुंचे। उन्होंने हापफते हुए पूछा-‘‘क्या हुआ? मुझे तुरंत क्यों बुलाया।’’
अभिध सुबकते हुए बोली-‘‘पापा। दादी और मम्मी ने सारी किताबें कबाड़ी को दे दी। उन किताबों में कितनी सारी कहानियां थीं। प्यारे-प्यारे रंग-बिरंगे चित्रा थे। मुझे वो सारी किताबें चाहिए। अभी के अभी।’’
यह सुनकर अभिध के पिता के जान में जान आई। लंबी सांस लेकर वे मुस्कराते हुए अभिधा से बोले-‘‘बस! इतनी सी बात! मैं तो डर ही गया था। वो पुराने जमाने की किताबें थीं। हमारी अभिध तो नये जमाने की है न। हम आपके लिए नई-नई किताबें लेकर आएंगे। ढेर सारी।’’
‘‘नहीं! मुझे वो सब किताबें भी चाहिए। मैंने अभी वो सब किताबें ठीक से देखी भी नहीं थी।’’ अभिध ने आंखें मलते हुए कहा।
अभिध की मम्मी पुचकारते हुए बोली-‘‘अभिध। जिद नहीं करते। पापा ने कह तो दिया कि वो तुम्हारे लिए अच्छी और नईं किताबें ले आयेंगे। चलो। ये बैग उतारो और कुछ खा लो।’’
‘‘नहीं। मुझे कुछ नहीं खाना। मुझे सारी किताबें अभी के अभी चाहिए। वही वाली। जो इन आलमारियों में थी।’’ अभिध ने पैर पटकते हुए कहा।
अभिध के पिता को गुस्सा आ गया। उन्होंने अभिध के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया। वे बौखला गए। अभिध से बोले-‘‘कबाड़ को कबाड़ी ही ले जाता है। वो किताबें पुरानी थीं। आज वो बेकार हो गईं थी। समझीं तुम।’’
झन्नाटेदार थप्पड़ के निशान अभिध के गाल पर उभर आए। अभिध ने अपना नन्हा हाथ गाल पर रख लिया। उसका गला रूंध् गया। वह सिसकते हुए बोली-‘‘जो चीज पुरानी होती है, क्या वो बेकार हो जाती है? दादी भी तो पुरानी है। क्या उन्हें भी कबाड़ी को दे दोगे।’’
अभिध के पिता ने दूसरा हाथ उठाया ही था कि अभिध सहम गई। पीछे हटते हुए बोली-‘‘पापा। पिफर तो कल मैं भी पुरानी हो जाऊंगी। तो क्या मुझे भी कबाड़ी को दे दोगे?’’
यह सुनते ही अभिध के पिता का हाथ हवा में ही थम गया। वह सन्न रह गये। अभिध पफूट-पफूट कर रोने लगी। दौड़कर दादी से चिपकते हुए बोली-‘‘मैं कबाड़ी अंकल से सारी किताबें मांग लूंगी।’’ अभिध की दादी की आंखें भीग गईं। उन्होंने धेती का पल्लू अपने मुंह ठूंस लिया और हां में सिर हिलाया। अभिध की मम्मी रसोई में चली गई।
अभिध की दादी ने भर्राते हुई आवाज में कहा-‘‘अनिल बेटा। सांझ होने में अभी देर है। कबाड़ी मुहल्ले की रद्दी पलटन बाजार के कबाड़ी जरदारी को बेच देते हैं। जरदारी का पलटन बाजार में बहुत बड़ा स्टोर है। रद्दी वाला वहीं गया होगा। जा बेटा, किताबें वापिस ले आ।’’
अभिध के पिता तेज कदमों से बाहर निकल गए। शाम के बाद रात हो आई। अभिध कुर्सी पर बैठे-बैठे भूखी-प्यासी ही सो गई। देर रात दरवाजे की घंटी बजी। अभिध जाग गई। दरवाजा खुला। अभिध के पिता के साथ तीन मजदूर भी थे। उन्होंने किताबों के ढेर को अंदर रखा और मजदूरी लेकर चले गए। अभिध खुशाी से चहक उठी। कहने लगी-‘‘पापा। सारी किताबें मिल गईं न?’’
अभिध के पिता ने पसीना पोंछते हुए जवाब दिया-‘‘साॅरी अभिध। मुझे जरदारी का स्टोर ढूंढने में कापफी समय लग गया। मुझसे पहले वहां कुछ बच्चे चले गए होंगे। उन बच्चों ने दाम देकर हमारी कुछ पुरानी किताबें खरीद लीं। मुझे तो आज ही पता चला कि कईं बच्चे ऐसे भी हैं जो पुरानी पत्रिकाएं सस्ते दामों में कबाड़ियों से खरीदते हैं। वाकई। हमारी ये किताबें रद्दी के लिए नहीं हैं। ये तो अनमोल हैं। शुक्र है तुम्हारी दादी ने मुझे शाम को ही भेज दिया। कल तक तो ये किताबें आध्ी ही रह जातीं।’’
अभिध के पिता हांफ रहे थे। उनके माथे पर पसीना सापफ झलक रहा था।
अभिध ने कहा-‘‘चलो। पापा। इन्हें दोबारा आलमारियों में रख देते हैं। कहीं मम्मी और दादी दोबारा इन्हें कबाड़ी को न दे दें।’’
सब अभिध के चेहरे की चमक देखकर हैरान थे। दोपहर से भूखी-प्यासी नन्ही अभिध के नन्हें हाथ किताबों को उठाने में जो जुट गए थे।

10 दिस॰ 2013

सादगी से दीवाली.Nov. 1st 2013. चंपक

सादगी से दीवाली

Manohar Chamoli 'manu'

 
‘‘चंपकवन में मेरे आदेश के बिना पत्ता भी नहीं हिलना चाहिए। फिर भला किस की हिम्मत हुई जिसने यह कहलवा दिया कि दीवाली में धूमधड़ाका नहीं होगा। बताओ।’’ राजा शेर सिंह ने दहाड़ते हुए पूछा।

बैडी सियार शेर सिंह का सलाहकार था। वह बोला-‘‘ महाराज। ये सब चीकू खरगोश का कियाधरा है। उसने ही चंपकवन में यह अफवाह फैलाई है कि दुनिया खत्म हो जाएगी। यदि हम बमपटाखे जलाते हैं तो एक दिन हम सब मर जाएंगे।’’
शेरसिंह दहाड़ा। उसने आदेश देते हुए कहा-‘‘चीकू को जिन्दा मेरे सामने पेश किया जाए। अभी के अभी।’’
बैडी सियार और कल्लू लोमड़ को इसी अवसर की तलाश थी। वह दौड़कर चीकू खरगोश को पकड़ कर ले आए।
कल्लू लोमड़ ने शेर सिंह से कहा-‘‘ये लीजिए महाराज। यही है आपका गुनहगार। इसी ने चंपकवन में घूमघूम कर कहा है कि बमपटाखे नहीं जलाने चाहिए।’’
शेर सिंह चीकू खरगोश को घूरते हुए दहाड़ा-‘‘हम्म। तो तुम हो। मूर्ख दीवाली साल में एक ही बार तो आती है। चंपकवन में धूमधड़ाका नहीं होगा तो आसपास के जंगलवासी क्या कहेंगे। क्या मेरे वतन में इतनी कंगाली आ गई है?’’
चीकू ने विनम्रता से जवाब दिया-‘‘मेरे महाराज। दीवाली सादगी से मनाएंगे तो हमारा चंपकवन और भी खुशहाल हो जाएगा। दूसरी बात यदि महाराज। दीपावली में बमपटाखे जलाते रहे तो एक दिन ऐसा आएगा कि आप भूखे ही रह जाओगे।’’
शेर सिंह के कान खड़े हो गए। वह चैंकते हुए बोला-‘‘मैं भूखा रह जाऊंगा? कैसे?’’
चीकू ने हाथ जोड़ते हुए कहा-‘‘महाराज। दीपावली में बमपटाखे जलाने से ध्वनि प्रदूषण होता है। कई छोटेबड़े जीवजन्तु तो डर के मारे कई दिनों तक भूखेप्यासे ही रह जाते हैं। कईयों के कान हमेशा के लिए बहरे हो जाते हैं। दहशत से कई तो मर भी जाते हैं।’’
शेर सिंह दहाड़ा-‘‘उससे मुझे क्या? तुम तो यह बताओ कि मैं भूखा भला क्यो रह जाऊंगा यदि दीपावली पर पटाखे जलते रहे।’’
चीकू ने कहा-‘‘वही तो बता रहा हूं महाराज। आप तो जानते ही हैं कि प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। चंपकवन की झील का पानी लगातार घट रहा है। इस बार तो बारिश भी नहीं हुई। बम पटाखों से निकलने वाली गैसें और प्रदूषण से उत्सर्जित कार्बन ने ओजोन परत में सुराख कर दिया है। ये सुराख बढ़ता ही जा रहा है।’’
कल्लू लोमड़ बीच में ही बोल पड़ा-‘‘महाराज। ये चीकू है। चालाक। अब ये आपको कहानी सुनाने लगा है।’’
बैडी सियार भी कल्लू लोमड़ की हां में हां मिलाते हुए कहने लगा-‘‘लगता है यह अपनी जान बचाने का कोई तरीका खोज रहा है।’’
शेर सिंह ने चीकू खरगोश से कहा-‘‘ये ओजोन परत क्या है? उससे हमारा क्या लेनादेना?’’
चीकू ने बताया-‘‘महाराज आसमान में एक छतरीनुमा विशालकाय परत है। जिस प्रकार छतरी हमें धूपबारिश से बचाती है उसी प्रकार ये ओजोन परत सूरज की तीव्र और नुकसान पहुंचाने वाली किरणों को धरती पर आने से रोकती है। लेकिन इस ओजोन परत पर सुराख हो गया है। यह सुराख बढ़ता ही जा रहा है। अब महाराज। यदि हम सुराख वाली छतरी लेकर घूमेंगे तो बारिश में भीग जाएंगे। इसी प्रकार अब सूरज की तीव्र किरणे उस सुराख से सीधे धरती तक आ रही है। इस कारण धरती पर असाधारण बदलाव दिखाई देने लगे हैं।’’
शेर सिंह ने पूछा-‘‘बदलाव! कौन से?’’
चीकू ने बताया-‘‘जैसे महाराज। अत्यधिक गर्मी का होना। अत्यधिक बारिश का होना। सूखा पड़ना या कहीं बाढ़ आना।’’
शेर सिंह ने पूछा-‘‘मगर बमपटाखों से ओजोन परत का क्या संबंध है?’’
चीकू बोला-‘‘संबंध है महाराज। बमपटाखों को जलाते समय इनसे मैग्नेशियम कार्बन मोनो अक्साइड,कापर मैग्नेशियम सल्फर नाइट्रोजन भारी मात्रा में निकलती है। इन गैसों की मात्रा वायुमंडल में बढ़ जाती है। प्रदूषण बढ़ता है और ओजोन परत को नुकसान पहुंचता है।’’
शेर सिंह बोला-‘‘हम्म। समझ गया। लेकिन मेरे भूखे रह जाने का क्या मतलब है?’’
चीकू ने कहा-‘‘जी महाराज। बताता हूं। महाराज। यदि ओजोन परत का सुराख बढ़ता ही जाएगा तो सूरज की किरणे सीधे हम तक पहुंचने लगेंगी। वे किरणें बेहद हानिकारक होती हैं। धरती गर्म से और गर्म हो जाएगी। हमारा जीना मुहाल हो जाएगा। घास हरेभरे वृक्ष झुलस कर सूख जाएंगे। बारिश नहीं होगी। हम जैसे शाकाहारी जीव बिना घासपात के मर जाएंगे। महाराज जब हम ही नहीं रहेंगे तो आप मांसाहारी भोजन कैसे कर पाएंगे?’’
शेर सिंह गुर्राया-‘‘ ये बात है। चीकू तुम सही कहते हो। आज से तुम चंपकवन के ही नहीं मेरे भी सलाहकार बनाए जाते हो।’’
बैडी सियार बीच में ही बोल पड़ा-‘‘मगर महाराज। आपका सलाहकार तो मैं हूं।’’
शेर सिंह दहाड़ा-‘‘चुप रहो। तुम और कल्लू लोमड़ अभी जाओ। समूचे चंपकवन में ऐलान करवा दो कि इस बार दीपावली सादगी से मनाई जाएगी। यही नहीं दीपावली के अवसर पर हम चंपकवन में विशाल वृक्षारोपण के लिए गड्ढे खुदवाएंगे। पौधशाला का निर्माण कराएंगे। बरसात आते ही विशाला वृक्षारोपण किया जाएगा। जाओ।’’
बैडी सियार और कल्लू लोमड़ दुम दबाकर चंपकवन की ओर दौड़ पड़े। वहीं दरबारी नये सलाहकार के स्वागत में चीकू खरगोश के लिए तालियां बजा रहे थे। 000

26 नव॰ 2013

अगली बार जरूर आना.-मनोहर चमोली ‘मनु’ champak NOV 1st,2013



अगली बार जरूर आना


मनोहर चमोली ‘मनु’


नुभव चिल्लाया-‘‘मम्मी! यहां आओ। देखो न, ये नई चिड़िया हमारे घर में घुस आई है। इसकी पूंछ दो मुंह वाली है।’’
अमिता दौड़कर आई। खुशी से बोली-‘‘अरे! ये तो अबाबील है। प्रवासी पक्षी। दूर देश से आई है। ये हमेशा यहां नहीं रहेगी। कुछ महीनों बाद ये वापिस अपने वतन चली जाएगी।’’

अनुभव सोचने लगा-‘‘इसका मतलब ये विदेशी चिड़िया है। भारत में घूमने आई है। मैं इसे अपने घर में नहीं रहने दंूगा।’’
अबाबील का जोड़ा मेहनती था। दोनों ने दिनरात एक कर दिया। उन्होंने घर की बैठक वाले कमरे का एक कोना चुन लिया था। छत के तिकोने पर दोनों ने मिलकर घोंसला बना लिया।
अमिता ने अनुभव से कहा-‘‘अबाबील ने कितना सुंदर घोंसला बनाया है। अब हम इन्हें झुनका और झुनकी कहेंगे।’’
अनुभव ने पूछा-‘‘मम्मी। ये अपनी चोंच में क्या ला रहे हैं?’’
अमिता ने बताया-‘‘झुनकी अंडे देगी। घोंसला भीतर से नरम और गरम रहेगा। इसके लिए झुनकाझुनकी घासफूस के तिनके, पंख और मुलायम रेशे ढूंढखोज कर ला रहे हैं।’’ यह कहकर अमिता रसोई में चली गई।
अनुभव ने मेज सरकाया। उस पर स्टूल रखा। स्टूल पर चढ़ कर अनुभव ने छतरी की नोक से झुनकाझुनकी का घोंसला तोड़ दिया। झुनकाझुनकी चिल्लाने लगीं। कमरे के चारों ओर मंडराने लगीं।
‘‘अनुभव। ये तुमने अच्छा नहीं किया। चलो हटो यहां से।’’ अमिता दौड़कर रसोई से आई और टूटा हुआ घोंसला देखकर अनुभव से बोली।
विदेशी चिड़िया की वजह से मुझे डांट पड़ी है। अनुभव यही सोच रहा था।
शाम हुई तो अमिता ने अनुभव को चायनाश्ता देते हुए कहा-‘‘झुनकाझुनकी फिर से अपना घोंसला उसी जगह पर बना रहे हैं। घासफूस और गीली मिट्टी चोंच में ला लाकर वह अपना घोंसला बनाते हैं। तिनकातिनका जोड़ते हैं। देखो। बेचारे दोबारा मेहनत कर रहे हैं। सिर्फ तुम्हारी वजह से। शुक्र है कि वे हमारा घर छोड़कर कहीं ओर नहीं गये।’’ यह सुनकर अनुभव चुप रहा। फिर मन ही मन में सोचने लगा-‘‘मैं झुनकाझुनकी को किसी भी सूरत में यहां नहीं रहने दूंगा। मैं इनका घोंसला बनने ही नहीं दूंगा।’’
झुनकाझुनकी ने बिना थकेरुके दो दिन की मशक्कत के बाद घोंसला तैयार कर लिया। अनुभव दोस्त से गुलेल मांग कर ले आया। उसने गुलेल स्टोर रूम में छिपा दी। झुनकाझुनकी दिन भर चहचहाते। फुर्र से उड़ते हुए बाहर निकलते। बैठक के दोतीन चक्कर लगाते। फिर एकएक कर घोंसले के अंदर घुस जाते।
एक दिन अमिता ने अनुभव को बताया-‘‘लगता है झुनकी ने अंडे दे दिये हैं। देखो। झुनका चोंच में कीड़ेमकोड़े पकड़ कर ला रहा है। कीटपतंगे और केंचुए इनका प्रिय भोजन है। पंद्रहबीस दिनों के बाद घोंसले से बच्चों की चींचीं की आवाजें सुनाई देने लगेंगी।’’
अनुभव सोचने लगा-‘‘मेरा निशाना पक्का है। बस एक बार गुलेल चलाने का मौका मिल जाए। घोंसला अंडों समेत नीचे गिरा दूंगा।’’
फिर एक दिन घोंसले से बच्चों की चींचीं की आवाजें आने लगीं। अनुभव दौड़कर आया। घोंसले से आ रही आवाजों को सुनने लगा।
‘‘अब कुछ ही दिनों में बच्चे घोंसले से बाहर निकल आएंगे।’’ अमिता ने अनुभव से कहा। अनुभव मन ही मन बुदबुदाया-‘‘कुछ भी हो। आज रात को मैं घोंसला तोड़ ही दूंगा।’’
रात हुई। अनुभव चुपचाप उठा। स्टोर रूम से गुलेल निकाल कर वह घोंसले के नजदीक जा पंहुचा। वह अभी निशाना साध ही रहा था कि झुनकाझुनकी चींचीं करते हुए अनुभव पर झपट पड़े। अनुभव के हाथ से गुलेल छिटक कर सोफे के पीछे जा गिरी। अनुभव उछलकर सोफे पर जा चढ़ा।
‘‘अनुभव बच कर रहना। देखो सोफे के सामने कितना बड़ा बिच्छू है।’’ अंकिता खटका सुनकर बैठक वाले कमरे में आ चुकी थी। दूसरे ही क्षण झुनकाझुनकी ने बिच्छू को चोंच मारमार कर जख्मी कर दिया। झुनका बिच्छू को चोंच में उठा कर घोंसले में ले गया। अनुभव डर के मारे कांप रहा था।
अमिता ने कहा-‘‘ अनुभव तुम बालबाल बच गए। वह बिच्छू तो खतरनाक था। अब तक झुनकाझुनकी के बच्चे बिच्छु को अपना भोजन बना चुके होंगे। यदि बिच्छू कहीं छिप जाता तो बड़ी मुश्किल हो जाती।’’ अनुभव ने राहत की सांस ली।
दिन गुजरते गए। अनुभव स्कूल आतेजाते घोंसले पर नज़र जरूर डालता। अब वह बैठक वाले कमरे में ही पढ़ाई करता। एक शाम अमिता ने कहा-‘‘अनुभव। मैं बाजार जा रही हूं।’’
अनुभव को इसी पल का इंतजार था। वह दौड़कर गुलेल ले आया। घोंसला निशाने पर था। इस बार उसका निशाना चूका नहीं। घोंसला भरभराकर नीचे आ गिरा। ढेर में मिट्टी, पंख, घासफूस के अलावा कुछ नहीं था। अमिता देर शाम घर लौटी और सीधे रसोई में खाना बनाने चली गई। खाना खाकर सब सो गए।
सुबह हुई। अमिता ने उठकर बैठक की सफाई की। अनुभव उठा तो वह डरता हुआ बैठक के कमरे में जा पहुंचा। अमिता ने कहा-‘‘अनुभव बेटा। झुनकाझुनकी का घोंसला न जाने कैसे टूट गया।’’
अनुभव ने कहा-‘‘ मम्मी लगता है कि वे अपने बच्चों समेत अपने देश वापिस लौट गए।’’
अमिता उदास हो गई। अनुभव से बोली-‘‘हां। लेकिन मुझे इस बात का दुख है कि तुम झुनकाझुनकी के बच्चों को देख नहीं पाए। तुम्हारे स्कूल जाने के बाद और तुम्हारे स्कूल आने से पहले वे सब बैठक में यहांवहां खूब उड़ते थे। कई बार रसोई में भी आ जाते थे।’’
यह सुनकर अनुभव को हैरानी हुई। कुछ ही देर में उसे भी महसूस हुआ कि घर सूनासूना सा लग रहा है। वह मुस्कराया और मन ही मन कहने लगा-‘‘साॅरी झुनकाझुनकी। अगली बार फिर आना और हमारे घर ही आना। मैं इंतजार करुंगा।’’
अनुभव चुपचाप स्टोर रूम में गया। गुलेल एक कोने में पड़ी थी। अनुभव ने गुलेल उठाई और दोस्त को वापिस करने के लिए उसके घर की ओर चल पड़ा।
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17 नव॰ 2013

बाल साहित्य और बच्चे : बाल साहित्य आलेख

बाल-साहित्य और बच्चे

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    क्या बाल-साहित्य वह है, जो बच्चे लिखते हैं? क्या वह है, जो बच्चों के लिए लिखा जाता है? क्या अच्छी बाल पत्रिका वह है, जिसमें बाल लेखकों को स्थान मिलता है? क्या वह हैं, जिनमें बच्चों के लिए लिखी गई सामग्री को पर्याप्त स्थान मिलता है?
सरसरी तौर पर यह सवाल हास्यास्पद हो सकते हैं। लेकिन गौर से इन सवालों की प्रकृति पर ध्यान दें तो विमर्श की संभावना बनती है। पिछले दस-पन्द्रह वर्षों से प्रकाशित अमूमन सभी बाल पत्रिकाएँ मैं पढ़ रहा हूँ। पाता हूँ कि बाल पत्रिकाओं के नाम पर इन अधिकतर पत्रिकाओं में लेखक के रूप में बड़े-बुजुर्ग ही लिख रहे हैं। अब यदि बच्चे नहीं लिख रहे हैं तो क्या बड़ों का लिखा बच्चे पढ़ रहे हैं? ऐसी कुछ-एक पत्रिकाएँ हैं, जो बड़ों-बच्चों को एक ही अंक में स्थान दे रही है। अब ऐसी पत्रिकाओं की सामग्री की पठनीयता पर आते हैं। बड़ों का तो मैं क्या कहूँ। लेकिन बच्चे पहले बच्चों का लिखा हुआ ही पढ़ते हैं। क्यों? बड़ों का लिखा हुआ अमूमन बच्चे पढ़ते ही नहीं। अपवाद छोड़ दंे तो, ऐसा क्यों है? क्या नामचीन बाल साहित्यकारों ने कोई रचना पत्रिका में भेजने से पहले बच्चों को पढ़वाईं? जँचवाई?
    बड़ों का कहना होता है कि बच्चे कैसे हमारे लेखन का आकलन कर पाएँगे। बाल-लेखन है तो बच्चों के लिए और हम यह कहते फिरे कि बच्चे उसका आकलन नहीं कर सकते। फिर वह रचना बाल पत्रिका में क्यों? किसके लिए? अधिकतर बाल-साहित्यकार बच्चों के लिए लिखते समय बच्चे को बोदा-भोंदू-कोरा स्लेट, अज्ञानी, कच्ची मिट्टी का घड़ा आदि मानकर रचनाएँ लिखते हैं। खुद को बड़े के स्तर पर रखकर लिखते हैं? बहुत हुआ, तो अपना जिया बचपन याद करते हुए लिखते हैं। क्या इस तरह से मानकर कुछ लिख लेना बाल-साहित्य का भला करेगा? कितना अच्छा हो कि पहले हम बड़े बच्चों के साथ समय बिताकर जीवन का आनंद लें। उनके साथ घुले-मिले। उनके अपने समाज में बच्चा बनकर रहें। तब भला क्यों कर अच्छी रचना नहीं बन सकेगी?
    एक मित्र ने कहा कुछ कविताएँ भेजिए। मैंने आठ-दस कविताएँ भेज दी। कुछ दिनों बाद उनका फोन आया कि आपकी दो रचनाएँ बच्चों ने स्वीकार कर ली हैं। मैं चैंका। पूछा तो उन्होंने बताया-‘‘दरअसल। रचनाओं का चुनाव बच्चे ही कर रहे हैं। जो उन्हें पहले वाचन में पसंद आ रही हैं। उसे वह बड़े समूह में दे रहे हैं। अधिकतर जब उसे पठनीय मान रहे हैं, तब ही उसे स्वीकार किया जा रहा है। मेरी भूमिका तो बस उनके साथ सहायक-सी है।’’ इसे आप क्या कहेंगे?
    एक संपादक का फोन आया कि कुछ भेजिए। मैंने कहा-‘‘बच्चों जैसा या बच्चों का या बच्चों के लिए?’’ वह कहने लगे-‘‘मतलब?’’ मैंने जवाब दिया-‘‘यही कि जिस स्तर के बच्चे हैं। वह जो सोचते हैं, जैसा सोचते हैं। उसके आस-पास लिखने वाला बच्चों जैसा हुआ। जिस स्तर के बच्चे हैं, उन्हीं से लिखवाया जाए तो बच्चों का और मैं जो सोचता हूं कि यह रचना बच्चों के लिए होनी चाहिए, वह बच्चों के लिए हुई।’’ वे कहने लगे जो आप सोचते हैं कि वह बच्चों के लिए होनी चाहिए, वे भेज दीजिएा
    अब आप बताइए। मैं जो सोचता हूँ या आप जो सोचते हैं, वह बच्चों के लिए हो सकता है? शायद कुछ-कुछ। या कभी कुछ भी नहीं। ये भी संभव है कि बहुत कुछ। लेकिन हम यह मान लें कि हमने जो लिखा है, वह संपूर्ण हैं-पर्याप्त है? कहने का अर्थ यही है कि हम बड़े बच्चों के लिए जो कुछ घर बैठकर अपनी सोच से लिख रहे हैं, वह जरूरी नहीं कि वह बच्चों को मुफीद भी लगे। बच्चे उसे पहले ही वाचन में खारिज भी कर सकते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम लिखना ही छोड़ दें। भाव यही है कि क्या हम किसी भी रचना का निर्माण करते समय यह सोचते हैं कि जिस पाठक के लिए हम लिख रहे हैं, उसकी सोच, दायरा, मन, इच्छाएँ, सपने और परिस्थितियाँ रचना को आत्मसात् करने वाली है भी या नहीं।
    हमारे एक अग्रज साहित्यकार हैं। वह निरंतर अध्ययनशील रहते हैं। एक बार कहने लगे-‘‘क्या देश की अग्रणी बाल पत्रिकाओं में छपते रहना काफी है? क्या चार-सात बाल-साहित्य की दिशा में संग्रह आ जाना महत्वपूर्ण है? आपका साहित्य देश भर की पत्रिकाओं में छपता है। लेकिन क्या आपके साहित्य को पढने वाला पाठक आपके क्षेत्र-विशेष, अंचल और आपके स्थानीय परिवेश को महसूस कर पाता है?’’
मेरे लिए यह सवाल मननीय थे। मैंने अपनी सभी रचनाएँ घर आकर टटोली। तलीशी। पढ़ीं। एक भी रचना ऐसी नहीं मिली, जिसे पढ़कर सुदूर बैठा या पड़ोस में बैठा पाठक यह महसूस कर ले कि इस रचना का रचनाकार किस परिवेश का है। मैंने यह महसूस किया है कि रचनाकार का यह भी धर्म है कि देश-दुनिया को अपने स्थानीय परिवेश से भी परिचय कराए। दुनिया भर के बच्चे अपनी दुनिया को आपकी दुनिया से जोड़कर देखना चाहते हैं। वे रचनाकार बधाई के पात्र हैं जिनकी अधिकतर रचनाओं में उनका अंचल झलकता है। उनके परिवेश के बच्चों का चित्रण होता है। मेरा मानना है कि गिलहरी हर जगह नहीं होती। समुद्र पहाड़ के बच्चों के लिए विहंगम-अद्भुत और हैरत में डालने वाला होता है। ठीक उसी प्रकार जब हमने पहली बार हाथी देखा हो। पहली बार रेल देखी हो। आज भी पहाड़ के बच्चों के लिए हवाई जहाज इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना रेल के बारे में सोचना उसे देखने की इच्छा का प्रबल होना। जहाज तो वह अपने आसमान में दूर से ही सही,यदा-कदा देखते ही रहते हैं। 
    आलेख के आरंभ में उठाए गए प्रश्न अभी भी ज्यों के त्यों हैं। हम सब बाल पत्रिकाओं में बच्चों की भावनाओं को भी उकेरें। उनके लिखे हुए को प्रोत्साहित करें। हर बच्चे को प्रथम,द्वितीय और तृतीय की कसौटी पर न रखें। उसके लेखन का बढ़ाने में सहायता दें। ऐसी बहुत कम पत्रिकाएँ हैं, जो बच्चों के लिए हैं। जो बच्चों के लिखे हुए को ज्यादा स्थान देती है। हास्यास्पद बात तो यह है कि इन पत्रिकाओं को बचकाना,कूड़ा-कबाड़ करार दिया जाता है। इन्हें उद्देश्यहीन घोषित कर दिया जाता है। यह घोषणा भी वे करते हैं, जो बड़े हैं। जिन्हें बच्चों से बात करने का सलीका भी नहीं आता है। बाल-साहित्य में खुद को तराशना बड़ी बात है। एक रचना भी हम लिख पाएँ तो हम भी फणीश्वर नाथ रेणू न बन जाएँ ! शायद यही कारण है कि गुलज़ार साहब ने यह कहा कि हिन्दी में बाल साहित्य लिखा ही नहीं जा रहा है। शायद यही अर्थ रहा होगा कि जो कुछ लिखा जा रहा है, वह बच्चों के लिए कारगर नहीं है। बच्चे उसमें रम नहीं रहे हैं। आनंदित नहीं हो रहे हैं।
    अधिकतर पत्रिकाएं खुद को बाल पत्रिकाएँ कहती हैं। लेकिन बच्चों की लिखी गई रचना के लिए उनमें तीन-चार पेज ही हैं। क्या इन्हें बाल पत्रिकाएँ कहेंगे? संपादकों का कहना है कि जरूरी नहीं कि बच्चे अच्छा स्तर का लिखे। उनका हर कुछ लिखना बाल साहित्य कैसे हो सकता है? एक उदाहरण देना चाहूँगा। हम बाजार में सब्जी खरीदने जाते हैं। एक ही स्टाॅल पर विविधता भरी सब्जियाँ लाते हैं। स्वाद, रुचि और इच्छा के अनुसार जो हमें नहीं जंचती,वह तरकारी हमारे झोले में नहीं आती। फिर हम बच्चों को बच्चों की पत्रिकाओं में अधिक स्थान देने से क्यों बचते हैं। क्या बच्चों की पत्रिकाएं हम बड़ों के लिए तो नहीं हैं? क्या बच्चों की पत्रिकाएं बच्चों के लिए हैं भी या नहीं?
    बगैर किसी पत्रिका का नाम लिए मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अधिकतर पत्रिकाएँ बच्चों को नौसिखिया ही मानती है। रंग भरो प्रतियोगिता, शीर्षक आधारित प्रतियोगिता, बूझो तो जानें, आप कितना जानते हैं? ऐसे कई स्तंभों से पत्रिकाएँ भरी पड़ी हैं, जो हर अंक में बच्चों को खुद को साबित करने की होड़ में लगी है। तीन-चार प्रविष्टियों को पुरस्कृत कर देने भर से बाल विकास हो रहा है? एक संस्था हैं वह हर साल किसी के जन्मदिवस पर चित्रकला प्रतियोगिता कराती है। हर साल पाँच सौ से अधिक बच्चे उस प्रतियोगिता में सहभागी बनते हैं। उसी स्पाॅट पर उसी दिन प्रथम,द्वितीय,तृतीय और तीन सांत्वना पुरस्कार देकर यह संस्था सोचती है कि वह बच्चों को चित्रकार बना रही है। क्या वाकई यह संस्था बाल विकास में कुछ कर रही है? जिन्हें पिछले दस सालों में (लगभग साठ बच्चों को) जिन्हें चित्रकला के नाम पर संस्था ने पुरस्कृत किया होगा उनमें एक भी चित्रकला की दिशा में आगे बढ़ पाया? यह शोध का विषय हो सकता है। यही हाल बाल साहित्य लिखने का है। क्या बाल-साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़कर या बाल पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छप जाने भर से बच्चों में सकारात्मक बदलाव आया है? यह विमर्श का विषय है।
    आज नहीं तो कल हमें अपनी दिशा तय करनी होगी। वह बाल-साहित्य कपोल-कल्पना ही होगा। निरर्थक ही होगा, जिसके केन्द्र में बच्चे नहीं है। जिनका सरोकार बच्चों से नहीं है। सीख, उपदेश और नसीहत देते रहने का हश्र शायद वही होगा, जो हर साल रावण का पुतला जला देने से हो रहा है। रामलीला में आदर्श अभिनय कर देने भर से हम आदर्श और अनुकरणीय नहीं हुए। ठीक उसी तरह से बाल-साहित्य में भी ‘चाहिए-चाहिए’-‘ऐसा करो-ऐसा करो’ चिल्लाने भर से बच्चों का भला नहीं होने वाला है। अब समय आ गया है कि इक्कीसवीं सदी के बाल साहित्य में हम कम से कम एक-एक रचना ही ऐसी सृजित करे जो भविष्य में रेखांकित हो। जिसका उल्लेख किया जा सके। जिसे पढ़क्र बच्चे आनंदित हो। मनन की स्थिति में हों। अन्यथा....।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’.

12 नव॰ 2013

साहित्य अमृत नवम्बर 2013


अगर वे उस दिन भी स्कूल आते तो

-मनोहर चमोली ‘मनु’
    मुझे आज भी स्कूल की पढ़ाई-लिखाई के दिन याद हैं। अजीत और खजान मेरे सहपाठी थे। हम पहली कक्षा के पहले ही दिन दोस्त बन गए थे। हम तीनों ने हँसते-खेलते कक्षा पाँच पास कर ली थी। हम कक्षा छःह में भर्ती भी हो गए थे। लेकिन एक दिन वे दोनों स्कूल नहीं आए। उनका उस एक दिन स्कूल न आना, मेरे जीवन के महत्वपूर्ण बदलाव का कारण बन गया।

    आज सोचता हूँ कि यदि वे उस दिन भी स्कूल आते, तो आज मेरा क्या होता? डर जाता हूँ। बेचैन हो जाता हूँ। वे मेरे लिए महत्वपूर्ण थे। वे ही तो थे, जिनकी वजह से मैं आज अध्यापक हूँ। वे ही तो हैं जिनकी वजह से मैं आज बरसों पुराने दिनों को याद कर रहा हूँ। उन्हें याद करते हुए मुस्करा भी रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि वे दोनों आज कहाँ हैं। कैसे हैं? क्या करते हैं? लेकिन उनके साथ बिताये सैकड़ों दिनों की मस्ती की मिठास आज भी जैसे जीभ पर लगी हो। मानो ताज़ा हो।
    अजीत का रंग गोरा था। वह औसत से अधिक मोटा था। अजीत हमारी क्लास में सबसे ठिगना था। वह हमेशा किसी से भी लड़ने-भिड़ने को तैयार रहता। अजीत को स्कूल के सभी बच्चों के पिता के नाम कंठस्थ थे। अक्सर वे किसी को भी उसके पिता के नाम से पुकारता था। जो चिढ़ता तो वह उसे और चिढ़ाता।
    अजीत दुस्साहसी भी था। वह स्कूल की दीवारों से लेकर आने-जाने वाले रास्तों पर चाॅक से सहपाठियों के पिता के नाम लिख दिया करता था। अजीत ने हर अध्यापक के नए नाम रखे हुए थे। उसके द्वारा रखे गए नाम ही स्कूल में और स्कूल से बाहर भी लोकप्रिय हुए। अजीत किसी भी पेड़ पर बड़ी आसानी से चढ़ जाता। कूदने-फाँदने में उसका कोई सानी नहीं था।
    मुझे अच्छी तरह याद है कि स्कूल का घण्टा एक बार ‘टन्न’ से बजने का क्या अर्थ था। यह घण्टा सुनते ही हम जोर से शोर मचाते थे। संकेत होता था, बेवक्त दोबारा मैदान में अपना बस्ता सहित प्रातःकालीन सभा की तरह खड़ा होना। यह प्रधानाचार्य के संबोधन का समय होता था। किसी के निधन होने की प्रधानाचार्य सूचना देते थे। दो मिनट का मौन रखा जाता था। शोक सभा का एक नियम होता था। दो मिनट मौन रहने के बाद सब सीधे अपने घर की ओर जाते थे। लेकिन दो मिनट होने से पहले कई छात्र-छात्राओं को हँसी आ जाती थी। आप समझ गए होंगे कि बंदर की तरह ‘खीं-खीं’ की आवाज कौन निकालता होगा। कौन हँसाने के लिए प्रेरित करता होगा? जी हाँ। अजीत ही यह काम करता था।
    खजान का रंग काला था। खजान का कद औसत से अधिक लंबा था। उसके दाँत मोतियों की तरह चमकते थे। उसका सिर भी सबसे बड़ा था। खजान की आँखें औसत से अधिक बड़ी थी। सिर बड़ा होने के कारण खजान दूर से ही पहचान लिया जाता था। उसके काले बाल हमेशा उसकी दाँयी आँख को ढक कर रखते थे। उसके बालों से हमेशा आँवले के तेल की खुशबू आती थी।
    खजान शरारती था। वह बिच्छू, छिपकली, घोंघा, जोंक और मेढक के बच्चे माचिस-सिगरेट की डिबिया में स्कूल लाता था। मौका मिलते ही वह उन्हें लड़कियों की ओर उछाल देता था। स्कूल में एक साथ कई चीखें निकल जाती। हो-हल्ला मच जाता। हँसी के ठहाके गूँज उठते। वहीं अजीत चेहरे में डर के भाव बना लेता। वह जताता कि उसे इन सब जीव-जन्तुओं से बेहद डर लगता है।
    अजीत कई बार निब वाला पैन हवा में उछाल देता। पैन की स्याही कई सहपाठियों के कपड़ों में बारिश की बूंदों की आकृति बना देती। यह सब शैतानियाँ वह बेहद फुर्ती से करता था। खजान कक्षा में यह शैतानियाँ गोपनीय ढंग से करता। परिणाम यह होता कि पिटाई समूची कक्षा की होती थी। वह कई बार किसी के बस्ते में चुपचाप केंचुएं के गुच्छे रख देता। कभी चुपके से किसी के टिफिन से रोटियाँ-आचार निकाल कर मुँह में ठूँस लेता। बारह महीनों उसे जुकाम रहता था।
    मैं? साँवला हूँ। मैं दब्बू था। शर्मीला और अंतर्मुखी था। कक्षा में शायद ही किसी सवाल का जवाब मैंने कभी दिया हो। तब भी, जब भले ही जवाब मुझे पता होता था। प्रातःकालीन सभा मंे गतिविधियाँ कराने का साहस मैं कभी नहीं बटोर पाया। मैं कभी भी अग्रजों की कक्षाओं के कक्ष में नहीं जा पाया। अध्यापकों का सामना करने की बजाय मैं कहीं छिप जाना बेहतर समझता था। मुझे गणित, अंग्रेजी और विज्ञान विषय कभी अच्छे नहीं लगे। मुझे जन्मतिथियाँ कभी याद नहीं रही। भूगोल और इतिहास तो कभी भी समझ नहीं आया।
    हाँ। चित्र बनाना और हिन्दी की किताब पढ़ना मुझे अच्छा लगता था। लेकिन मैं अन्य बच्चों की तरह कभी खड़ा होकर हिन्दी का कोई पाठ पढ़ने का साहस भी नहीं कर पाया। न ही मैंने कभी श्यामपट्ट पर जाकर आम-केला-संतरा बनाया।    
    हम तीनों बेमेल थे। फिर भी हम दोस्त थे। एक साथ स्कूल जाना। एक साथ स्कूल से घर लौटना। खाली वक्त पर एक साथ घूमना-टहलना। छुट्टी के दिन घने जंगल में चले जाना। पक्षियों के घोंसलों को खोजना। घोंसलों से अण्डों को निकालना, घोंसलों में पक्षियों के बच्चों को उठाना हमारा काम रहता। हमें पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की अच्छी जानकारी हो गई थी। मदारी के खेल देखना हमें बेहद पसंद था। बंदर-भालू नचाने वाले और दवा बेचने वालों के तमाशों में हम सबसे आगे खड़े रहते।
    स्कूल हमारे गाँव से बहुत दूर था। दस-बारह गाँव के बच्चों के लिए एक ही स्कूल था। लगभग एक घण्टा पैदल चलकर हम स्कूल पहुँचते थे। हम घर से सबसे पहले निकल जाते। लेकिन स्कूल सबसे देर में पहुँचते। अक्सर स्कूल तब पहुँचते थे, जब प्रातःकालीन सभा हो जाती थी।
    स्कूल के कक्षा-कक्ष में दो दरवाजे होते थे। हम पीछे के दरवाजे से कक्षा में घुसते थे। जैसे ही अध्यापक ब्लैकबोर्ड में कुछ लिखना शुरू करते थे, उसी क्षण हम बारी-बारी से दबे पाँव कक्षा में घुस जाते। इसी तरह चुपचाप इसी दरवाजे से बाहर निकल जाते। छुट्टी का घंटा हमने शायद ही कभी सुना हो। हम अक्सर बीच में ही स्कूल से ‘टप’ लिया करते थे। लेकिन घर हम सबसे देर में पहुँचते थे।
    ब्लैक बोर्ड के ठीक सामने बाँयी ओर पाँच छात्र बैठते थे। दाँयी ओर पाँच छात्राएँ बैठती थीं। हम छात्रों की सबसे आखिरी पंक्ति में बैठते। हम तीनों कक्षा में होते हुए भी न होने के समान थे। हमारी बेसिर-पैर की बातें थीं कि कभी खत्म ही नहीं होती थीं। एक शिक्षक के बाद दूसरे शिक्षक के आने पर कक्षा के सब बच्चे खड़े हो जाते थे। एक हलचल-सी मच जाती थी। हम तभी जान पाते थे कि एक पीरियड खत्म हो गया है। 
    हमारी पढ़ने की बारी कभी आती ही नहीं थी। कोई भी अध्यापक कभी हमारी सीट तक नहीं आए। काॅपियों का ढेर कक्षा का माॅनीटर जमा करता था। हम बहाना बना देते कि आज काॅपी घर छूट गई है। कुछ दिनों बाद माॅनीटर ने भी हम तक आना छोड़ दिया। हम कक्षा में कभी शोर नहीं मचाते। कारण साफ था। हम तीनों सबसे पीछे जो बैठते थे। हमारे सिर अपनी-अपनी डेस्क पर झुके होते थे।
    हम तीनों अपनी ही बातों-गप्पों मंे व्यस्त रहते थे। हमने कभी यह जानने-सुनने की कोशिश ही नहीं की, कि अध्यापक पढ़ा क्या रहे हैं। अक्सर हम जरूरी सूचनाएं भी नहीं सुन पाते थे। कल फीस डे है। यह तो सुन लिया। लेकिन यह ध्यान नहीं दिया कि फीस कितनी लानी है।
    कई बार छुट्टी की घोषणा हो जाती थी। लेकिन हम तीनों सुबह-सवेरे तैयार होकर स्कूल चले आते। ऐसा कई बार होने के बाद एक तरीका खोज लिया गया। अब हम में से कोई एक हर सुबह स्कूल जाते हुए अन्य सहपाठियों को देख लेता। सीटी बजाकर संकेत देता कि आज स्कूल जाना है। सीटी की आवाज सुनकर ही हम तैयार होते। सीटी बजाने का तरीका भी तय किया हुआ था। एक लंबी सीटी और फिर एक छोटी ध्वनि की सीटी जरूर बजानी होती थी। यह इसलिए किया गया था कि कभी कोई मुगालता न हो। कभी किसी अन्य चैथे की सीटी पर हम तीनों को कोई गलतफहमी न हो।
    अक्सर अध्यापक कक्षा में कोई सवाल पूछते थे। आसान सवाल का जवाब तो आगे की पंक्तियों में बैठे सहपाठी दे दिया करते थे। लेकिन कभी-कभी कठिन सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाता था। हमारी सीट के आगे बैठे हुए सहपाठियों की भी बारी आ जाती। वह भी खड़े हो जाते। तब जाकर हमें पता चलता था कि कोई सवाल पूछा गया है। लेकिन सवाल क्या पूछा गया होगा। यह हम तीनों कभी नहीं जान पाए। समूची कक्षा की पिटाई में हम भी पिटते।
    जब भी हमारी पिटाई होती, तब मुझे बहुत गुस्सा आता। मैं सोचता-‘‘ये इतने सारे हमसे आगे बैठते हैं। ध्यान से क्यों नहीं सुनते? मन लगाकर क्यों नहीं पढ़ते? इनके खड़े होने के बाद हमें भी खड़ा होना पड़ता है।’’
    एक सुबह की बात है। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। सूरज खिड़की से भीतर झांक रहा था। मैंने नित्य कर्म फटाफट निपटाए। बस्ता कांधे पर रखा। तेज कदमों से स्कूल की ओर दौड़ पड़ा। हांफते-हांफते स्कूल पहुँचा। कक्षा में झांका तो अजीत और खजान अपनी सीट पर नहीं थे।
    ‘‘तो क्या ये दोनों आज स्कूल नहीं आए। मैं क्लास में जाकर क्या करूंगा।’’ यह सोचकर मैं वापिस लौटने लगा।
    ‘‘ऐ लड़के ! कहाँ जा रहा है? कौन-सी क्लास का है?’’ यह प्रिंसिपल सर की आवाज थी। प्रिंसिपल मानो गश्त पर थे। मैं जानता था कि यदि उन्होंने मुझे पकड़ लिया तो जोर से कान उमेठेंगे। फिर मुर्गा बनाएंगे। पीठ पर एक ढेला रख देंगे।
    मैंने आव न देखा ताव। दौड़ा और चुपचाप अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। कक्षा में अध्यापक ‘खरगोश और कछुआ’ की कहानी सुना रहे थे। पहली बार मैं किसी अध्यापक की बात को  गौर से सुन रहा था। पहली बार मैंने समूची कक्षा को निहारा। मैंने महसूस किया कि सभी सहपाठी मौन साधे अध्यापक को गौर से सुन रहे हैं।
    कहानी खत्म होने के बाद अध्यापक ने पूछा-‘‘अच्छा बताओ। कछुआ धीमी चाल के बावजूद जीत कैसे गया?’’
    कई सहपाठियों ने हाथ खड़ा किया। अध्यापक एक के बाद एक सवाल पूछते रहे। सहपाठी भी तत्परता से जवाब देते रहे। मैंने सोचा-‘‘ये जवाब तो मैं भी दे सकता हूँ।’’
    अध्यापक ने ब्लैक बोर्ड पर लिखा-‘‘कहानी में आए खरगोश के बारे में लिखिए।’’ कक्षा में हर दिशा से काॅपियों के पन्ने फड़फड़ाने की आवाज सुनाई दी। हर कोई काॅपी पर कुछ न कुछ लिखने को तैयार दिखाई दिया। मैं सकपकाया। मैं हैरान था। मैंने खुद को अकेला और परेशान पाया। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। रह-रहकर अजीत और खजान याद आ रहे थे।
    मेरे आगे की पंक्ति में से भी एक सहपाठी आज अनुपस्थित था। मेरे ठीक सामने बैठे सहपाठी ने मेरा बस्ता खींच कर अपने दांयी ओर खाली डेस्क पर रख दिया। वह धीरे से बोला-‘‘पीछे अकेले क्या करोगे। आगे आ जाओ। आओ।’’
    मैं चुपचाप आगे की खाली सीट पर उछलकर बैठ गया। मेरे दोनों ओर बैठे सहपाठी काॅपी पर अध्यापक के द्वारा लिखाए गए सवाल को उतार चुके थे। दोनों अपनी समझ से जवाब लिखना शुरू कर चुके थे। मैंने कनखियों से देखा। मैं चैंक पड़ा। दोनों सहपाठियों का हस्तलेख बहुत ही सुन्दर था। मैं मन ही मन में सवाल का जवाब सोच रहा था। मैंने देखा कि जो जवाब मैं सोच रहा था, वे दोनों भी लगभग वैसा ही जवाब अपनी-अपनी काॅपी पर लिख रहे थे।
    तभी अध्यापक की आवाज मेरे कानों पर पड़ी। उन्होंने कहा-‘‘चलिए। अब खरगोश के बारे में बताइए।’’ कई सहपाठियों ने अपने शब्दों में खरगोश के बारे में बताया। मुझे लगा कि मैं भी तो खरगोश के बारे में यही सोच रहा हूँ।
    मध्यांतर हुआ। सब अपने-अपने सहपाठियों के साथ अपना टीफिन साझा कर रहे थे। मैं चुपचाप अकेला खड़ा खजान और अजीत के बारे में सोच रहा था। तभी कुछ सहपाठियों ने मुझे इशारे से बुलाया। मैं चला गया। भूख तो लगी ही थी। सबने अपने टीफिन से मुझे कुछ न कुछ खाने को दिया। खाना खाने के बाद अब हम एक-दूसरे का नाम पूछ रहे थे। गाँव का नाम पूछ रहे थे।
    पांचवी घंटी में दूसरे अध्यापक आए। छठी घण्टी में तीसरे और सातवीं घण्टी में चैथे अध्यापक आए। मेरी तो धारा ही बदल गई। आज पहली बार मैं इतनी देर कक्षा में रुका था। सभी अध्यापकों को ध्यान से सुना था। एक-एक वाक्य उपयोगी लग रहा था। मैंने सोचा-‘‘इतने साल-इतने दिन कितनी बातें अनसुनी की। क्यों?’’
    आज पहली बार छुट्टी का घण्टा अपने कानों से सुना। धीमें कदमों से घर की ओर लौटा। पहली बार वक्त पर घर पहुँचा। मुँह-हाथ धोए। खाना खाया। स्कूल बैग को खाली किया। बैग धोया। सभी किताबों-काॅपियों पर अखबारी जिल्द लगाई। अब तक जांची न गई काॅपियों के पन्ने उलटे। खुद पर बहुत गुस्सा आया।
    मन में ठान लिया कि अब मन लगाकर सुनना है। मन लगाकर पढ़ना है। मन लगाकर लिखना है। सवालों से जूझना है। कक्षा में सबसे पीछे नहीं, आगे बैठना है।
    बस! फिर क्या था। मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। खजान और अजीत मेरे दोस्त बने रहे। लेकिन कक्षा से बाहर। कक्षा में मेरी सीट बदल गई। धीरे-धीरे मैं भी कक्षा का गंभीर छात्र बन गया। आज स्वयं अध्यापक हूँ। हर साल नया सत्र आते ही बच्चों को यह किस्सा जरूर सुनाता हूँ। कक्षा में सबसे पीछे बैठे हुए छात्रों से यह कहना नहीं भूलता कि सीट बदलती रहेगी। आज जो आगे बैठे हैं, कल वो पीछे बैठेंगे।
    हर संभव कोशिश करता हूं कि हर बच्चे पर नज़र रहे। हर बच्चे की काॅपी जंचे। हर बच्चे को बोलने का मौका मिले। आज भी खजान और अजीत का चेहरा याद है। एक बात बार-बार याद आती है। मुझे परेशान करती है। यदि उस दिन खजान और अजीत स्कूल आए होते तो मेरा क्या होता?
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-मनोहर चमोली ‘मनु’