17 अग॰ 2013

समझ आया खेल का खेल AUG 2nd CHAMPAK

समझ आया खेल का खेल

मनोहर चमोली ‘मनु’
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‘‘चूंचूं। ये लो नया मोबाइल। ये उपहार तुम्हारे लिए है। इसमें कई वीडियों गेम हैं। इसका डाउनलोडिंग सिस्टम भी बढ़िया है।’’ चूंचूं चूहे के पापा ने चूंचूं से कहा।
‘‘लेकिन बेटा। चूंचूं को अभी से मोबाइल की आदत डलवाना ठीक होगा क्या?’’ चूंचूं की दादी ने पूछा।
‘‘ओह मम्मी। ये 21वीं सदी है। नई पीढ़ी बहुत समझदार है। आपका और हमारा जमाना लद गया।’’ चूंचूं के पापा ने चूंचूं की दादी से कहा।
चूंचूं चूहा स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में प्रथम आया था। उससे पहले उसने क्रिकेट में भी मैन आॅफ दि मैच का खिताब हासिल किया था। वह फुटबाल टीम में चुन लिया गया था। इन्ही कारणों से उसके पापा ने उसे मोबाइल उपहार में लाकर दिया था।
दादी ने चूंचूं को समझाते हुए कहा-‘‘चूंचूं बेटा। मुझे उम्मीद है कि तुम मोबाइल का उपयोग अच्छे के लिए ही करोगे। करोगे न?’’
चूंचूं चूहा हंसते हुए बोला-‘‘दादी। मोबाइल का उपयोग अच्छे के लिए ही होता है। मोबाइल चलाना गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं है।’’ उसने झट से मोबाइल के फंक्शन टटोलने शुरू कर दिये। चूंचूं ने कुछ ही दिनों में मोबाइल के सारे फंक्शन अच्छी तरह से समझ लिए थे।
चूंचूं चूहा अब अक्सर मोबाइल पर गेम खेलता। वह मोबाइल स्कूल भी ले जाने लगा था। जब भी उसे वक्त मिलता वह मोबाइल पर झुक जाता। उसने कुछ दोस्तों को भी मोबाइल गेम सिखा दिए। चूंचूं के कई दोस्त भी अब स्कूल में मोबाइल लेकर आने लगे।
‘‘चूंचूं बेटा। मैं देख रही हूं कि तुम जब देखो, मोबाइल पर ही व्यस्त रहते हो। तुम्हारा पढ़ना-लिखना पहले की तरह नहीं हो रहा है। यही नहीं तुमने स्पोटर््स प्रैक्टिस भी बंद कर दी है। है न?’’ चूंचूं की दादी ने पूछा।
यह सुनकर चूंचूं चिढ़ गया। झल्लाते हुए बोला-‘‘दादी अब मैं बच्चा नहीं रहा। आपको क्या पता कि मैं मोबाइल में क्या कर रहा हूं। आपको पता भी है कि मोबाइल पर आॅन लाइन टीचिंग भी होती है। मोबाइल में इनडोर गेम्स की भरमार है। इससे ब्रेन तेज भी होता है। आप नहीं समझेंगी।’’ यह सुनकर चूंचूं की दादी मुस्कराई और टहलने चली गई।
एक दिन की बात है। चूंचूं चूहा स्कूल से घर लौट रहा था। उसका चेहरा उतरा हुआ था। चूंचूं की मम्मी ने पूछा-‘‘क्यों बेटा। क्या बात है? किसी ने कुछ कहा क्या?’’
‘‘नहीं मम्मी। लेकिन। स्कूल में आज दौड़ हुई थी। मैं टाॅप 10 में भी नहीं आ सका।’’ चूंचूं ने बताया।
‘‘तो क्या हुआ। जाने दो। परेशान न हो। बेहतर आने के लिए जो प्रयास किया जाना था, वह नहीं किया होगा न। बस। उस कमी को दूर करना, जिसकी वजह से ऐसा हुआ। चलो। मुंहहाथ धो लो।’’ चूंचूं की मम्मी ने हौसला बढ़ाते हुए कहा।
चूंचूं दूसरे दिन भी स्कूल से घर लौटा तो परेशान था। चूंचूं चूहा रोते हुए बोला-‘‘मम्मी। स्कूल की क्रिकेट टीम में मेरा सलेक्शन नहीं हुआ।’’
चूंचूं की मम्मी ने फिर कहा-‘‘तो क्या हुआ। कोई बात नहीं। तुम तो तबला भी अच्छा बजा लेते हो। म्यूजिक कम्पीटिशन में तुम अच्छा करोगे।’’
स्कूल में स्थापना दिवस की रिहर्सल होने लगी। रैटी चूहा ने अच्छा तबला बजाया। फाइनल प्रोग्राम के लिए म्यूजिक टीचर ने चूंचूं की जगह रैटी चूहे को सलेक्ट कर लिया।
 चूंचूं चूहे ने दादी को सारा किस्सा सुनाया। दादी ने चूंचूं को समझाते हुए कहा-‘‘ये सब अभ्यास न करने का परिणाम है। संतोषजनक परिणाम देते रहने के लिए लगातार अभ्यास जरूरी होता है। दौड़ में,क्रिकेट में और म्यूजिक में तुम्हारा सलेक्शन नहीं हुआ। इसका मतलब यह नहीं कि तुम अयोग्य थे। बल्कि सलेक्शन के समय तुमसे अधिक फिट कोई और थे। यह तुम्हें अहसास कराने के लिए संकेत हैं कि तुमने अभ्यास का समय खोया है। मोबाइल गेम्स के चक्कर में तुमने अपनी क्षमता को कम किया है।’’
चूंचूं चूहा सुबकते हुए बोला-‘‘अब क्या होगा? तो दादी अब मैं क्या करूं?’’
दादी ने समझाया-‘‘कुछ नहीं। बस तुम पहले की तरह पढ़ाई में मन लगाओ। स्पोर्ट्स की प्रैक्टिस के लिए समय निकालो। फिर देखना परिणाम बेहतर मिलेंगे। हां। मोबाइल पर झुके रहना बंद करना होगा।’’
चूंचूं चूहा कान पकड़कर खड़ा हो गया। सिर हिलाते हुए बोला-‘‘प्राॅमिस दादी। आज से क्या। अभी से मोबाइल पर गेम्स खेलना बंद। चलो। आंगन का एक चक्कर दौड़ लगाकर पूरा करते हैं।’’
‘‘चलो।’’ यह कहकर दादी ने अपनी छड़ी एक ओर रखी और चूंचूं के साथ आंगन का चक्कर लगाने लगी।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’.

27 जुल॰ 2013

कासे कहूं कि बच्चों को सम्मान दें, आत्मग्लानि से न भरें.

कासे कहूं कि बच्चों को सम्मान दें, आत्मग्लानि से न भरें.

-Baal Sansar.

    हम बच्चों को वैसे ही स्वीकार करें, जैसे वे हैं। आखिर हम क्यों यह चाहते हैं कि वे हमारे अनुसार चलें। हम जैसा चाहते हैं, वैसा व्यवहार करें। घर हो या स्कूल। अभिभावक भी और शिक्षक भी कमोबेश यही चाहते हैं कि उनके अधीन या संरक्षण में या उनकी देख-रेख में रहने वाले बच्चे उनके कहे के अनुसार चले। इससे बढ़कर एक कदम और आगे, वे चाहते हैं कि सभी बच्चे एक समान व्यवहार करें। क्यों? ये कैसे संभव है?

    जब एक मां अपनी ही बेटी को अपने अनुसार नहीं ढाल पाती। ढाल भी नहीं सकती और ढालना भी नहीं चाहिए। तब भला हम अभिभावक और शिक्षक सभी बच्चों से एक जैसा व्यवहार क्यों चाहते हैं? एक जैसी प्रतिक्रिया क्यों चाहते हैं? सौ फीसदी प्रगति क्यों चाहते है? क्या यह संभव है? जी नहीं। यह किसी भी सूरत में संभव नहीं है। 


    बच्चे पूरे इंसान हैं। उनका अपना वजूद है। वे किसी फैक्ट्री के सांचे का उत्पाद नहीं है, जो एक जैसे बनेंगे। उनका एक जैसा भार होगा। एक जैसा व्यवहार होगा। सीधी सी बात है। ऐसा भी नहीं है कि हमें इसका इल्म न हो। यही कि बचपन में हर बच्चे को आस-पास से मिलने वाली जानकारी भिन्न मिलती है। वह अपने नज़रिए से चीजों को और धारणाओं को समझता है। अपना एक विचार बनाता है। अपना एक नज़रिया बनाता है।

    हर बच्चे का अपना अलग व्यक्तित्व होता है। हर बच्चे को अलग माहौल मिलता है। उसकी अपनी मां से भी और धर-परिवार से भी। समाज से भी। सहपाठियों से भी। हर बच्चे के लालन-पालन की परिस्थितिया भिन्न हो ही जाती है। हर बच्चे के प्रत्येक दिन में घटने वाली बातें-घटनाएं भिन्न होती है। हर बच्चा अपने जीवन में आने वाले लोगों को अपने ढंग से स्वीकारता है। अपने ढंग से बातों को आत्मसात् करता है। फिर हम बड़े ये क्यों चाहते हैं कि सभी बच्चे एक जैसा प्रदर्शन करें। एक जैसा व्यवहार करें। ये तो हास्यापद ही है कि यह सब जानते हुए भी हम बात-बात पर बौखला जाते हैं कि हमारा बच्चा पड़ोसी के बच्चे से अव्वल क्यों नहीं है। 

    हम बात-बेबात पर अपने बच्चों की तुलना दूसरे के बच्चों से करने लग जाते हैं? क्यों भला? ऐसा करके हम अपने बच्चे के सामने चुनौतियां नहीं रख रहे होत हैं, बल्कि उसे उसकी ही नज़रों में छोटा बना रहे होते हैं। उसे आत्मग्लानि और हीन भावना की ओर धकेल रहे होते है। इससे बढ़कर खुद से भी उसे दूर कर रहे होते हैं। 

    जब इस सृष्टि में ही पेड़-पौधों में विविधता है। मौसम में विविधता है। कोस-दर-कोस में वायु-जल-हवा तक में विविधता है। फिर हम बच्चों में विविधता को क्यों नहीं स्वीकार करते? आपको जवाब मिले या आपके पास जवाब हो, तो बताइएगा मुझे भी। प्रतीक्षा में रहूंगा।

चंपक जुलाई प्रथम 2013. 'चंपकवन भी हमारा है'

-Baal Kahaani. 'चंपकवन भी हमारा है'


मनोहर चमोली ‘मनु’

‘‘यह अच्छी बात है कि मनुष्य भोजन पकाकर खाता है। यह हम सभी के लिए अच्छा है। यदि मनुष्य भी हमारी ही तरह कीड़ेमकौड़े खाने वाला होता तो हम कब के मिट गए होते।’’ टिंकू सारस ने हंसते हुए कहा।

‘‘कैसी बात करते हो। कुछ मनुष्य शाकाहारी भी हैं तो कुछ मांसाहारी भी है। कुछ फलाहारी भी होते हैं। ऐसी बहुत सारी चीजें हैं जिन्हें मनुष्य कच्चा ही खाता है।’’ सीटू हंस ने कहा।
‘‘ये मैं भी जानता हूं। लेकिन हमारा भोजन तो छोटेमोटे जीव हैं। जलीय पौधे हैं। यदि मनुष्य भी यही भोजन करने लगे तो? सोचो। हमारा क्या होगा।’’ टिंकू सारस ने कहा।
‘‘हम्म। ये बात तो मैंने सोची ही नहीं। लेकिन टिंकू। तुम्हें आज अचानक ये क्या सूझ रहा है। तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि हम आज रात इस चंपकवन को छोड़कर अपने मधुवन की ओर उड़ान भरने वाले हैं। हजारों किलोमीटर की यात्रा करेंगे और अपने मधुवन पहंुच जाएंगे।’’ सीटू हंस ने तालियां बजाते हुए कहा।
टिंकू सारस ने लंबी सांस लेते हुए कहा-‘‘यार सीटू। हम हर साल चंपकवन आते हैं। 6 माह से अधिक चंपकवन की इस झील में रहते हैं। यहां खातेपीते हैं। अपने बच्चों का लालनपालन भी करते हैं। फिर एक दिन हम वापिस अपने मधुवन की ओर लौट जाते हैं।’’
सीटू हंस ने बीच में ही टोकते हुए कहा-‘‘तो क्या हुआ? यह हमारी मजबूरी है। यदि हम सर्दियों में चंपकवन नहीं आएंगे तो भूखे मर जाएंगे। हम कर भी क्या कर सकते हैं। सर्दियों में हमारे मधुवन में बर्फ पड़ जाती है। नदीझीलें जम जाती हैं। भोजन की तलाश में ही तो हम चंपकवन आते हैं। अब जब हमारे मधुवन का मौसम अच्छा हो गया है तो वापिस लौटने में हर्ज ही क्या है?’’
टीकू सारस मुस्करा दिया। धीरे से बोला-‘‘यही बात तो मुझे परेशान कर रही है।
‘‘कौन सी बात? मैं समझा नहीं।’’ सीटू हंस ने पूछा। टीकू सारस ने जवाब दिया-‘‘हमें चंपकवन का धन्यवाद देना चाहिए। सोचो। चंपकवन जैसे वन न हों तो हम कहां जाएंगे? हम यहां तभी तो आ पाते हैं जब चंपकवन के पशुपक्षी शांतिप्रिय हैं। चंपकवन की हवा, झील, यहां का मौसम ही नहीं सब कुछ हमारे अनुकूल है।’’
युवी किंगफिशर ने चोंच उठाते हुए कहा-‘‘हम्म यार। ये तो मैंने भी कभी नहीं सोचा। बात तो तुम्हारी सोचने वाली है। तुम ठीक कहते हो। हम तो लाखों की संख्या में चंपकवन आते हैं। वो भी हर साल। यदि चंपकवन के पशुपक्षी हमारा स्वागत करने की बजाए हमसे लड़नेझगड़ने पर उतारू हो जाएं तो हम कर भी क्या सकते हैं? चंपकवन में कभी भी हमसे किसी ने झगड़ा नहीं किया। हमेशा हमारा स्वागत ही किया।’’
सीटू हंस भी सोच में पड़ गया। फिर बोला-‘‘ये तो है। लेकिन टिंकू के सोचने भर से क्या हो जाता है। हम कर भी क्या कर सकते हैं। यदि मनुष्य भी हमारे जैसा भोजन करने लगे तो क्या हम उन्हें रोक सकेंगे? नहीं न? जो बात हमारे वश में ही नहीं उस पर विचार क्यों करें?’’
टिंकू सारस ने कहा-‘‘सीटू भाई। मैं हर साल चंपकवन आता हूं। मेरी तरह सैकड़ों प्रजातियों के पक्षी यहां आते हैं। लेकिन हर साल झील का पानी कम होता जा रहा है। पानी हर साल मैला होता जा रहा है। यही नहीं हमारे भोजन में जो विविधता थी, वो भी धीरे धीरे लुप्त हो रही है। हरेभरे वृक्षों में कमी आ रही है। चंपकवन भी सिमटता जा रहा है। तुमने कभी गौर किया?’’
युवी किंगफिशर बीच में ही बोल पड़ी-‘‘अरे हां। मैं भी यही सोच रही हूं। वाकई। यदि ऐसा ही चलता रहा तो हमारा क्या होगा? मैं तो यह भी सोच रही हूं कि क्या हम अगले साल चंपकवन को खुशहाल देख भी पाएंगे या नहीं।’’
टिंकू सारस लंबी सांस लेते हुए बोला-‘‘दोस्तों। बस यही चिंता मुझे सता रही है। काश ! मनुष्य हमारी भाषा समझ पाते तो मैं जरूर उनसे कहता कि वनों को कंकरीट का जंगल बनाने से हम जीवजन्तुओं का जीवन खतरे में पड़ता जा रहा है। हम नहीं रहेंगे तो मनुष्य भी नहीं रहेगा। हम पारिस्थितिकी की एक कड़ी है। यह बात मनुष्य भलीभांति जानता तो है पर न जाने क्यों वह अपनी आंखों में काली पट्टी क्यों बंाध रहा है?’’
सीटू हंस ने उदास होते हुए कहा-‘‘हां दोस्तों। आप सही कह रहे हैं। देखा जाए तो चंपकवन भी हमारा है। भले ही हम यहां लगभग 6 महीने ही रह पाते हैं। खैर अब चलने की तैयारी करो और चंपकवन को अलविदा कहो। सब कुछ अच्छा रहा तो अगले साल फिर आएंगे।’’
‘‘चलो दोस्तों। तैयारी करो।’’ टिंकू सारस और युवी किंगफिशर ने अपने दोस्तों को पुकारा और वे खुद चंपकवन के साथियों से मुलाकात करने चल पड़े।  000

22 जुल॰ 2013

बाज़ार इतना बदल गया है!

***आज फुर्सत मिली तो देहरादून का मशहूर बाज़ार 'पलटन बाज़ार' घूम गया.खूब घूमा..
मैं हाथ से घुमाने वाला लट्टू खोज रहा था..लकड़ी या प्लास्टिक के लट्टू तो मिल ही जायेंगे.ये सोच कर निकला था. 

हर दुकानदार कहने लगा-''भाई साब. किस जमाने के बच्चो के खिलोने मांग रहे हो.'' 
एक ने कहा-''अब हाथ के बने खिलोने बनते ही नही.'' 
मैंने कहा-''बनते तो होंगे लेकिन आपके पास नही हैं.यूज़ एंड थ्रो का ज़माना है.टिकाऊ चीजें रखनी ही क्यों हैं.क्यों.?''
वो बोंला-''पता नही आपके  बच्चे को कहाँ से होश आ गया. इतने पुराने खिलोने की मांग जो कर रहा है.''
मैं चुप हो गया.
सोचता हूँ कि बाज़ार इतना बदल गया है! बच्चे का क्या दोष..? 
वो तो खुद हाथ से कई चीजें घुमा रहा है.
सेल से चलने वाले लट्टू तो मैं कई बार ले गया.तोड़ डाले उसने.कई चीजों को वो खुद ही हाथ से घुमा घुमा कर शायद घुमने-घुमाने  की प्रक्रिया को समझने-जानने का जतन कर रहा होगा.
खैर.... अजीब-सा लगा तो आपसे साझा करने का मन हुआ.
आप क्या सोचते हैं.?

10 जुल॰ 2013

बात खास भी नहीं तो आम भी नहीं है


बात कोई खास नहीं है तो मेरी नज़र में आम भी नहीं है। मेरे शहर का व्यस्तम बाजार और उसका एक तिराहा है। इस तिराहे पर समाचार पत्र-पत्रिकाओं और स्टेशनरी की एक दुकान है। अक्सर मैं इस दुकान पर कुछ देर ठहरता हूं। 

आज शाम हुआ यूं कि दुकान के बाहर से एक मां अपने बच्चे के साथ गुजरती है। अचानक मां की नज़र दुकान पर खड़े किसी सज्जन पर पड़ती है। वह उन्हें प्रणाम करती है और फिर पैर छूती है। फिर अपने नौ या दस साल के बच्चे से कहती है कि ये सज्जन वो हैं। प्रणाम करो। बच्चे के हाव-भाव बताते हैं कि वह असहज महसूस कर रहा है। मां अपने दांये हाथ से बच्चे के बांये कांधे के पीछे से जोर देकर झुकाते हुए कहती है कि प्रणाम करो। लेकिन बच्चा और तन कर खड़ा रहता है। मां झेप जाती है। वह सज्जन भी बुरी तरह झेंप जाते हैं, जिन्हंे वह अपने बच्चे से प्रणाम करने की आशा कर रही है। थोड़ी देर संवादहीनता बनी रहती है। फिर वो मां सिर झुकाकर अपने बच्चे के पीछे-पीछे आगे बढ़ जाती है। 
कल शाम का एक दूसरा वाकया भी सुनाता चलंू। इसी जगह पर पैंतीलीस-छियालीस वर्षीया मेरी परिचित एक महिला मिली। सड़क के दांयी ओर किनारें पर खड़े होकर हम बात करने लगे। दो हमउम्र बच्चे जिनकी उम्र बारह-तेरह साल के आस पास रही होगी। दोनों अलग-अलग साईकिल लेकर हमारे आगे खड़े हुए। दोनों ने साईकिल हमारे ठीक आगे झुके हुए स्टेण्ड पर खड़ी कर दी। 
एक बालक तो वहीं खड़ा रहा और दूसरा सामान खरीदने बगल की दुकान पर चला गया। हवा चल रही थी। मैं सोच ही रहा था कि हवा के झोंके से कहीं साईकिल गिर न जाए क्योंकि वह हिलने लगी थी और बच्चों ने उसे तिरछे तरीके से खड़े होने वाले स्टैण्ड पर ही खड़ी की थी। साईकिल गिर ही गई। जो साईकिल गिरी,वह ठीक उस महिला के आगे खड़ी थी, जिससे मैं बात कर रहा हूं। दूसरा बच्चा गिरी हुई साईकिल को उठाने के लिए झुकते हुए महिला से कहता है-‘‘क्या आंटी यार। आप भी न। साईकिल गिरा दी यार।’’
मैं भी और वह महिला भी हैरान। वो तो कुछ कह नहीं पाई लेकिन मैं चुप नहीं रह पाया। मैंने कहा-‘‘एक तो बीचों-बीच साईकिल खड़ी कर रहे हो। फिर साईकिल कैसे गिरी, यह देखा भी या यूं ही हवा में कह रहे हो। फिर ये आंटी तुम्हारी यार है।’’
बच्चा कहने लगा-‘‘अंकल यार मतलब सिम्पल बोला जाता है।’’
मैंने फिर कहा-‘‘तो तुम घर पर भी अपनी मम्मी को-दादी को यार कहोगे। स्कूल में मैडम को भी?’’ यह सुनकर वह चुप हो गया।

अब आप कह सकते हैं कि यह तो कोई बात नहीं। आजकल के बच्चे ऐसे ही हैं। लेकिन आजकल के बच्चे ऐसे क्यों हैं? ये तो एक बानगी भर है। बच्चों को गौर से देखें। उनकी बातें सुनें। उनकी गतिविधियों को गहरे से अवलोकन करें तो बहुत कुछ अच्छा नज़र नहीं आएगा। आप कह सकते हैं कि पहले वाले किस्से में जरूरी नहीं कि बच्चा अपरिचित को प्रणाम करे। पैर छुए। लेकिन जब मां भी अदब से पैर छू रही है, तब? मां कह भी रही है कि बेटा प्रणाम करो। तब भी? क्या माता-पिता बच्चों में रिश्ते-नातों-परिचितों से कैसे पेश आना है,इसकी नसीहत भी न दें? आखिर बच्चा असहज क्यों हो रहा था? बच्चे का इतना अंतर्मुखी हो जाना ठीक है? आप कह सकते हैं कि यह जरूरी नहीं कि माता-पिता जिस परिवेश में रहते आए हैं, बच्चों को भी जबरन उसी में ढाला जाए। क्या जीव-जंतुओं में बच्चों को स्वछंद और उन्मुक्त छोड़ दिया जाता है, आज की नई पौध भी ऐसा चाहती है?
दूसरे वाकये में बीचों-बीच सड़क पर वह भी दांयी ओर साईकिल खड़ी करना ठीक था? आप कह सकते हैं कि आप भी तो दांयी ओर ही खड़े थे। दुकान बांयी ओर थी और महिला दांयी ओर खड़ी थी, मैंने ठीक समझा कि मैं ही उन महिला के पास जाकर बात कर लूं बजाए कि वह सड़क के बाई ओर आए। फिर उस छोटे से बच्चे का बिना जाने उसकी अपनी मां की उम्र से ज्यादा उम्र की महिला से ऐसे लहजे में बात करना ठीक था?
आप कह सकते हैं कि बच्चे हैं? बच्चे धीरे-धीरे ही समझते हैं। मानता हूं लेकिन जिस तरह वह गरदन झटक कर चेहरे पर भाव लाकर कह चुका था, वह मुझे नागवार गुजरा। मैंने फिर भी बातचीत को हल्का-फुल्का माहौल देने की कोशिश की। ताकि वह महसूस करे कि कुछ ऐसा घटा है जो ठीक न था। आप क्या कहते हैं। कुछ कहेंगे?

28 जून 2013

आजकल के बच्चे न तो कहानी पढ़ रहे हैं न ही सुन रहे हैं

‘आजकल के बच्चे न तो कहानी पढ़ रहे हैं न ही सुन रहे हैं।’

 ‘बालपत्रिकाएं भी सिमटती जा रही हैं।’ 

‘बच्चे कार्टून ही पसंद करते हैं।’


 इस तरह के जुमले आए दिन सुनने को मिलते हैं। लेकिन यह तसवीर आधी-अधूरी है। हाल ही में मुझे तेरह से अठारह साल के लगभग एक सौ से अधिक बच्चों के साथ एक दिन बिताने का मौका मिला। यह बच्चे चार अलग-अलग सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले या पढ़ चुके बच्चे थे। कहानी लेखन एक दिन में तो हो नहीं सकता था। फिर भी मैंने कोशिश की कि बच्चों के साथ कहानी कला पर औपचारिक बात की जा सके। मैंने प्रख्यात लेखक रामदरश मिश्र की कहानी ‘पानी’ का खुद सस्वर वाचन किया। मैंने कोशिश की कि सभी बच्चों को कहानी के संवाद उसी लहज़े में सुनाई दें, जिस लहज़े में वे कहानी में कहे गए हैं। आप भी कहानी की कथावस्तु पढ़ लीजिए। 
'पानी' कहानी में मंगल और उसके बेटे रामहरख को रास्ते में साइकिल से गिरे परमेसर बाबू बेहोश पड़े हुए मिलते हैं। रामदेव गांव में ऊंची जाति के बड़े काश्तकार हैं। गांव के हर बड़े-छोटे उनकी चैपाल पर आकर बैठते हैं। परमेसर बाबू उन्ही का बेटा है। मंगल और उसका परिवार बरसों से रामदेव के यहां बेगार करता रहा है। तंग आकर जब मंगल ने रामदेव की हलवाही छोड़ दी तो गुंडों ने लाठी से पीटा अलग और उनकी झोपड़ी उजाड़ दी थी। ठाकुर बामन और छोटी जात का मसला गांव में है। रामहरख शहर में पढ़ने लगा है। वह पुरानी बात याद कर अपने पिता को परमेसर बाबू को इसी हाल में रहने देने के लिए राजी कर देता है और दोनों आगे बढ़ने लगते हैं।  फिर भी मंगल को लगता है कि प्यासा तड़प रहा कोई जानपहचान के आदमी को यूं ही छोड़कर आगे बढ़जाना अधर्म है। वह लौट पड़ता है और रामहरख भी पीछे-पीछे लौट पड़ता है। 

बेहोश परमेसर पानी मांगता है। जून की दोपहरी में अब पानी कहां से लाया जाए। उनके पास लोटा-डोरी था और पास में कुआं भी था। रामहरख कहता है कि एक तरफ इन्सानियत है और दूसरी तरफ उनकी छोटी जाति। अब क्या करें। मंगल जवाब देता है कि इन्सानियत जाति से बड़ी होती है। रामहरख कुएं से पानी भर कर ले आता है। फिर दोनांे उसे पानी पिलाते हैं। यही नहीं दोनों उसे किसी तरह उनके घर पहुंचाते हैं। 

रामदेव बाबू पूजा में बैठे हुए थे। दरवाजे पर गांव के कई लोग थे। पूछा तो मंगल ने सारा किस्सा सुना दिया। पानी का नाम सुनकर रामदेव खड़े हो जाते हैं और दोनों को धर्म नष्ट करने की बात कहते हैं। गुस्से में आकर वह मंगल पर अपनी खड़ाऊं खींच कर दे मारते हैं। रामहरख प्रतिकार करता है। रामदेव दाण्ेनों को भाग जाने की सलाह देता है।तभी परमेश्वर बाबू दोनों को अपने पास बुलाने की बात कहते हैं। वह मंगल को चाचा कहकर संबोधित करता है। ठाकुर रामदेव चिल्लाता है। रामदेव बहस करने लगता है और कहता है कि जान बचाने वाले के लिए यदि इस घर मंे कोई जगह नहीं है तो मैं भी इस घर में नहीं रह सकता।

 बुखार से तप रहा परमेश्वर धम्म से खाट पर से नीचे गिर पड़ता है। रामदेव का पुत्र मोह जागता है और वेदना भरी निगाहों से वह मंगल और रामहरख को देखता है। मंगल ओर रामहरख चुपचाप अपने रास्ते की ओर चल पड़ते हैं।  


मैंने इस कहानी का चयन बस इस लिहाज़ से किया था कि इसके वाक्य सरल हैं। पात्रों के लिहाज़ से भी यह मुझे उचित लगी। पृष्ठभूमि भी ग्रामीण थी। कहानी को पूर्व में पढ़ते समय मैंने अनुमान लगाया था कि बच्चों के साथ कहानी पर बातचीत शुरू करने में संभवतः थोड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

कहानी पढ़ लेने के बाद जब मैंने बच्चों से यह कहा कि अब इस कहानी पर बातचीत करनी है। एक-एक कर कई बच्चे अपनी बात रखने को आतुर दिखे। बताता चलूं कि अभी मैंने कहानी के शिल्प पर या कहानी की विशेषताओं पर कोई बात नहीं की थी। मैंने बच्चों के साथ चार घण्टे बिताए। बच्चों ने अंत में कई सारी कहानियों की विषयवस्तु मुझे बताई, जिसे वे कहानी की शक्ल देना चाहते हैं। लेकिन इससे अच्छा बच्चों को कहानी सुनना ज्यादा पसंद आता है। वे कहानियों पर तर्क करना चाहते हैं। अपने विचार व्यक्त करना चाहते है। 

बच्चों के पास अपना नजरिया होता है। वह इतना ठोस और तर्क से भरा होता है कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि जीवन को बच्चे भी बेहद गहराई से देखते हैं। महसूस करते हैं। मैं इस नतीजे पर पहूंचा हूं कि बच्चे चाहते हैं कि वे कहानी सुने और पढ़ें। वे यह भी चाहते हैं कि उनकी बात को सुना जाए। जब वे इतना सब चाहते हैं तो लिखना भी चाहेंगे। मैं जो थोड़ा बहुत बच्चों की मनःस्थिति को समझ पाया हूं, उनमें कुछ आपके सामने रखने की कोशिश करता हूं। 

ऽ    कहानी का कथ्य अच्छा हो और कहन स्पष्ट हो तो श्रोता अंत तक कहानी को धैर्य से सुनते हैं।

ऽ    कहानी यदि सरल और सहज हो। संवादांे में पिरोई हुई हो, तो श्रोता को आनंद आता है। 

ऽ    कहानी यदि किसी घटना या आकस्मिक कही गई रोचक बात से शुरू हो तो रोचकता बनी रहती है। 

ऽ    कहानी के पात्रों में यदि असहमतियां हों, विचारांे मंे भिन्नता हो तो जिज्ञासा बनी रहती है। 

ऽ    कहानी का परिवेश कुछ ऐसा हो कि श्रोता उसके देश काल और परिस्थितियों की कल्पना करने लगें तो कहानी पर बातचीत की संभावना बढ़ जाती है।

ऽ    कहानी के पात्रों के नाम और उनका स्वभाव भी चित्रित हो, तो रोचकता बनी रहती है। 

ऽ    भले ही कहानी सीधी और सपाट रास्ते से चल रही हो, लेकिन कहानी की कथा में जिज्ञासा बनी रहे तो कहानी की लोकप्रियता में कोई संशय नहीं हो सकता। 

ऽ    कहानी में कोई प्रकरण,बात,मुद्दा या पात्र केन्द्र में हो तो श्रोता कहानी के विविध पक्षों पर विचार करने लगता है। 

ऽ    कहानी में हर पात्र के चरित्र का चित्रण उसके संवादों से ही उभरे तो श्रोता को सीख देने और समझाने का भाव नहीं आता। श्रोता चरित्रों के आचरण और बातचीत से ही उनके गुणों का आकलन कर लेते हैं। 

ऽ    कहानी के शीर्षक पर श्रोता अपनी बेहतरीन राय देते हैं। एक कहानी के कई शीर्षक श्रोता रखे गए शीर्षक से अच्छा सुझा पाते हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि श्रोता कहानी को गहरे से आत्मसातृ कर रहे होते हैं। यह जरूरी नहीं कि लेखक ही कहानी का सबसे सटीक और अंतिम शीर्षक रखने में माहिर हो।

ऽ    श्रोता कहानी के बाद बड़ी आसानी से और विचार कर पात्रांे के व्यवहार मंे गुण-दोष निकाल लेते हैं। वह यह भी सुझा देते हैं कि फलां पात्र को ऐसा नहीं कहना चाहिए था। फलां पात्र को ऐसा नहीं करना चाहिए था।

ऽ    श्रोता हर कहानी के सामाजिक यथार्थ का भी आकलन कर लेते हैं। कई बार लेखक के द्वारा किसी चरित्र के साथ भरपूर न्याय होता-सा नहीं दिखता। श्रोता कहानी के आगे की कहानी भी गढ़ लेते हैं। यह कहानी की सफलता ही मानी जानी चाहिए कि कहानी के अंत हो जाने के बाद भी श्रोता कहानी के भीतर और कहानियों को खोज लेते हैं और चर्चा में उसे रेखांकित करते हैं। 

ऽ    श्रोता कहानीकार से यदि पात्र ऐसा कहता, यदि कहानी में कुछ ऐसा हो जाता तो कैसा होता। ऐसी कई संभावनाओं को तार्किकता के साथ रखते हैं। यह बेहद महत्वपूर्ण है। यह जरूरी नहीं कि जब कहानी रची गई हो, तब भी और अब भी जब कहानी पढ़ी या सुनी जा रही हो, में समाज मंे सामाजिक-राजनैतिक और परम्परागत संस्कार एक जैसे रहे हों। दूसरे शब्दों में कहानी कभी मरती नहीं। हां उसके मायने आज के सन्दर्भ मंे कुछ बदल जाते हैं। या यह भी संभव है कि यदि कथा यथार्थ से मेल नहीं भी खाती है तो श्रोता उस देशकाल और परिस्थितियों की कल्पना कर लेते हैं। यह कहानी की विशेषता मानी जानी चाहिए। 

ऽ    तमाम मत-मतांतर के और कहानीकार की विहंगम दृष्टि के बाद भी श्रोता कहानी से जो आनंद ले पाया है उसे हमेशा संदेश-सीख और निष्कर्ष के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। हम आज जो कहानी एक समूह में सुनाते है वही कहानी कल किसी दूसरे समूह में सुनाते हैं तो एक ही कहानी पर जुदा-जदुा राय-मशविरा सामने आते हैं। लेकिन श्रोता की राय से हर बार इत्तफाक न रखना भी ठीक नहीं है। 

ऽ    श्रोता यह जानते हुए भी कि कहानी काल्पनिक हो सकती है। कहानी आनंद के लिए होती है। कहानी में जरूरी नहीं कि सब कुछ वास्तविक सा हो। फिर भी श्रोता चाहते हैं कि कहानी में आदर्शात्मकता से अधिक कुछ तो यथार्थ का अंश हो। यानि अधिकतर श्रोता चाहते हैं कि कहानी में किसी भी पात्र के साथ अन्याय न हो। इसका अर्थ यह हुआ कि कहानी मानवीय मूल्यों की रक्षा करती हुई होनी ही चाहिए। 
सही भी है कि यदि दुनिया में नैतिकता और मानवता ही न रहे तो यह समाज मानव समाज कहां कहलाएगा। लेकिन श्रोता इसे ठूंस गए जबरन थोपे जाने वाली शैली से स्वीकार करना नहीं चाहते।  

कुल मिलाकर यह कहना गलत न होगा कि हम बड़े बिना बच्चों से गहराई से बात किये बिना बालसाहित्य की दिशा और दशा पर विद्धता भरे विचार व्यक्त कर देते हैं। 
मुझे लगता है कि बालसाहित्य का भविष्य उज्जवल है और बच्चे साहित्य से विमुख हो ही नहीं सकते।

26 जून 2013

उत्तराखण्ड के जनपद उत्तरकाशी में आयोजित राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी

     राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी 
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उत्तराखण्ड के जनपद उत्तरकाशी में आयोजित राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी में शामिल होने का मौका मिला। यह संगोष्ठी बाल प्रहरी और अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन के तत्वाधान में सम्पन्न हुई। सात जून से प्रारम्भ हुई यह संगोष्ठी 9 जून 2013 को समाप्त हुई। बाल प्रहरी की बाल साहित्य संगोष्ठी में पहली बार शामिल होने का अवसर मिला। अच्छा लगा। तीन दिवसीय संगोष्ठी में बाल साहित्य में विज्ञान लेखन, बाल साहित्य में बाल पत्रिकाओं का योगदान, बालसाहित्य एवं शिक्षा, बाल विज्ञान कथा विश्लेषण के साथ-साथ अप्रत्यक्ष तौर पर बाल कविता पर भी चर्चा हुई।
अजीम प्रेमजी फाॅउण्डेशन के सहयोग से यह संगोष्ठी सम्पन्न हुई। बाल साहित्य में विज्ञान लेखन सत्र बेहद महत्वपूर्ण रहा। किन्तु इस सत्र में व्यापक बहस और चर्चा की आवश्यकता महसूस की गई। सभी सत्रों में दो-दो बाल साहित्यकारों को सत्रों पर अपनी बात रखने का अवसर दिया गया था। फिर अध्यक्षीय संबोधन भी था, किन्तु समयाभाव के कारण प्रत्येक सत्र में विशेषज्ञों और अध्यक्षीय संबोधन में अधिक प्रकाश डालने के कमी अवश्य खली। खुला सत्र में पर्याप्त समय के अभाव के चलते कई प्रश्न और जिज्ञासा बंद रह गए। उपस्थित बाल साहित्यकार हर सत्र में अपनी बात रखना चाह रहे थे, लेकिन सत्र संचालकों ने खुले सत्र को भी तीन चार प्रश्नों तक ही समेट दिया। कारण स्पष्ट था कि अगले सत्र के प्रारम्भ होने की भी चिंता थी।
इसके साथ-साथ एक बात और देखने को मिली कि संबंधित सत्रों के लिए पृच्छा विषय से इतर अनावश्यक अधिक रही। अपनी बात कहने वाले और प्रश्न पूछने वाले सहभागी विषय से भटकते रहे। यही कारण रहा कि अपेक्षित समय भी अनावश्यक चर्चाओं में जाया हुआ। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आगामी संगोष्ठियों में विभिन्न सत्रों के चलते एक मुख्य सत्र ही रखा जाए।
    यदि उपरोक्त सत्रों के हिसाब से नये और उदीयमान बाल साहित्यकारों की सहभागिता देखी जाए और निष्कर्ष के रूप में कुछ सार निकाला जाए तो संभवतः कोई भी सत्र अपने सार-निष्कर्ष तक नहीं पहंुच पाया। यानि हर सत्र के विषय और गंभीर चर्चा और बहस की दरकार रखते थे।
अमूमन संगोष्ठियों में ऐसा ही होता है, लेकिन व्यवस्थित और समयपूर्व यदि तैयारी हो तो सत्रों के विशेषज्ञों के विचार लिखित में सहभागियों को बंट जाएं। इससे सहभागी भी अपनी पूर्व धारणा और एक्सपर्ट के विचारों से मानसिक रूप से जुड़ सकते हैं और बहस-चर्चा के उपरांत एक राय तक पहुंच सकते हैं। संभव है कि कई बार विशेषज्ञों का आना ऐन वक्त पर टल जाता है, तो दूसरे विकल्प पर भी आयोजकों को विचार कर लेना चाहिए।
एक बात और है कि सहभागी भी कई बार मूल चर्चा-प्रश्न-बहस से इतर भटक कर चर्चा को नई और अतार्किक बहस की और ले जाते हैं। कई बार सहभागियों की इच्छा यह भी रहती है कि उन्हें भी सुना जाए, उनके काम और उपलब्धियों पर भी रोशनी पड़ जाए। लेकिन किसी समयबद्ध और तय सत्रों के मध्य ऐसा कर पाना और ऐसा हो पाना संभव नहीं होता।
    मुझे तो ये लगता है कि या तो संगोष्ठियों में सभी सहभागी अपना जीवन वृतांत और उपलब्धियों का विवरण सहभागियों की संख्या के अनुसार छायाप्रति लेकर आएं और सबको बांट दे। या फिर आयोजक ऐसा स्लाइड शो तैयार करे जिसमें उपस्थित सभी सहभागियों का विवरण सब देख लें। अधिकतर संगोष्ठियों में सहभागी सुनने कम सुनाने ज्यादा लगते हैं। वह भी विषय से हटकर और उद्देश्यविहीन बातों पर समय बिताने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि मुख्य सत्रांे के गंभीर व्याख्यान सारगर्भित होते हुए भी अपना वह असर नहीं छोड़ पाते जो उन्हें तय करते समय संभवतः आयोजकों ने सोचें हों या जिनकी संभावना रही हो। 
संगोष्ठियों को विधावार भी होना चाहिए। बाल कवि, बाल कथाकार को भी चाहिए कि वाह बाल नाटककार को सुने। महसूस करे। अन्य विधाओं पर भी संगोष्ठी हो सकती है। बालसाहित्य पर चर्चा विहंगम दृष्टिकोण चाहती है। अच्छा हो कि हम कहानी, कविता, नाटक, डायरी लेखन, उपन्यास, आदि विधाओं को अलग-अलग संगोष्ठियों का हिस्सा बनाएं। एक तो सहभागी अधिक हो सकेंगे और विशेषज्ञ कम। दूसरा अन्य विधाओं से भी परिचय हो सकेगा। अक्सर बाल साहित्यकार कविता और कहानी में खुद को बेहतर समझते हैं और इस पर अपनी अच्छी पकड़ मानकर चलते हैं। जबकि हम सब जानते हैं कि सीखने-जानने और खुद को तराशने की संभावना हमेशा बनी रहती है।
विषम परिस्थितियों में और उत्तरकाशी में तीन दिवसीय आयोजन होना अपने आप में उपलब्धि है। बाल प्रहरी के साथ-साथ अजीमप्रेमजी फाउण्डेशन भी और दूर-दूर से आने वाले बाल साहित्यकार बधाई के पात्र हैं।
संगोष्ठी में उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश, बिहार , राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली, झारखण्ड, गुजरात राज्यों के सौ से अधिक बालसाहित्यकारों एवं साहित्यप्रेमियों ने सहभाग किया। दस से अधिक बाल साहित्य पर केन्द्रित पुस्तकों का विमोचन भी किया गया। बाल साहित्य संस्थान, अल्मोड़ा द्वारा संग्रहीत नई-पुरानी बाल साहित्य पत्रिकाएं प्रदर्शनी में अवलोकनार्थ भी रखी गईं। बाल साहित्यकारों ने बाल कविताओं पर आधारित कवि सम्मेलन में भी सहभाग किया। बाल साहित्यकारों में प्रमुख रूप से डाॅ0 राष्ट्रबंधु, मुरलीधर वैष्णव, गुरुवचन सिंह,राजेश उत्साही, डाॅ0रामनिवास ‘मानव’, रमेश तैलंग, डाॅ0हरिश्चन्द्र बोरकर, गोविन्द भारद्वाज, डाॅ0 भैरूलाल गर्ग, डाॅ महावीर रंवाल्टा, डाॅ0 परशुराम शुक्ल, डाॅ0मधु भारतीय, डाॅ0अशोक गुलशन, मुरलीधर पाण्डेय, डाॅ प्रीतम अपच्छयाण, रेखा चमोली, विमला भण्डारी, अमरेन्द्र सिंह, खजान सिंह, डाॅ शेषपाल सिंह शेष, अखिलेश निगम, देश बन्धु शाहजहां पुरी, दयाशंकर कुशवाहा, गोविन्द शर्मा, रतन सिंह किरमोलिया, नीरज पंत, प्रमोद पैन्यूली, मंजू पाण्डे उदिता, जगमोहन कठैत, जगमोहन चोपता,  उदय किरौला, नवीन डिमरी बादल, मोहन चैहान, सतीश जोशी, प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’ (सभी के नाम शामिल न करने का खेद है) आदि ने विभिन्न सत्रों में अपने विचार भी व्यक्त किये।
000 मनोहर चमोली ‘मनु’
काण्डई,पोस्ट बाॅक्स-23,पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड 246001.
सम्पर्कः 09412158688.
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25 मई 2013

गुल्लक रखने की परंपरा कहीं न कहीं जीवित तो है।

रिश्तेदारी में एक विवाह है। बारातियों के स्वागत-सत्कार के लिए सफेद लिफाफों में जो नये नोट देने का रिवाज है, उसके लिए नये नोटों का बमुश्किल से प्रबंध हुआ। 
 
अब समस्या हुई कि एक-एक रुपए के नोट कहां से लायें। मिले ही नहीं। सिक्कों का मिलना भी दूभर है आजकल। सब परेशान हो गए। लगभग एक-एक रुपए के छह सौ सिक्के अब आएंगे कहां से? आटो वालों से, सिटी बस वालों से भी बमुश्किल 100 सिक्के ही इकट्ठा हो पाये। 
 
अचानक मुझे सूझा कि जिन घरों में बच्चे हैं, वहां सिक्के होंगे। गुल्लक मांगे जाएं। बस फिर ढूंढ-खोज शुरू हो गई। 
 
एक घर से 150 दूसरे घर से 100 और तीसरे घर से 250 रुपये के सिक्के मिल गए। अच्छा लगा कि गुल्लक रखने की परंपरा कहीं न कहीं जीवित तो है। 
 
भले ही यह परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। आप क्या कहते हैं? 

16 मई 2013

प्रकाशित-अप्रकाशित रचना के बारे में.

प्रकाशित-अप्रकाशित रचना के बारे में

1. मुझे लगता है कि सबसे पहले तो रचना महत्वपूर्ण है न कि संपादक और न ही वह पत्रिका या पत्र, जिसने रचना को सबसे पहले छापा है। तो क्या कोई रचना एक बार छप जाने पर दोबारा छपने लायक नहीं रह जाती?
2. पाठक लगातार बनते हैं, छूटते भी हैं। नये पाठक जुड़ते हैं। यह क्या बात हुई कि जो रचना एक बार कहीं छप गई उसे दोबारा कहीं ओर न छापा जाए। क्यों? बाल रचनाआंे के बारे में ही क्या सभी प्रकार की रचनाओं पर यह नियम लागू क्यों हो? एक तो हर पाठक हर पत्रिका नहीं पढ़ता और न ही हर पत्र उसके घर में आता है। कई बार तो एक ही पत्रिका के एक-दो अंक अमूमन हर किसी से या तो छूट जाते हैं या पाठक भूलवश या अन्य कारण से खरीद नहीं पाता। तब? तब यदि उसे रचना किसी दूसरी पत्रिका में पढ़ने को मिल जाए तो दिक्कत क्या है?

3. एक बात जो हमारे खुद के अनुभव से भी जुड़ी है और पुष्ट होती है कि पहले रचनाकार महत्वपूर्ण है, जो रचना का जन्मदाता है। वो संपादक या वह पत्र-पत्रिका जो यह बंदिश लगाते हैं कि आप हमें अप्रकाशित रचना ही भेजें। क्या यह जरूरी है कि अप्रकाशित रचना ही पढ़े जाने योग्य होगी? संभव है कि नहीं भी। यह भी कि यदि कोई रचना सार्वभौमिक हो जाए तो उसका दायरा सीमित करने का अधिकार किसी को भी क्यों दिया जाए?
4.रचना कालजयी हो सके, पाठक के मन-मस्तिष्क में गहरे पैठ बना सके। इसके लिए रचनाओं की संख्या नहीं उसकी ग्राह्यता महत्वपूर्ण है। रचनाकार कोई मशीन तो है नहीं जिसकी कलम से बाजार की मांग के अनुसार नित नई रचनाएं पैदा होती रहें। भले ही कम रची जाएं पर वो लोकहित में हो। लोक जीवन में पसंद की जा सकें।
5. अप्रकाशित रचना का नियम वहां तक तो ठीक है जहां पत्र-पत्रिका सम्मानजनक मानदेय देते हों। आप औसत मानदेय भी नहीं दे रहे हैं और वो भी पाबंदी के साथ। उस पर तुर्रा यह कि जी हमें अप्रकाशित ही भेंजे। भेजने के बाद आप रचनाओं को साल-साल भर तक रोक कर रखें।
6. अप्रकाशित रचना भेजने के सन्दर्भ में यह तर्क देना कि पाठक रुपये खर्च कर के पत्रिका खरीदता है उसे बासी या पुरानी रचना दोबारा क्यों परोसी जाए। ऐसा मान लेना कुछ हद तक ठीक ह,ै लेकिन यह पैमाना कहां तक ठीक है कि पाकीजा या दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे मैंने तो देख ली है फिर सिनेमा में दोबारा क्यों लगे?
7.यहां यह कहना आवश्यक है कि संपादक या कोई पत्र या कोई पत्रिका इस मुगालते में क्यों रहे कि उसने कोई रचना पहले छाप दी है तो बस अब वह रचना उसकी हो गई या दूसरों के लिए बेकार हो गई। अगर रचना बोलती है। रचना महत्वपूर्ण है तो वह कहीं भी बार-बार छपे, उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। प्रेमचंद की कई कहानियां इसकी गवाह हैं। यह भी कि अच्छे गाने बार-बार सुने जाते हैं। ठीक उसी प्रकार अच्छी रचना बार-बार पढ़ी भी जानी चाहिए। संपादक यदि किसी रचना को पहले पढ़कर यह जान भी चुका है कि यह रचना उसने किसी ओर पत्रिका में पढ़ ली है तो अपने यहां ससम्मान जनक स्थान देने पर वह घिस नहीं जाएगा। रचनाकार के लिए यह और सम्मानजनक स्थिति होगी और संभव है कि रचनाकार स्वयं से ही संपादक को नितांत अप्रकाशित रचना भेजने के लिए कटिबद्ध हो जाए।
8. कुछ पत्र और पत्रिकाएं रचनाओं के लिए कोई नियम नहीं थोपती। यह अच्छी बात है। लेकिन इसका यह अर्थ कहां हुआ कि उन्हें प्राप्त सभी रचनाएं प्रकाशित ही होंगी। छपी हुई रचनाएं यदि उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए बहुपयोगी होगी तो छपती हैं। यह भी कि यदि अप्रकाशित रचनाएं बहुपयोगी नहीं होती तो कौन सा वह भी छपती ही हैं? हां सकारात्मक बात यह है कि हर पत्र को और पत्रिका को और संपादक को चाहिए कि वह ध्यान रखे कि उनके पाठक को जायका बासी न लगे और यह भी कि नित नये जुड़ने वाले पाठक यह आश्वस्त हो जाएं कि अनमोल और धरोहर के साथ-साथ नई-ताज़ी रचनाएं भी उन्हें पढ़ने को मिल रही है।
 
 
आप क्या कहते हैं इस बारे में? बताएंगे तो मुझे भी एक राह मिल जाएगी।

11 मई 2013

कठिन से कठिन समस्याओं का समाधान गारंटी से

कठिन से कठिन समस्याओं का समाधान गारंटी से

यदि मैं आप से कहूं कि एक रास्ता है, जिस पर चलकर 'कठिन से कठिन सभी समस्याओं का समाधान गारन्टी से किया जाता है' तो आप हैरान  जरूर हो जाएंगे। है न? 
 
मैं खुद हैरान हूं कि भला ऐसा कैसे हो सकता है। सुबह अखबार में एक इश्तहार नत्थी मिला। जिस पर्चे में लिखा था कि कारोबार का न चलना, लाभ, हानि, नौकरी, पद, स्थान, तबादला, विवाह, सम्बन्ध, विदेश यात्रा में रूकावट वशीकरण, ऊपरी असर, जादू-टोना, किया-कराया, गन्दी हवा, देवता बन्धन, सन्तान का न होना, गृह कलेश, कन्या ही कन्या होना, मुकदमा अदालत, दवाई का असर न होना,पुराने से पुराना कष्ट आदि समस्याओं का समाधान व उपाय मन्त्र-तन्त्र द्वारा विधि पूर्वक गारन्टी से किया जाता है। बाकायदा मोबाइल नम्बर पर्चे मे छपा है। मिलने का स्थान एक होटल है। हर दिन मिलें। ऐसा लिखा गया है। ये सब ज्योतिष विद्या द्वारा चमत्कार के रूप में किया जाएगा। 
 
 
मैंने पर्चे को दो बार पढ़ा। हंसी आ गई। दुख भी हुआ और गुस्सा भी आया। इस इक्कीसवीं सदी में भी कुछ लोग ठग विद्या से दूसरों को गुमराह कर पैसा कमा रहे हैं। सोच रहा हूं कि ये जो भी हैं। हर जगह हैं। अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं। अपने बच्चों को भी इसी लूट-पाट-ठगी के क्षेत्र में ले जाएंगे?
 
 काश...! इन ठगों के बच्चे भी यदि कहीं ठगे जाएं तो इन्हें पता चले कि किसी को ठगना किसी पाप से कम नहीं है। यह कहना कि इनके बच्चे भी ठगे जाएं का आशय सिर्फ इतना है कि कम से कम नई पौध इस कुत्सित कुव्यवसाय को अपना रोजगार कदापि न बनायें। 
आप क्या कहते हैं?

9 अप्रैल 2013

किशोरियों ने कहा 'लड़की' ही बनना है


किशोरियों ने कहा 'लड़की' ही बनना है

-मनोहर चमोली ‘मनु’

हम और आप मानते हैं कि लिंग भेद धीरे-धीरे घट रहा है। लेकिन सचाई कुछ और है। यह भी मुमकिन हो कि हर बात को लिंग भेद से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन फिर भी सूचना तकनीक के अति उपभोक्तावादी इस युग में यदि पंचानबे फीसद किशोरिया यें कहें कि वे अगले जनम में भी ‘लड़की’ ही बनना चाहती हंै तो आप चैंकेंगे जरूर। जी हां। 
यह किशोरियां ‘समाचार पत्रों में लेखन’ विषयक कार्यशाला में उत्तराखण्ड के गढ़वाल जनपद के सुदूर विकासखण्डों से बतौर सहभागी आई थीं। बतातें चलें कि यह किशोरियां कक्षा आठ से लेकर स्नातक में पढ़ने वाली थीं।
 
पहाड़ के पहाड़ी जीवन की जीवटता किसी से छिपी नहीं है। यहां सूरज के साथ-साथ घर के काम शुरू हो जाते हैं और रात के गहरा जाने तलक भी वे अनवरत् चलते रहते हैं। घर का हर सदस्य छोटा हो या बड़ा। अपनी क्षमतानुसार घर और बाहर के काम अपने हाथ में ले लेता है। सूचना तकनीक के साधन भी यहां पहुंच गए हैं। सिर पर घास का आदमकद बोझा भी है तो हाथ में मोबाइल भी। खेत में काम करती महिलाएं हों या मवेशियों को चराने जाती किशोरियां। हर हाथ में मोबाइल दिखाई देता है। घर में बिजली के उपकरणों के साथ-साथ मनोरंजन के सभी साधन और तरीके भी पहाड़ में पहुंच गए हैं।

एक दशक पहले घर आए स्वामी को मोटर मार्ग तक छोड़ने गए परिवार के सदस्य सिसकते हुए कहते थे-‘‘पहुंचते ही चिट्ठी लिखना। राजीखुशी देते रहना।’’ आज भी घर आए स्वामी को परिवार के सदस्य छोड़ने सड़क तलक आते हैं। लेकिन अब कहते हैं-‘‘पहुंचते ही फोन कर देना।’’
 
सोचा तो था कि तेजी से बदल रहे गांव की किशोरियां भी नए तरीके से सुविधाभोगी जीवन को आत्मसात् कर चुकी होंगी। तीन दिवसीय ‘समाचार लेखन’ कार्यशाला में किशोरियों ने उम्मीद से अधिक क्षमता का प्रदर्शन तो किया ही। तीसरे दिन जब उनसे पूछा गया कि कल्पना करें कि यदि दूसरा जन्म भी मिले और उन्हें यह विकल्प भी मिले कि लड़का बनना है या लड़की। तो वे क्या बनना चाहेंगी और क्यों?
 
सत्तर सहभागियों में मात्र तीन किशोरियों ने लिखा कि वे लड़का बनना चाहती हैं। सड़सठ किशोरियों ने सकारण सहित लिखा कि वे लड़की ही बनना चाहेंगी। लड़का बनने की चाह वाली तीन लड़कियों ने कारणों में यही लिखा था कि उन्हें वे सब करने की आजादी मिल सकेगी जो लड़की के रूप में नहीं मिल पाती। वे असीम ऊंचाईयों को छूने के लिए लड़का बनना चाहेंगी।

‘अगले जन्म में लड़की ही बनूंगी‘ के पक्ष में जो तर्क दिए गए थे, वे आज के युग में भी चैंकाने वाले हैं। एक बात और समझ में आई कि भले ही तथाकथित बुद्धिजीवी ये कहें कि लालन-पालन के समय लड़कियों की कंडीशनिंग ही ऐसी की जाती है कि वे अपने दायरे से बाहर नहीं सोच पाती। लेकिन यह दावा यहां खोखला नज़र आया। 

किशोरियों ने बेबाकी से अपने आस-पास के और अपने घर में भोगे गए जीवन के आधार पर लड़की बनना ही पसंद किया। यह पूछे जाने पर कि क्या लड़की के रूप में यह जन्म नाकाफी है? इस पर एक किशोरी ने कहा-‘‘यह जीवन तो लड़की आखिर है क्या। यह समझने में निकल जाएगा। दूसरे जीवन में लड़की क्या नहीं कर सकती। यह कर दिखाने का भरपूर मौका मिलेगा न।’’

बहरहाल सत्तर सहभागियों की सारी टिप्पणियों में कुछ सार रूप में यहां दी जा रही हैं। ये टिप्पणियां उन्होंने लड़की बनने के पक्ष में दी हैं।
अगले जन्म में 'लड़की 'ही बनना है।
  •   लड़की ही है जो दो-दो घर संभालती है। माता-पिता के लिए कुछ कर गुजरने के लिए लड़की ही बनना है।
  •   लड़के अधिकतर जीवन मस्ती में बिताते हैं। या फिर अपने लिए सोचते हैं। उन्हें परवाह नहीं होती कि मातापिता कैसे जी रहे हैं। परिवार के सदस्य कैसे रह रहे हैं। सो लड़की ही बनना है। लड़की रहकर हम परिवार के बनाते हैं और संभालते हैं।
  •   लड़की ही बनना है क्योंकि लड़की लड़के से हर क्षेत्र में बेहतर होती हैं। वे सुलझी हुई होती हैं। किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती। लड़कियां स्वार्थी नहीं होती।
  •   लड़की ही बनना है। इस जन्म में तो देख लिया है कि हम क्या क्या कर सकते हैं। यदि नहीं कर पाई तो अगला जन्म लेकर वे सब कर सकूंगी और दुनिया को दिखा दूंगी कि लड़की है तो जीवन है।
  •   लड़की ही है जो मां बन सकती है। लड़कों में मां बनने की क्षमता है ही नहीं। विज्ञान कुछ भी कर ले। सहनशीलता और धैर्य हम लड़कियों से कोई नहीं छीन सकता।
  •   लड़की का आभूषण लज्जा नहीं निर्माण है। वह विकास की सीढ़ी है। मैं लड़की ही बनूंगी।
  •   लड़की है तो यह कायनात है। हम रक्तबीज हैं। हमसे ही दुनिया है। हम दुनिया से नहीं हैं। यह बात लड़कों को समझनी चाहिए। हमारा सम्मान करना ही समाज का सम्मान करना है।
  •   लड़का बनने के पीछे क्या आधार हो सकता है। मौज-मस्ती। आराम। यदि हम लड़कियां घर से मजबूत हों तो हम भी वह सब कर सकते हैं जो लड़के कर सकते हैं। यह दुनिया हम सबकी है। लड़कों की कोई नई दुनिया नहीं है। सो मैं लड़की ही बनूंगी।
  •   घर को संवारना और बनाना हमें कुदरत से बतौर उपहार मिला है। यह हमसे कोई नहीं छीन सकता। हम घर और बाहर भी तरक्की करती हैं। हम ही हैं जिनकी वजह से पुरुष समाज दुनिया की सैर कर पाया है। यही कारण है कि मुझे लड़की ही बनना है।  ***

-मनोहर चमोली ‘मनु’. भिताईं,पौड़ी, पोस्ट बाॅक्स-23 पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल। 246001 उत्तराखण्ड.


बुनियादी शिक्षा में बाल साहित्य की भूमिका

बुनियादी शिक्षा में बाल साहित्य की भूमिका

-मनोहर चमोली ‘मनु’

शैक्षिक जगत से जुड़ा हर संवेदनशील व्यक्ति परिचित है कि किसी भी बच्चे की पाठशाला का पहला दिन कोरा नहीं होता। वह न तो कोरी स्लेट-सा स्कूल आता है। वह कच्चा घड़ा-सा भी नहीं होता और न ही मिट्टी का लौंदा होता है। बच्चा स्वयं में अपना वजूद रखता है। ठीक वैसे ही जैसे हवा का,पानी का, सूरज का, आपका और हमारा वजूद है।
स्कूल के पहले दिन से पूर्व ही औसतन हर बच्चा लगभग चार से पांच हजार शब्दों से परिचित होता है। इन शब्दों की अपने अनुभव से जानी गई समझ और परिभाषा भी उसके पास होती है। वह अपने हम उम्र के कुछ परिचित-अपरिचित सहपाठियों और अपनी आयु से चार-आठ गुना आयु के शिक्षक की बात को आसानी से समझ भी लेता है। इतना सब होने के बावजूद हम उसे पहले ही दिन से लिखना-पढ़ना सिखाने लग जाते हैं। इससे अधिक हैरानी इस बात की है कि कमोबेश अधिकतर शिक्षक यह मान कर चलते हैं कि बच्चे कुछ नहीं जानते। कोरे हैं। अमूमन अधिकतर शिक्षक यह तर्क देते हैं कि बच्चा छोटा है। अपनी कक्षा की किताब ही पढ़ ले, वही बहुत है। बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तक के महत्व और भिन्नता से पहले हम यह भी चर्चा कर लें कि जिस बच्चे को हम छोटा समझ रहे हैं, वह अपनी आयु के स्तर से औसतन कितना आकलन स्वयं कर लेता है। 
  • छह माह की आयु का बच्चा औसतन रंग बिरंगे चित्रों वाली किताब देखता है। वह चित्र को देखने की कोशिश करता है। लाल रंग उसे आकर्षित करता है। वह कागज-किताब को छूने का प्रयास करता है।
  • नौ माह की आयु का बच्चा सुनने की गतिविधि को गौर से देखता है। वह गौर से चेहरा देखता है। हर बात को सुनने की कोशिश करता है। यही वह समय है जब अभिभावक उसे यूं ही कुछ न कुछ पढ़ कर सुनाते रहें। वह सुनकर शब्दों को समझने की कोशिश करेगा। यह और बात है कि उससे प्रत्युत्तर की कोशिश नही की जानी चाहिए।
  •  एक साल की आयु का बच्चा किताब-अखबार को छीनने का सफल प्रयास करने लगता है। वह हर किताब-पन्ने-पत्रिकाएं अपनी मुट्ठी मंे कर लेना चाहता है। इस उम्र के बच्चे को छोटी-छोटी कहानियां पढ़ कर सुनाई जानी चाहिए। रंगीन चित्र दिखाने चाहिए। संभव है ऐसा करते समय पन्ने फट सकते हैं। वह फाड़ते समय आ रही ध्वनि से आनंद लेता है। आप पुराने अखबारों से भी यह गतिविधि उसके साथ कर सकते हैं।
  •  दो साल का बच्चा किताबें पसंद करने लगता है। यदि बड़े,स्पष्ट और रंगीन चित्र हैं तो वह इशारा करता है। टूटे-फूटे शब्दों में किताब मांगने की कोशिश करता है। उसे जोर-जोर से पढ़ कर कहानी-कविता सुनाई जानी चाहिए। बच्चे को किताबों से खेलने दीजिए। पुराने रंगीन अखबारों के चित्रों पर अंगुली से इशारा करते हुए बातचीत की जानी चाहिए।
  •  तीन वर्ष की आयु के बच्चे की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इस उम्र तक आते-आते बच्चा हर चीज को स्वयं जानने की कोशिश करने लगता है। वह हर चीज को छूना चाहता है। वह सुनकर हर बात को अपनी समझ से समझने की कोशिश करने लगता है। यही समय है, जब हम उसे छोटी-छोटी कहानियां कह कर सुनायें। पढ़कर सुनाये। गीत सुनायें। 
  •  चार साल की आयु का बच्चा तो बेहद तीव्रता से इस प्रकृति को, सूरज,चांद,तारों,जीव-जन्तुओं के प्रति जिज्ञासु हो जाता है। उसके पास इनसे संबंधित सैकड़ों प्रश्न होते हैं। उसे ऐसी किताबों से कुछ न कुछ पढ़ कर सुनायें, जिसमें रहस्य हो,रोमांच हो। उसकी कल्पना को और पंख लगें। अच्छे-अच्छे गीतों की ओर इशारा करें। सुनाये। गीतों की व्याख्या करें।
  •  पांच साल की आयु तक आते-आते बच्चा कहानियों को न सिर्फ सुनता है। बल्कि वह कहानियों पर अब प्रश्न करने लगता है। कहानी खत्म हो जाने के बाद उसके पास कहानी से जुड़े पात्रों से संबंधित ढेरों प्रश्न होते हैं। वह कभी खुश होता है तो कभी सोच में पड़ जाता है। उसकी उत्सुकता बढ़ने लगती है। वह बहुत कुछ सुनने,देखने ,जानने और सीखने की दिशा में आगे बढ़ने योग्य हो जाता है।                                                                आइए ज़रा सोचें कि क्या हम अभिभावक अथवा शिक्षक ऐसा करते हैं। क्या हम उपरोक्त वय वर्ग के बच्चों के साथ ऐसी गतिविधिया करते हैं? कमोबेश नहीं। दिलचस्प बात तो यह है कि अभिभावक भी और शिक्षक भी किसी भी आयु के बच्चे को कमतर ही समझते हैं। आखिर क्यों हम बच्चे को समाज का एक हिस्सा मानते हैं? उसे वही सम्मान क्यों नहीं देते, जिसका वह हकदार है। आखिर क्यों हम उसे ‘बच्चा है’ कहकर नजर अंदाज करते रहे हैं? यही कारण है कि बाल साहित्य तो दूर की बात है। हम वाचिक परंपरा का निबाह भी नहीं करते। हमें जो कहानियां-किस्से याद हैं। वह भी हम बच्चों से साझा नहीं करते।
हमें हर रोज उसे एक कहानी सुनानी चाहिए। कहानी में उसकी कल्पना बढ़ती है। वह कहानी सुनते-सुनते नये शब्दों से परिचित होगा। भाषा के निकट जाएगा। मौखिक कहानी सुनाने के बाद आप यह कह सकते है कि यह कहानी आपने किताब से पढ़ कर उसे सुनाई है। किताबों के प्रति बच्चे की रुचि स्वतः ही बढ़ेगी।

पाठ्य पुस्तकों में बाल साहित्य

बुनियादी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में साहित्य नहीं होता। यह कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन यह सही है कि बाल साहित्य की मात्रा न्यून है। भाषा की जिन पुस्तकों में साहित्य है भी वह आयु वर्ग के स्तर से व्यवस्थित नहीं है। आज भी गढ़े हुए खजाने, राजा-रानी और परियों-राक्षस की कहानियां भी प्रचलन में हैं। जबकि आज का बालक इक्कीसवीं सदी का है। उसके खेल, उसकी दुनिया में बहुत सारी नई चीज़ें शामिल हो गई हैं। कल्पना का समावेश बाल साहित्य में बेहद जरूरी है। लेकिन कल्पना बाल मन में अनगढ़ छाप न छोड़े। इसका ध्यान रखा जाना जरूरी है। बाल साहित्य के नाम पर सीख और जबरन ठूंसे गए और आदर्शवाद के पाठ अधिक पिरोये गये मिलते हैं।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के आलोक में मुझे भी पाठ्य पुस्तक निर्माण में कार्य करने का मौका मिला। बुनियादी स्कूलों के बच्चों की आयु को देखते हुए बहुत कम पाठ्य पुस्तकें हैं, जिनमें बाल मनोविज्ञान और बाल अभिरुचियों का ध्यान रखा गया है। इसके कई कारण है। उन कारणों पर चर्चा अलग से की जा सकती है। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि भाषा सीखने-सिखाने के मामले में प्राथमिक कक्षाओं में बाल साहित्य की दशा बेहद कमजोर है। हमारे शिक्षक भी कोर्स पूरा कराने की फिक्र में दिखाई पढ़ते हैं। भाषा का शिक्षक प्राय बाल पत्रिकाओं के नाम तक नहीं जानता। जो जानते हैं, उनका कहना है कि हां बचपन में पढ़ी थी। आज बाल साहित्य की दिशा क्या है? क्या-क्या लिखा जा रहा है। इन सवालों के उत्तर अधिकतर शिक्षकों के पास नहीं है।

बच्चे और बाल साहित्य

अक्सर कहा जाता है कि बच्चे का साहित्य से क्या लेना-देना? सही बात तो यही है साहित्य की पहली सीढ़ी बाल जीवन ही है। लोरियाँ क्या हैं? माँ का आँचल साहित्य में झांकने वाला सबसे पहला झरोखा है। स्कूल जाने से पहले ही बच्चे कहानी-किस्सा सुनने और गढ़ने में माहिर होते हैं। काश! कितना अच्छा होता कि बच्चे की पहली पुस्तक उसके घर और उसके बाल जीवन से जुड़ी होती। आयु के आधार पर उसकी पाठ्य पुस्तकें बनी होती। कक्षा के स्तर पर बनी पाठ्य पुस्तकें नई चिंतनदृष्टि से दूर क्यों है? यह विचारणीय प्रश्न है।
बच्चा तो स्कूल में पहले ही दिन अजब-गजब के संसार में पहुंच कर हैरान हो जाता है। बाल साहित्य में आयु के अनुरूप रचना सामग्री होती है। बहरहाल उपरोक्त पांच साल तक बच्चों की खासियतों को ध्यान में रखते हुए हम बाल साहित्य पर विमर्श करते हैं।
  •     बच्चांे के लिए लिखा गया साहित्य ही बाल साहित्य है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उस साहित्य में बच्चों की दुनिया शामिल ही नहीं की जाए। सबसे पहली और अनिवार्य शर्त यही है कि वह जो कुछ भी सुने उसमें खुद को शामिल करने की कल्पना करे।
  •     बाल साहित्य कहीं न कहीं मनोरंजन करता हुआ उसे कल्पना की दुनिया की सैर कराता हुआ अप्रत्यक्ष रूप से उसे सामाजिक प्राणी के रूप में संस्कारित करने वाला तो अवश्य हो। हाँ! उपदेशात्मक और सीख सिखाने जैसी शैली कदापि न हो।
  •     बुनियादी कक्षा की पुस्तकों में चित्रात्मक कहानियां और कविताएं अधिक हों। पढ़ने के लिए सामग्री ज्यादा हो। यह कहानियां शिक्षक पढ़कर बच्चों को सुनाएं।
  •     लिखावट का काम सीखाने की जल्दी नहीं होनी चाहिए। बच्चे सुनना और बोलना दक्षताओं में पारंगत हों। पढ़ना और आखिर में लिखना पर काम हो। समस्या यह है कि भाषा की कक्षा ही सबसे ज्यादा उदासीन और बोझिल होती है। साहित्य तो दूर अधिकतर शिक्षक के चेहरे में तनाव और झुंझलाहट अधिक दिखाई देती है।
  •    भाषा के शिक्षक में यह दबाव नहीं होना चाहिए कि उसकी कक्षा में छात्र लिखना-पढ़ना नहीं सीख पा रहा है। पाठों के अभ्यासों में गतिविधियां अधिक हों। बुनियादी कक्षाओं में चित्राधारित,कविता और कहानी आधारित छोटे-छोटे पाठ हों। मौखिक सवाल-जवाब अधिक हों।
  •   देश-प्रेम जैसी अवधारणा बच्चे के लिए कठिन हैं बच्चे के लिए तो उसका घर-गांव, पड़ोस, दोस्ती ही उसका देश है। मस्ती,खेल,छोटी-छोटी गतिविधियां, रहस्य-रोमांच, फंतासी आधारित कहानियां सुना-सुना कर बच्चों में धैर्य,समझ,लगन और अपनी राय बनाने के योग्य बनाने की कसरत की जानी चाहिए।
  •    गेयबद्ध, तुकांत छोटी-छोटी कविताएं जिन्हें बच्चा सुनते-सुनते खुद भी बोलने लगे। अपनी कल्पनाओं में धीरे-धीरे वह खुद ही कविता में छिपे निहितार्थ समझ लेगा। रहस्यवादी और लंबी कविताएं बुनियादी कक्षाओं में होनी ही नहीं चाहिए।
  •     बाल साहित्य की सहायता से बच्चों के बीच हम उसके घर और परिवेश में जो बेहद भिन्नता नजर आती है, उसे कम कर सकते हैं। बाल साहित्य ही है जो पाठ्य पुस्तकों से इतर बच्चों को खेल-खेल में बहुत सारी अवधारणाओं के प्रति समझ बढ़ाने में सहायक होता है।
  •    बाल साहित्य ही वह सहायक सामग्री है जिसकी सहायता से बच्चे की मौखिक भाषा-शैली संवर सकती है। बच्चों में संवाद अदायगी का विस्तार हो सकता है। प्रश्न करने और खुद उत्तर देने की क्षमता विकसित की जा सकती है। बाल साहित्य के माध्यम से बच्चे कल्पना लोक में जाते हैं। वे निष्कर्ष और विश्लेषण करना सीखते हैं।
  •     यही नहीं कहानी सुनकर वह धीरे-धीरे पुस्तकों के प्रति प्रेम करने लगते हैं। पाठ्य पुस्तकों के पन्ने उलटने लगते हैं। पुस्तक के चित्रों और पाठों को देख-देख कर पढ़ने की ओर उन्मुख होने लगते हैं।
  •     बाल साहित्य विशेषकर कहानी और कविता बच्चों को अनौपचारिक रूप से मात्र मनोरंजन नहीं करती। वह बच्चों में सजगता, आत्मविश्वास, गतिशीलता,सृजनशीलता बढ़ाती है। कहानी के सशक्त पात्रों के माध्यम से वह मानवीय गुणों को आत्मसात् करते हैं और बगैर उपदेश और आज्ञा के बिना अच्छे-बुरे की समझ विकसित कर लेते हैं। 
  •     बाल सािहत्य के चलते बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्थापित किया जा सकता है। भाग्यवाद से उन्हें दूर रखा जा सकता है। बच्चों को नयेपन की अनुभूति होती है। साल भर कुछ पाठ्य पुस्तकों को उलट-पलट कर बच्चा उदासीन हो जाता है। पाठ्य पुस्तकों से हट कर बाल साहित्य उनमें कल्पना जगाने का धारदार हथियार है।

कैसा हो बाल साहित्य

    प्राथमिक कक्षाओं के लिए विशेष बाल साहित्य की आवश्यकता है। यह आवश्यकता उसकी पाट्य पुस्तकें पूरी नहीं करतीं। किसी भी राज्य की पुस्तकें तेजी से बदल रही बच्चों की दुनिया के अनुरूप तैयार नहीं की जाती। वर्तमान समय के जीवन-मूल्य, संदर्भ, आदर्श, तोर-तरीके,विषमताएं पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा नहीं हो पाती। यह सब बाल साहित्य के जरिए ही बच्चों के सामने आ सकता है। पाठ्य पुस्तकें आज भी पुरातन सोच और दिशा का त्याग नहीं कर पाई है। जबकि बच्चों की दुनिया का हर पहलू बहुत तेजी से बदल चुका है। यह सब बाल साहित्य के माध्यम से रेखांकित हो सकता है। बहुत ही कम पाठ्य पुस्तकें हैं, जो बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाती हैं। चित्रों के पात्र और बिंब भी अत्याधुनिकता से पाठ्यपुस्तकों में नहीं होते। यह काम बाल साहित्य के पत्र-पत्रिकाएं बखूबी कर सकती हैं।
बच्चों की आयु को ध्यान में रखते हुए हमें बाल साहित्य का चुनाव करना होगा। जैसा कि पहले भी कहा गया है कि शुरूआती कक्षाओं के बच्चों के लिए कविताएं और छोटी-छोटी कहानियां ही शामिल की जानी चाहिए। वह भी अधिकतर मौखिक वाचन के रूप में ही। इसमें शिक्षक को बेहद सक्रिय होना होगा। उसे पढ़कर सुनाना होगा। बच्चे सिर्फ श्रोता के रूप में हिस्सेदारी निभाएंगे। धीरे-धीरे उनका लगाव बाल साहित्य को छूने,उलटने-पलटने से शुरू होकर पढ़ने की ओर भी उन्मुख होगा। शिक्षक के धैर्य की असली परीक्षा यही है कि वह कैसे बाल साहित्य की ओर बच्चों को लाये। यह हुआ तो बच्चे पाठ्य पुस्तकों से भी प्रेम करना सीख जाएंगे। फिर भी कहानी-कविता का चुनाव करते समय हम कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखें। कुछ प्रमुख बातें निम्न हो सकती हैं।
  •  बाल साहित्य सामग्री रोचक हो।
  •  संभव हो तो उस पर चित्र बनाया जा सके। बच्चों को सुनाते समय भाषा शैली सरल हो।
  •  संवाद शैली का ही अधिकाधिक प्रयोग करें।
  • रचना साम्रगी वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्थापित करे न कि अंधविश्वास और भाग्यवाद पर आस्था जगाए।
  • रचना सामग्री में बच्चों के परिवेश को समुचित स्थान मिले। 
  • लोक जीवन, मूल्यपरक, सामाजिक मूल्यों के साथ तार्किकता जगाने वाली सामग्री बच्चों को अवश्य भाती है।
  • मनोरंजन बाल साहित्य की अनिवार्य शर्त है। अन्यथा बच्चे कुछ ही दिन में कहानी-कविता सुनने के प्रति उदासीन हो जाएंगे।
  • बाल साहित्य प्रस्तुत करते समय यह भी जरूरी है कि बच्चों को बीच में बोलने-प्रतिभाग करने का अवसर भी दिया जाए। अंत में यह कदापि न पूछा जाए कि बच्चों इससे आपको क्या शिक्षा मिलती है। उपदेशात्मक अंत कदापि न हो। इससे अच्छा यह होगा कि हम कहानी-कविता कैसी लगी? यह पूछें। पात्रों-घटनाओं की चर्चा करें। यदि ऐसा होता तो कैसा होता? इन प्रश्नों से बच्चों की प्रतिक्रियाएं आने दें।
  •  रचना सामग्री बच्चों के मानसिक स्तर के अनुरूप हों। कहीं न कहीं बाल साहित्य बच्चों की पाठ्यपुस्तकों के संबोधों से जोड़े जाने की सामथ्र्य रखता हो।

यह कहना गलत नहीं होगा कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। उसे सामाजिक संबंध,सुख-दुख,हंसी-खुशी और हर्ष-विषाद प्रभावित करते हैं। बच्चे भी भविष्य में संवेदनशील प्राणी बन सकें, इसमें स्वस्थ साहित्य महती भूमिका निभाता है। इसकी उपेक्षा देश के लिए ही नहीं विश्व के लिए घातक होती है। ...

-मनोहर चमोली ‘मनु’.पोस्ट बाॅक्स-23,भिताई,पौड़ी, पौड़ी गढ़वाल 246001

7 अप्रैल 2013

बचपन छीन कर क्या हासिल होगा?

बचपन छीन कर क्या हासिल होगा?

इन दिनों जरा सुबह जल्दी उठिये और सड़क पर आइए। आपको नन्हें-मुन्ने बच्चे चुपचाप कांधे में स्कूल बैग ढोते मिल जाएंगे। आप सोच सकते हैं कि स्कूल जाने का नया सत्र है। बच्चों को नई किताबें मिली हैं। नई यूनिफार्म-नये जूते मिलें हैं। बच्चे नये दोस्तों से मुलाकात करेंगे। इसमें नया क्या है। बच्चों का परिचय जो होने जा रहा है।

मुझे तो इन बच्चों पर तरस आता है। खासकर नन्हें-मुन्ने बच्चे सवा दो साल से लेकर चार साल के बच्चों को देखकर। कुछ बच्चे तो उनींदी आंखों के साथ अस्वाभाविक चाल के साथ कदम बढ़ाते हुए आपको मिल जाएंगे। सोचता हूं कि क्या वाकई हम बच्चों का भविष्य बना रहे हैं? पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि हम बड़े बच्चों के बचपन का गला घोंट रहे हैं। दो से चार साल का बच्चा जिसे मीठे-मीठे सपनों में व्यस्त होना चाहिए था। उसे जबरन-झकझोर कर, अप्राकृतिक-सा दुलार देकर हर रोज उठाया जाता है। कोमल मन में, विकसित हो रहे मस्तिष्क में क्या प्रभाव पड़ता होगा? 

मुझे नहीं पता। मुझे तो इतना पता है कि नन्ही उम्र में स्कूल जाने का दबाव जिंदगी भर रहता होगा। नर्सरी, लोअर केजी, अपर केजी मुझे तो ठीक से इनका क्रम भी याद नहीं है। हम तो सीधे पहली कक्षा में भर्ती हुए थे। सोचता हूं कि क्या आज के बच्चे अपना बचपन भरपूर जी पाते हैं? स्कूल से घर ज्यादा दूर नहीं है। सहपाठियों से हंसी-ठिठोली ही क्या हो पाती होगी। फिर इन बच्चों की अंगुली पकड़े मम्मी-पापा,दादा-दादी और कहीं-कहीं तो नाना-नानी या मामा तक उन्हें नज़रबंद की सी अवस्था में स्कूल ले जाते हैं।

यह अति सतर्कता है या कुछ और? मैं सोचता हूं कि यदि स्कूल की अवधारणा इतनी प्यारी होती तो ये नन्हें-मुन्ने कभी यह नहीं कहते कि पापा सन्डे कब आएगा? ये सन्डे देर से क्यों आता है? स्कूल इतनी सुबह क्यों लगते हैं। स्कूल की छुट्टी का घंटा जल्दी क्यों नहीं लगता? ये ऐसे सवाल हैं जो यह तो पुष्ट करते हैं कि स्कूल बच्चों के लिए घर जैसा नहीं है। मैं उसे जेल तो नहीं कहूंगा। मैं स्कूल को कांजी हाउस भी नहीं कहता। लेकिन स्कूल बचपन को खिलने देने की जगह तो कतई नहीं है। स्कूल इन नन्हें-मुन्ने बच्चों को प्यार-दुलार देने का स्थल तो कतई नहीं है।

मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूं कि आखिर हम बच्चों को वो भी बहुत ही कच्ची अवस्था में स्कूल भेजने पर आमादा क्यों हैं? स्कूल जाने की सही उम्र क्या है? यह बहस का विषय हो सकता है। लेकिन बहुत कच्ची उम्र में भेजने के लाभ से ज्यादा मुझे नुकसान अधिक दिखाई देते हैं।

क्या स्कूल बच्चों को तमीज और तहजीब सिखाते हैं? क्या उन्हें ठीक से उठना-बैठना सिखाते हैं? क्या उन्हें जीवन की पढ़ाई सिखाते हैं? यदि आप ऐसा मानते हैं तो फिर घर क्या करता है? मम्मी-पापा का काम क्या है? चलिए मान लेते है कि यदि मम्मी-पापा कामकाजी हैं तो बात संभवतः दूसरी हो सकती है। लेकिन ये कच्ची उम्र के सभी बच्चों के माता-पिता कामकाजी हों, मुझे इसमें संशय है।

चलिए मान लेते हैं कि स्कूल का दर्जा और शिक्षकों का स्तर घर और माता-पिता से अधिक ऊंचा होगा। यदि मान लेते हैं। तो फिर अधिकतर बच्चे खुशी-खुशी स्कूल क्यों नहीं जाते? इन नन्हें-मुन्नों से बार-बार यह कहना कि जो बच्चे स्कूल जाते हैं वह बड़ा आदमी बनते हैं। तुम्हें रिस्पांसेबिल बनना है। स्कूल में ठीक से रहना है। शैतानी नहीं करना है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि घर में यह सब नहीं होता। नन्हें-मुन्ने बच्चे गैर जिम्मेदार होते हैं? घर में ठीक से नहीं रहते? घर में शैतानी करते हैं? इतने नन्हें बच्चों से कहना कि अच्छे माक्र्स लाने हैं। यदि ऐसा करोगे तो तुम्हारे लिए चिज्जी लाएंगे। तुम्हें ये देंगे वो देंगे। ये प्रोत्साहन है या प्रलोभन?

अब आते हैं कि कच्ची उम्र में भेजने से मुझे क्या डर सता रहे हैं। 
  • मुझे लगता है कि अधिकतर मामलों में ये नन्हें-मुन्ने बच्चे दबाव सहने के नहीं दबाव में रहने के आदि हो जाते हैं। जो नन्हें बच्चे सात दिन में छह दिन दबाव में रहेगा उसका समग्र विकास कैसे संभव है।
  • पूरी नींद न ले पाने से बच्चे का स्वभाव अधिकतर चिड़चिड़ा हो जाता है।
  •  बचपन की अवस्था की मस्ती,उल्लास,छुटपना-बचपना, नटखटपन ये कुछ मानवीय संवेग हैं जो उम्र पार करने के बाद छूट जाते हैं। बचपन को जीने वाला बच्चा और बचपन से छलांग लगाने वाला बच्चा, दोनों के स्वभाव में क्या अंतर रहता होंगा, कहने की आवश्यकता नहीं है।
  • इतने नन्हें बच्चों को खेलने का अवसर स्कूल नहीं देता। इस अवस्था में जो शारीरिक विकास घर में खेलने-पड़ोस में आने-जाने वो भी बगैर दबाव रहित होता है से इतर स्कूल में शरीर को एक सीट पर कैद कर देने से नहीं होता। बच्चें में आत्मविश्वास कम हो जाता है। मैं कर सकता हूं। मैं कर सकती हूं। यह भावना को तौलने का हुनर कम रहता है।
  • स्कूल साल भर एक ही ढर्रे पर चलता है। शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन अवकाश के प्रति बच्चे कितने उत्साहित रहते हैं। यह किसी से कहां छिपा है। स्कूल का नीरस और एक ही तरह का ढर्रा बच्चें की रचनात्मकता छीन लेता है। वह भी जीवन जीने का एक ही ढब बना लेता है।
  •  जिन बच्चांे का बचपन हम छीन लेते हैं। वे बच्चे जीवन में कुछ भी बन जाएं। लेकिन वे जीवन में कई बार जोखिम उठाने वाला कदम नहीं उठा पाते। कारण? कारण साफ है कि बचपन के वे खेल जिनमें जोखिम उठाना,कौशल विकासित करना,चुनौतियों का सामना करने का मकसद होता है, उन खेलों को बच्चे भूल गए हैं। काश! स्कूल में एक पीरियड बच्चों को कुछ भी कर लेने की छूट देता हो। कुछ भी करने का मतलब वे बैठे रहे या खेलें या बातें करें आदि-आदि।
  • घर संवेदनाओं और भावनाओं का घरौंदा है। घरौंदा इसलिए कि वहा हर रोज कुछ न कुछ घटता है। कभी कोई बीमार होता है तो कभी कोई। मेहमान आते-जाते हैं। घर के सदस्यों मंे जो आत्मीयता होती है,बच्चे उसे महसूस करते हैं। घर में प्रेम,सद्भाव एक दूसरे की परवाह करना होता है। घर में दुख के क्षणों में दुखी होना होता है। सुख के क्षणों में हंसना होता है। घर में बहुत कुछ होता है जो स्कूल में होता ही नहीं। घर में स्वाभाविकता होती है। ये सब बच्चा कब सीखता है? कब जानता है? कब महसूस करता है? बचपन में ही तो। वही बचपन हमने बच्चे के स्कूल बैग में स्कूल भेज दिया है।
  •  मैं अपने छोटे से अनुभव के साथ कह सकता हूं कि आज के बच्चे अकादमिक अव्वल हो सकते हैं। अच्छी जाॅब पा सकते हैं। आराम तलब वाली जिंदगी जी सकते हैं। लेकिन भावनाओं के स्तर पर वे एकाकी हो जाते हैं। उन्हें बड़े होकर बड़े खलने लगते हैं। वे संवादहीन हो जाते हैं। वे उम्र दराज घर के सदस्यों से आत्मीयता नहीं रख पाते। वे न तो दुख जाहिर कर पाते हैं और न ही अपने आनंद में दूसरों को-अपनो को शामिल करना जानते हैं। 
  •  ऐसा बहुत कुछ ये बच्चे बड़ा होकर करने लगते हैं, जो इन्हें नहीं करना चाहते। फिर इन बच्चों के बड़े उन पर झल्लाते हैं। खुद को कोसते हैं। क्यों? मुझे लगता है कि इन सबके पीछे एक ही कारण है, हम कथित बड़ों ने उनका बचपन उनसे छीना है। उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वे हमसे अपनापन छीनेंगे ही।
  •  यह आलेख आपको डराने के लिए नहीं है। विचार करने के लिए है। यदि बच्चों को उम्र से पहले स्कूल भेजना वाकई जरूरी है तो हम इतना तो कर सकते हैं कि महीने में चार रविवार और कुल जमा साल में बावन रविवार इन नन्हें-मुन्ने बच्चों को उनका बचपन जी भर के जी लेने दें। 
  • और हां। एक बात और, उनके साथ खुद का बचपन भी थोड़ा दोबारा जी लें। बचपन को बचाइए दोस्तों। बचपन की हत्या मत कीजिए।

6 अप्रैल 2013

ये शिक्षा कहाँ ले जाएगी?

ये शिक्षा कहाँ ले जाएगी?

-मनोहर चमोली ‘मनु’

मेरे सहयोगी शिक्षक ने मुझसे कहा-‘‘घर खाली-खाली सा नज़र आ रहा है। कल मैंने घर में रखी किताबें कबाड़ी को बेच दीं। कबाड़ी को सात फेरों मंे वे किताबें ले जानी पड़ीं। पत्नी तो कब से इस कूड़े को हटाने की ज़िद कर रही थी। किताबों से हुई खाली जगह में आसानी से सोफा सेट, कुर्सियां, कूलर, फ्रिज, टी.वी. और वाशिंग मशीन फिट आ गए हैं। फिर भी जगह बच गई है।’’
अध्ययनशील साथी की ये बात चैंकाने वाली थी। वह बोला-‘‘इतनी सारी पत्रिकाएं डाक से मंगाता था। अब इनकी जरूरत ही क्या है। सब कुछ इंटरनेट पर है। एक क्लिक करो और वांछित जानकारी स्क्रीन पर पाओ। धीरे-धीरे सारी पत्रिकाएं इंटरनेट पर आ ही जाएंगी। अखबार इंटरनेट पर हैं। क्या नहीं है इंटरनेट पर? अब घर पर किताबों-पत्र-पत्रिकाओं का ढेर रखना मूर्खता है। ये तो कूड़ा जमा करना हुआ।’’
साथी की ये बात समय की दरकार के साथ शायद ठीक थी। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे जंची नहीं। फिर मैंने खुद को टटोला। अभी एक दशक पहले ही तो मैं भी कई पत्रिकाओं का और किताबों का दीवाना था। लेकिन धीरे-धीेरे मैंने भी तो पत्रिकाएं और किताब खरीदना बंद कर दिया। ये ओर बात है कि पढ़ने की ललक तो नहीं छूटी। तो साथी शिक्षक की बात मुझे अखरी क्यों?
यह बात मेरे आस-पास ही घूमती रही। विचार किया तो फिर से जाना कि मेरे पास भी तो सैकड़ों किताबें हैं। कुछ किताबें तो वर्षों पुरानी हैं। ऐसी कई किताबें हैं जिन्हें मैंने सालों से टटोला तक नहीं। तो क्या वाकई ये किताबें घर में आज कूड़ा हो गई हैं?
कई दिनों तक ये बात मुझे परेशान करती रही। फिर मैंने अपना ध्यान इस बात से हटाने में ही भलाई समझी। बात आई-गई हो गई।
फिर एक दिन वही साथी शिक्षक झल्लाते हुए बोला-‘‘हद हो गई। ये पब्लिक स्कूल भी न जाने बच्चों को क्या शिक्षा दे रहे हैं। आए दिन प्रोजेक्ट-प्रोजेक्ट चिल्लाते रहते हैं। बच्चों के साथ मेरा तो दिमाग ही खराब हो गया है। आए दिन कुछ न कुछ एक्टीविटी कराते रहते हैं। कुछ न कुछ डिमांड करते रहते हैं।’’
मैंने कहा-‘‘अच्छा तो है। बच्चे हरफनमौला बनेंगे। हर एक्टीविटी में अव्वल आएंगे। इसमें परेशानी वाली क्या बात है?’’
साथी शिक्षक बोला-‘‘हम शिक्षक हैं न? हमारा काम बच्चों को पढ़ाना है या उन्हें और उनके मातापिता को कुली बनाना है? अनाप-शनाप होमवर्क देना, वर्कबुक पर काम कराने का क्या तुक है? प्रोजेक्ट पर प्रोजेक्ट बनाने से बच्चे क्या सीख रहे है? स्कूली फंक्शन के नाम पर बच्चों से बेमकसद की खरीदारी करवाने से कौन सी पढ़ाई होती है?’’
उसने बताया कि उसके बच्चे जिस पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं, वहां के हर टीचर विषय में आए दिन प्रोजेक्ट बनवाते हैं। वह प्रोजेक्ट स्कूल में बने या शिक्षक के सहयोग से बने तो बात समझ में आती है। लेकिन घर से बनाकर या बाजार से खरीदकर लाने वाले प्रोजेक्ट से बच्चा क्या सीखेगा? वह भी इस तरह की लत बनाकर कि गूगल में सर्च करो और वहां से डाउनलोड करो फिर अपना प्रोजेक्ट बनाकर स्कूल में लाओ। फिर उनमें बेहतर प्रोजेक्टस को ‘फस्र्ट-सेकण्ड-थर्ड’ का नाम देकर अन्य बच्चों को हतोत्साहित करो। क्या ये है पढ़ाई? यह सब बातें मुझे भी परेशान करने लगी। 
हम सभी साथी बहस में शामिल हुए। अंत में यही निष्कर्ष निकला कि शिक्षक और स्कूल अपने नैतिक और मूल दायित्व से पीछे हट रहे हैं। सूचना और तकनीक का हवाला देकर बच्चों को पहले से परोसी गई जानकारी को कट-पेस्ट कर परोसने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। घर में माता-पिता और बड़े भाई-बहिनों की ऊर्जा भी ऐसे प्रोजेक्ट बनाने में खप रही है। अधिकतर अभिभावकों को लगता है कि ऐसे में बच्चे खुद करके सीख रहे हैं। लेकिन यह तसवीर का आधा और एक पक्षीय पहलू है।
अधिकतर स्कूलों में आज पढ़ाई की अवधारणा ही बदल रही है। परीक्षा में अधिकतम स्कोर करना ही पढ़ाई का मूल मकसद बन गया है। सारा ढांचा ऐसी गतिविधियों में लिप्त दिखाई देता है। व्यावहारिक शिक्षा और समग्र शिक्षा की कोई बात नहीं करता। परीक्षा की पद्वति भी ऐसी बन गई है कि पहले तीन पाठ पढ़िए उनकी परीक्षा दीजिए और उन्हें भूल जाइए। फिर आगे के तीन पाठ पढ़िए,उनकी परीक्षा दीजिए और फिर उन्हें भी भूल जाइए। एक कक्षा के बाद दूसरी कक्षा में जाइए और फिर पहली कक्षा का किया-धरा भूल जाइए। ऐसा कैसे हो सकता है? यह सवाल उठना लाजिमी है। लेकिन खुद व्यवहार में आप किसी भी बच्चे से उसका पूर्व ज्ञान का आकलन करेंगे तो यही पाएंगे। डीजिटल घड़ियां आने से बच्चे पारंपरिक घड़ी में समय देखना नहीं जानते। मौसम के बदलावों की उन्हें जानकारी तक नहीं है। फसल चक्र और अनाज व उनके बीजों की पहचान तो गंवई मानसिकता का प्रतीक हो गए हैं।
बच्चे की बुद्धि का ऐसा विकास क्या समाज के लिए लाभदायक है। बच्चों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बदले एक दूसरे को पटखनी देने की मानसिकता ज्यादा प्रबल हो रही है। किताबों को उलटना-पलटना और उनके अक्षरों को साक्षात छूकर महसूस करना अलग बात थी। लेकिन गूगल पर सर्च कर उसे भाषा में कन्वर्ट कर उतार लेना समझ बनाता हो। मैं नहीं मानता। तकनीक हमारे काम को सरल करे तो उसका स्वागत कौन नहीं करेगा। लेकिन यदि कोई तकनीक हमें पंगु बना दे। हमारी बुद्धि को कुंद कर दे, तो सवाल खड़े होने स्वाभाविक ही हैं।  

इक्कीसवीं सदी की खूबियों का डंका हम खूब बजा रहे हैं। सूचना-तकनीक की सदी जो है। दुनिया एक गांव जो हो गई है। संचार सुविधाएं पलक झपकते ही हमें दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर की खबरें जो दे रही हैं। इस युग का बच्चा पैदाइशी मेधावी जो दिखाई दे रहा है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने रसोई क्या और स्नानागार क्या? बूढ़े क्या और बच्चे क्या? हर किसी को वस्तुओं और सेवाओं का इतना दीवाना बना दिया है कि हम बाजार के उत्पादों के इशारे पर उठ रहे हैं और जैसे उसी के इशारे पर सो रहे हैं।
बात यहां तक तो पचाई जा सकती है। लेकिन इतना काफी नहीं है। इस सदी का दूसरा दशक तो लंबी छलांग लगाने पर उतारू है। हमारे-आपके बच्चों का एक क्लिक करने का जो नशा छा रहा है। ये न जाने कहां तक ले जाएगा। इंटरनेट ने हमें एक क्लिक करने से भर से जो सुविधाएं मुहैया कराई हैं। उस पर अंगुली नहीं उठाई जा रही है। मेल से सारी सूचनाएं जो इधर-उधर पलक झपकते पहुंच रही हैं। इस सुविधा का विरोध नहीं हो रहा है। चिंता तो सिर्फ इस बात की है कि बच्चों में इंटरनेट का नशा हो या विवशता। यह ऐसे धीमे जहर के रूप में दिमाग को कुंद कर रहा है कि एक समय ऐसा आएगा जब दिमाग कल की बातों-मुलाकातों को भी अपनी याददाश्त से बाहर करता हुआ नज़र आएगा।
आज आम बातचीत में कोई जिज्ञास या सवाल उठाने पर दूसरा कहता है-‘‘गूगल पर सर्च करो न।’’ सर्च करो तो यह बात नहीं कि संबंधित पहलू पर कुछ मिलता ही न हो। लेकिन कई बार इतने सारे लिंक क्लिक करने पर भी आप उस बात को नहीं ढूंढ-खोज पाते जो असल में आपको परेशान कर रही है। फिर लगता है कि अपने किताबी संग्रह में ढूंढते तो अब तक जिज्ञास शांत हो जाती।
अब फिर स्कूली शिक्षा पर आते हैं। रटना कभी सीखना नहीं होता। इसका हम भी विरोध करते हैं कि रटने की पद्वति की वकालत की जाए। लेकिन किसी प्रकरण को सवाल को या समस्या को ठीक से समझना और समझकर उसे अपने जीवन से जोड़ते हुए अपने व्यावहारिक जीवन में आत्मसात् करने के लिए स्थाई करना तो शिक्षा का उद्देश्य होना ही चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। समझ बनाने,करके सीखने और देख-परख कर,सुनकर,समझकर और अवलोकन कर विषयगत अध्ययन करना अलग बात है और डिजीटल रूप में अंतरजाल पर है और उसे काॅपी कर उतार लेना दूसरी बात है।
अब और पीछे जाएं तो यह सवाल भी उठता है कि मानव जीवन बिना किताबों के भी तो था। आने वाले समय में जब सब कुछ डिजीटल हो जाएगा। कागजी सामान बचेगा ही नहीं। तो क्या भावी पीढ़ी का जीना मुश्किल हो जाएगा? नहीं। जीवन चलेगा। लेकिन जो ठोस तरीका अपनाया जाना चाहिए, उस ओर किसी का ध्यान कमोबेश कम ही है। किताबों की जगह डिजीटल किताबों ने ले ली है। चिट्ठी-पत्री की जगह ई-मेल ने ले ली है। युग परिवर्तन है। लेकिन डिजीटल किताबों को पढना तो होगा न? ई-मेल भेजने के लिए लिखना तो होगा न? हाथ का लेखन की-बोर्ड पर चलने वाली अंगुलियों ने ले ली है। लेकिन समझ ने साथ नहीं छोड़ा है। समझ विकसित करने और संवाद के लिए शब्द सामथ्र्य नहीं बदली। लेकिन आज के स्कूल संवाद की जगह रख रहे हैं। बच्चों का शब्द सामथ्र्य बढ़ा रहे हैं? इसमें संशय है। यह मुद्दा व्यापक बहस की गुंजाइश तो रखता है। आप क्या कहते हैं?

4 अप्रैल 2013

दो प्रेरक कहानियां अब मराठी में भी.

दो प्रेरक कहानियां अब मराठी में भी.

मेरी कहानी कंचन का पेड़ का मराठी में अनुवाद

मेरी कहानी कंचन का पेड़ का मराठी में अनुवाद
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