हस्तक्षेप: एक
‘चलो छोड़ो‘, ‘रहने दो‘ से काम नहीं चलता
-मनोहर चमोली ‘मनु’
मैंने उन दोनों की ओर देखते हुए कहा-‘‘आप भी हद करते हैं। बस धुएं से भरी पड़ी है।’’
यह सुनते ही कम उम्र का अपरिचित व्यक्ति बीड़ी का जलता हुआ ठंूठ खिड़की से बाहर फेंकते हुए बोला-‘‘स्टाॅफ के हैं। और फिर बस अभी चल नहीं रही है।’’
मैंने जवाब दिया-‘‘तो? ये सार्वजनिक जगह है। आप बस से उतर कर भी तो बीड़ी-सिगरेट पी सकते हैं।’’ मेरा इतना कहते ही दूसरे सज्ज्न जिनके हाथ पर सिगरेट अभी भी जल रही थी। वह चुपचाप नीचे उतर गए और मेरी आंखों से ओझल हो गए। हालांकि उन्होंने तब भी सिगरेट नहीं बुझाई।
मुझे बस के भीतर बैठे हुए सज्ज्न की बातों से थोड़ा तकलीफ हुई थी। मैंने कहा-‘‘यहां हर किसी को अपनी पड़ी है। दूसरे की कोई परवाह भी नहीं है।’’ मैंने यह बात महिला को देखते हुए कही थी। जो साड़ी के पल्लू से मुंह और नाक में धुएं को जाने से रोक रही थी। मैं हैरान था कि वह भद्र महिला मुझसे पहले से ही अकेली बस में बैठी थी। ज़ाहिर सी बात है कि धुएं का भभका उन्हें भी परेशान कर रहा था।
पहले सज्ज्न मुझे घूरते हुए बोले-‘‘सुबह-सुबह ड्रामा करने आ गए हैं।’’ यह कहते हुए वह तेजी से बस से बाहर निकल गए।
मैंने अंदाज लगाया कि अभी बस में दो ही सवारी हैं। दस-पन्द्रह मिनट से पहले तो बस अड्डे में ही रहेगी। मैं सीट पर बैग रखकर बस से उतर गया।
यह सुबह का समय था। लगभग नौ बज रहे थे। मैं बस अड्डा पहुँच गया था। राजकीय परिवहन निगम की दिल्ली जाने वाली बस सवारी से भर गई थी। सीट न होने की वजह से बस से उतर जाता हूँ। तभी मेरी नजर गढ़वाल मण्डल ओनर्स यूनियन लिमिटेड की बस पर पड़ती है। वह कोटद्वार जाने के लिए तैयार है। मैं उस बस की ओर लपकता हूँ। यह क्या बस खाली! परिचालक की सीट पर एक महिला यात्री बैठी है। बोनट के बायीं ओर दो अधेड़ उम्र के व्यक्ति बैठे हैं।
मैंने अभी अपना एक अदद बैग सीट पर रखा ही था कि बस में सिगरेट और बीड़ी के भभके से मेरा जी मचल उठा। परिणाम यह था कि मैंने अपनी बात कही थी। अपनी बात कहने के एवज में इस तरह की प्रतिक्रया की मुझे कतई आशा नहीं थी। अब आगे मुझे कुछ करना ही था।
मैं सीधे गढ़वाल मण्डल ओनर्स यूनियन के कार्यालय जा पहुंचा। भीतर दो कार्मिक चाय पी रहे थे। मैंने सीधे कहा-‘‘एक शिकायत करनी है। कोरा काग़ज मिलेगा?’’
उनमें सीनियर कार्मिक बोले-‘‘क्या हुआ?’’ मैंने सारी बात बता दी। वह बोले-‘‘आप चाय पियेंगे?’’ मैंने न कहा। उन्होंने आलमारी से कागज निकाला। मैंने मोबाइल में खींची फोटो जो बस के पिछवाड़े का हिस्सा थी। फोटों से बस नंबर नोट किया और जल्दी-जल्दी में पूरा वाकया लिख दिया। यह भी लिखा कि मुझे इस शिकायत पर कार्रवाई की सूचना भी चाहिए। रबर स्टैम्प लगाने के बाद उन्होंने वो प्रार्थना-पत्र मुझे दे दिया। मैंने मूल प्रार्थना पत्र की इमेज मोाबाइल में कैद कर ली।
मैंने कहा-‘‘मैं फिलहाल उसी बस में कोटद्वार जा रहा हूं। पांच दिन बाद लौटकर आपके पास फिर आऊंगा।’’
अब कनिष्ट कार्मिक बोला-‘‘आप हमारे कोटद्वार सीनियर कार्यालय में इसे जमा करा सकते हैं। यदि हम पर भरोसा है तो हम भिजवा देंगे।’’
मैं मुस्कराया। बोला-‘‘यकीनन। मैं चाहता हूं कि बस का कंडक्टर माफी मांगे। लिखित में भविष्य में ऐसी घटना को न दोहराए। अन्यथा मैं कानूनी कार्रवाई भी करवाऊंगा।’’
यह कहकर मैं उसी बस में वापिस लौट आया। तब तक बस भर चुकी थी। मेरा बैग मेरी सीट पर न होकर नीचे रखा था। जो महिला मेरी सीट पर बैठ चुकी थी। मैंने उनसे ऐसा न करने की बात रखी। पहले से कंडक्टर की सीट पर बैठी महिला बोली-‘‘मैंने इनसे कहा भी था कि आप बाहर गए हैं।’’ बहरहाल मैं सबसे पीछे बची एक सीट पर जाकर बैठने से पहले उन भद्र महिला से इतना तो कहा-‘‘आज तो आपने ऐसा कर दिया। लेकिन भविष्य मैं ऐसा मत करना।’’ वह चुप ही रहीं।
बस चलने लगी। यह क्या! जिन सज्ज्न को मैं कंडक्टर समझ रहा था। वह तो चालक निकले। कंडक्टर कोई ओर थे। वह दूसरे सज्जन स्टाफ के थे यानि किसी दूसरी बस के कंडक्टर या चालक रहे होंगे। जब टिकट लेने की बारी मेरी आई तो मैंने धीरे से कंडक्टर से चालक का नाम पूछा। कंडक्टर ने नाम तो बताया पर यह भी पूछा कि क्यों पूछ रहे हो। मैंने टाल दिया।
सवा नौ बजे चली बस धक्का परेड सी करती हुई अपने अनुमानित समय से दो घण्टा लेट कोटद्वार पहुंची। हैरानी की बात यह थी कि इस पूरी यात्रा के दौरान चालक साहब जिनसे मैं उलझ पड़ा था, पूरे रास्ते बीड़ी-दर-बीड़ी फूंकते रहे। हैरानी यह हुई कि ठसाठस भरी बस में किसी ने उन्हें टोकने की ज़हमत नहीं उठाई। मैं दोबारा उलझने से बचा। कारण था कि गाड़ी चलाते समय एक चालक से उलझने का मामला बेहद घातक साबित हुआ था। उस पर फिर कभी।
बहरहाल जैसे-तैसे मैं नजीबाबाद लगभग चार बजे से थोड़ा पहले पहुँचा। वहां से रेल की यात्रा करता हुआ दिल्ली विश्वविद्यालय के इंटरनेशनल गेस्टा हाउस पहुंचते-पहुंचते रात के बार बज गए।
मैं तीन दिवसीय संगोष्ठी में व्यस्त हो गया। समापन के समय मेरा मोबाइल घनघनाता है। पारम्परिक फोन का नंबर देखकर एसटीडी कोड भी को मैं पहचान नहीं पा रहा था। सभागार से बाहर आया। फोन सुना तो फोन कोटद्वार के बस कार्यालय से आया था। उन्होंने फिर से पूरा मामला फोन पर जानना चाहा। मैंने सारा मामला बताया। यह भी जोड़ा कि वह साहेब कंडक्टर नहीं चालक थे। उनका नाम भी बता दिया। वह बोले-‘‘हमने बस पर जुर्माना लगाया है। चालक ने लिखित में माफी मांग ली है। वह दोबारा ऐसा नहीं करेंगे। आपको हुई असुविधा के लिए खेद है। जुर्माना भरने के बाद हम पुष्टि का पत्र भी आपको भेजेंगे।’’
मैंने इतना जोड़ा-‘‘गढ़वाल में जीएमओयू और कुमाऊँ में केएमओयू में सैकड़ों यात्री आज भी सफर करते हैं। लेकिन स्टाॅफ बेहद उपेक्षित व्यवहार यात्रियांे के साथ करते हैं। आप क्यों नहीं अपनी संचालित बसों का औचक निरीक्षण करते?’’ वह फोन पर अगर-मगर किन्तु-परन्तु करते रहे। चालक-परिचालकों की आर्थिक स्थिति, पारिवारिक स्थिति, बीमारी, दयनीयता, बेचारगी पुराण सुनाने लगे। जो मुझे भी अजीब-सा लगा।
इतना तो तय है कि बस संचालकों को ध्रूमपान निषेध अधिनियम पढ़ना पढ़ा होगा। न्यूनतम-अधिकतम जुर्माने के फेर में तीन दिन लगा दिए। बसों का एक पूरा फेरा अंगूठी के आकार में होता है। जिसके परिणामस्वरूप वही बस आज जिस रूट पर चल रही है, चार-पांच दिन बाद ही नंबर पर आती है। उन दिनों यात्रा सीजन चरम पर था। इनकी बहुत सारी बसें यात्रा पर चली जातीं हैं। इस पूरे अनुभव से मुझे भी बहुत कुछ जानने-सीखने को मिला।
तो इस तरह इस यात्रा का एक हिस्सा जो मेरे विचार से रहा-बचा था, मेरे हिसाब से पूरा हो गया।
॰॰॰ -मनोहर चमोली ‘मनु’
(सन्दर्भ:शिक्षा के सरोकार-1,अम्बेडकर विश्वविद्यालय,दिल्ली में आयोजित होने जा रही राष्ट्रीय संगोष्ठी में भागीदारी हेतु बस से दिनांकित 22 मई 2017 को पौड़ी से कोटद्वार जाते समय।)
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