छोटी सी मुलाकात में बड़ी संभावनाएं होती हैं
-मनोहर चमोली ‘मनु’
जी हाँ। कभी-कभार नहीं अक्सर पल-दो-पल की मुलाकात मेरे जीवन के यादगार अहसासात में तब्दील हो जाती हैं। पहला प्यार भी तो बस क्षणिक मुलाकात का असर होता है। सैल्फी खींचने में स्क्रीन पर टच हुई मेरी तर्जनी। पता भी नहीं चलता कि मस्तिष्क ने कब कहा कि छूओ। मेरी उंगली मुझ से आदेश लेती भी नहीं कि दूसरे पल एक सैल्फी मेरे मोबाइल में कैद हो जाती है।
बहरहाल ये फेसबुक भी कमाल करता है। अक्सर नहीं बार-बार करता है। मित्रता निवेदन आता नहीं कि कई बार फोटो देखकर और कई बार नाम देखकर मैं खुद से कहता हूँ- ‘‘हाँ।’’
फिर मेरी ओर से स्वीकार का निवेदन जा पहुँचता है नए-नए बनने जा रहे मित्र के पास। यही फेसबुक है जिसने असल जीवन में एक समय में मेरे अधिकतम बीस घनिष्ठ मित्रों की सूची को पाँच हजार की सूची तक ला खड़ा कर दिया है। अब ऐसे में मुश्किल यह होती है कि मैं फेसबुक के मित्रों को कई बार अच्छे से तब पहचान रहा होता हूँ जब मैं उसकी प्रोफाइल को, उसकी पोस्टों को बहुत नीचे तक खगालता चला जाता हूँ। तब मुझे पता चलता है कि ये मित्र तो नियमित मेरी पोस्टों पर आते हैं। टिप्पणी करते हैं। वहीं मैं कई-कई दिनों तक इन मित्र की प्रोफाइल पर जा ही नहीं पाता। तब लगता है कि ये एकतरफा मित्रता कितने दिनों तक चलेगी। फिर देखता हूं तो पता चलता है कि हमारी मित्रता को फेसबुक में चार साल हो गए हैं। पांच साल हो गए हैं। कई मित्र ऐसे हैं जो हैं तो पर उनसे दूर-दूर का ही रिश्ता बना हुआ है। न वो हमारी कुशल क्षेम पूछते हैं और न अपन।
30 मई 2017 को फेसबुक मित्र नवीन नौटियाल जी मैसेन्जर में संदेश करते हैं। संदेश इस तरह-सा था- ‘‘आप पौड़ी में हैं? कब तक है? आपकी कहानियां पढ़ता रहता हूं। मैं पौड़ी में हूं। चार जून तक रहूंगा। क्या मुलाकात संभव है?’’
मैंने बेहद व्यस्तता के चलते जवाब दिया भी। फिर कुछ ऐसा होता रहा कि उनके पास समय था तो मेरे पास नहीं। मेरे पास समय था तो उनके पास नहीं। नवीन जी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पौड़ी आए हुए हैं। वह अपने पैतृक गांव और ससुराल दोनों का लुत्फ उठा रहे थे। कण्डोलिया का भण्डारा उन्हें बुला रहा था। बच्चों को भी घुमा रहे थे। इस बीच अपन परीक्षाओं में व्यस्त थे। मेरे परचे एक जून,दो जून,तीन जून और पांच जून को होने तय थे। इकतीस की शाम गणी जी के नाम हो गई। उधर नवीन जी को चार को दिल्ली वापिस जाना भी था। तो दो की शाम मिलना तय हुआ। वहीं तीन को अपन का परचा भी था। मुझे लगा कि मिले भी नहीं तो मलाल रहेगा कि नहीं मिले।
पौड़ी का एजेंसी चैक और अपन छह बजे से पहले नवीन जी से मिलने खड़े हो गए। नवीन जी आए सवा सात बजे के बाद। उन्होंने अपनी चैपहिया गाड़ी खड़ी की। हम दोनों में मुझे आगामी दिवस की चिन्ता भी थी और बातें करना भी जरूरी था। हम गढ़वाल कन्फैक्शनर्स में औपचारिक तौर पर ही बैठे। नवीन जी हिन्दी पढ़ाते हैं। दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामियां में शोध छात्र भी हैं। उनका गढ़वाली भाषा, लोक संस्कृति पर शोध चल रहा है। संवेदनशील हैं। दिल्ली में रह तो रहे हैं लेकिन अभी पहाड़ की सादगी और साधारणगी को त्याग नहीं पाए हैं। किसी काम को सम्पूर्णता के साथ और विश्वसनीयता के साथ करने का भरोसा कायम रखे हुए हैं। मैं किसी क्षेत्र विशेष की पूरी आदिम जाति को किसी खास सांचे के बरअक्स नहीं देखता। मैं न ही किसी वर्ग,जाति,धर्म और समुदाय को किसी खास उपाधि से देखे जाने पर यकीन भी नहीं करता लेकिन देशकाल,परिस्थिति,वातावरण और बचपन की परवरिश कहीं न कहीं आदमी के व्यक्तित्व में इस तरह जम जाती है जैसे घी से चुपड़ी रोटी खा लेने और हाथ धो लेने के बाद भी उंगलियों में घी की चिकनाई रह ही जाती है। साफ-सुथरे पानी से और साफ सुथरे तौलिये से बदन पोंछते रहने के बाद भी शरीर को स्नान की जरूरत रहती है और अच्छी तरह से स्नान करने के बाद भी तौलिये में बदल से मैल कहां से आ जाता है कि तौलिये को भी स्नान करना पड़ता है।
हम भी अपने भीतर समाए खास इलाके के गुणों को सायास ही आत्मसात् करते चले जाते हैं। वह किसी घुट्टी की तरह हमें पिलाया नहीं जाता। वह उस इलाके की हवा,पानी,खाद,प्रकाश के साथ छनता-छनता हमारे भीतर पनपता होगा शायद। नवीन जी भी मुझे ऐसे ही लगे। वह बहुत आगे जाने की संभावनाओं से पूर्ण हैं। वह महानगर को रोजगार और जीवन यापन का स्रोत बना लेंगे तो भी पहाड़ को अपने भीतर से हटा नहीं सकेंगे।
उनसे साहित्य पर बात हुई। बाल लेखन पर बात हुई। उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति पर बात हुई। उन्होंने जिन-जिन व्यक्तित्वों की बात की संयोग से वे मेरे भी अभिन्न मित्र हैं। चालीस मिनट के बाद हमने एक दूसरे से विदा ली। हम दोनों ने एक एक सेल्फी भी ली। यह कहकर हम एक दूसरे से मिलते हुए अलग हुए कि दोबारा फिर मिलेंगे।
नवीन जी पढ़ने-लिखने वाले व्यक्ति हैं। मैं इतना ही कहूंगा कि हमें सबसे पहले अपने को तरजीह देनी होगी। अपने काम को तरजीह देनी होगी। हमसे काम लेने वालों को हमारी अहमियत का भान होना चाहिए। यदि कोई मुझे औजार बनाकर अपना काम निकालना चाहता है और फिर हमें यहां-वहां रखकर भूल जाना चाहता है तो ऐसा किसी भी कीमत में नहीं होने देना चाहिए। शतरंज की बिसात जितनी खास है उतने ही शतरंज के मोहरे भी हैं। राजा-वजीर के साथ प्यादे भी उतने ही अहम हैं। कोई हमे प्यादा समझे तो समझे पर हमें यह समझना होगा कि हमारे बिना खेल खेल नहीं हो सकता। मज़ा आया। मुझे लगता है कि फेसबुक का साथ यथार्थ के जीवन में भी खूब फबेगा। यह उम्मीद मुझे खुद से भी है और नवीन जी से भी। ॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
09412158688
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।