28 जून 2017

पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर का दूसरा दिन child literature

पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर का दूसरा दिन

शिक्षकों को महती जिम्मेदारी को गहरे से समझना होगा


-मनोहर चमोली ‘मनु’

शिक्षकों के चार दिवसीय समागम के दूसरे दिन का आरंभ सुबह छह बजे नैनीताल के विहंगम दृश्य को देखने से हुई। सहभागी टिप एण्ड टाॅप की पहाड़ी पर गए। नैनीताल स्थित कुमाऊँ विश्वविद्यालय के मानव संसाधन विकास केन्द्र में राज्य भर के उत्साही, रचनाधर्मी एवं ऊर्जावान शिक्षक चार दिवसीय शिक्षक समागम में ‘पढ़ने-लिखने की संस्कृति बढ़ाने की ओर....’ विषय पर बातचीत करने के लिए जुटे शिक्षकों के मध्य दूसरे दिन साहित्यकार एवं विज्ञान लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी एवं प्रसिद्व इतिहासविद् शेखर पाठक रहे। 

परिसर के सभागार में दूसरे दिन के पहले सत्र में पहले दिन की बातचीत का समेकन दिनेश कर्नाटक ने किया। इससे पूर्व संगोष्ठी का समन्वय कर रहे भास्कर उप्रेती ने कहा कि आगे बढ़ने से पहले पिछले अनुभवों का सार संक्षेपीकरण करना ठीक रहेगा। 

दिनेश कर्नाटक ने पहले दिन की बातचीत को समेटते हुए कहा कि यह एक नई तरह की पहल रही है। हम एक-दूसरे के कामों को रेखांकित कर रहे थे। हम अपने बारे में कम बता रहे थे लेकिन हमारे बारे में हमारे दूसरे सहभागी बता रहे थे। उन्होंने कहा कि हम अपने बारे में समग्र ढंग से नहीं बता पा रहे थे। इसके पीछे यही कारण है कि शायद हम सभी ने सामूहिकता से ज़्यादा सीखा है। व्यक्तिगत प्रयासों से सीखने-समझने में कुछ भी जाना है वह कहीं न कहीं पहले से मौजूद समाज की सामूहिकता का ही प्रतिफल है। 

दिनेश कर्नाटक ने कहा कि हम अपने काम को दिखाएं इससे अच्छा हो कि हमारे काम को दूसरा देखे और वह हमारे बारे में बताए। बतौर लेखकीय कर्म का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हमारा लेखन सामूहिक चेतना का रूप है। उसकी अभिव्यक्ति है। यहां पहले दिन यह अच्छी बात देखने और सुनने को मिली कि हम सबने सच्चाई से अपनी बात रखी। हम जो हैं, हमनंे स्वयं को वैसे ही प्रस्तुत किया। अध्यापक में आलोचनात्मक विवेक आज की जरूरत है। उन्होंने कहा कि शिक्षक के लिए विद्यालय आने-जाने का मात्र एक केन्द्र नहीं है। हम बच्चों में कक्षा के प्रति और विद्यालय के प्रति लगाव जगाने का काम गहराई से करें। खेल, संगीत बुनियादी विषय हैं। ये नियमित हों। हमारे शिक्षक अपने दायरे में सिमटे हुए नहीं है। वह विद्यालय तक सीमित नहीं हैं। यही कारण है कि हर चीज़ को निजी बनाने की आदत समाज की सामूहिकता के लिए घातक है। इसे समझने की आवश्यकता है। 

इसके उपरांत भास्कर उप्रेती ने देवेन्द्र मेवाड़ी जी का परिचय पढ़ा। दस बजकर पैंतीस मिनट से देवेन्द्र मेवाड़ी जी का संबोधन आरंभ हुआ। चाय से पूर्व एक घण्टे का संबोधन में देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने अपने बचपन और बुनियादी शिक्षा से लेकर अपनी पढ़ाई और रोजगार के साथ विज्ञान को जोड़ते हुए सहजता से प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि मैं कालागढ़ नैनीताल से लगभग एक सौ किलोमीटर दूर का ही बाशिंदा हूं। तिहत्तर साल से इस ग्रह में हूं। मनपंछी मेरा पहाड़ में ही रहता है। मैंने जितने सपने देखें हैं उनमें एक भी सपना ऐसा नहीं है जिसमें पहाड़ न आता हो। रंगीन चिड़िया ही मेरे सपनों में होती है। मैं पहाड़ में ही जीता हूं। अपने गांव की प्राइमरी पाठशाला से ही पढ़ा हूं। मेरी मां का जोर था कि मुझे पढ़ना है। जिंदगी भर पढ़ना है।

श्री मेवाड़ी जी ने बताया कि मां कभी स्कूल नहीं गई लेकिन वह चाहती थी कि मैं पढ़ूं। देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने अपने बचपन और बुनियादी स्कूल की पढ़ाई और जीवन के बारे में विस्तार से बताया। बचपन में उठने वाले सवालों की ललक के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि प्रकृति ने मुझे सवाल करना सिखाया। बुनियादी शिक्षक से पहले मेरी मां और प्रकृति ही मेरे शिक्षक रहे हैं। पुस्तकों को दोस्त बनाने से पहले ये दोनों ही थे जिन्होंने मुझे ऐसा बनाया। 

विज्ञान कथाकार ने अपनी लेखन यात्रा की सिलसिलेवार कड़ियां जोड़ते हुए बतया कि स्कूल में पढाई करते हुए मुझे एक विज्ञान आधारित पत्रिका मिली। उसने मुझे मेरे सवालों का जवाब देना आरंभ किया। हम सवाल पूछते और संपादिका जवाब देती। धीरे-धीरे मेरे सवालों के जवाब शिक्षकों से मिलने लगे। उन्होंने कहा कि अधिकतर सवालों के सही जवाब विज्ञान देता है। यही कारण रहा कि मैं विज्ञान की ओर बढ़ता चला गया। मेवाड़ी जी ने कोयल और कौए सहित कई पक्षियों के व्यवहार पर खूब बातें की। मौसमों पर बात की। पेड़ों के बारे में बात की। प्रकृति के मित्र सालिम अली को याद करते हुए मेवाड़ी जी ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी बात की। 

चाय के बाद विश्वविद्यालय के कुलपति वीएन नौडियाल। मानव संसाधन विकास केन्द्र के निदेशक अतुल जोशी भी सभागार में उपस्थित हुए। इस अवसर पर शैक्षिक दखल के नवीनतम अंक का विमोचन हुआ। विमोचन में  उपरोक्त सहित एपीएफ विश्वविद्यालय, बंगुलुरू से आए मनोज कुमार, महेश बवाड़ी, खजान सिंह भी उपस्थित रहे। अतुल जोशी ने कहा कि मानवता और नैतिकता को आज भी जगह दिए जाने की जरूरत है। आज आवश्यकता इस बात की है कि पढ़ने-लिखने को कैसे बढ़ाया जाए। उन्होनंे कहा कि सारे पेशों में हम शिक्षकों का पेशा ही एक मात्र ऐसा पेशा है जिसकी ओर समाज बहुत उम्मीदें लिए रहता है। हम शिक्षकों को भी स्वयं को अद्यतन करने की जरूरत है। नई पीढ़ी के साथ चलना भी चुनौतीपूर्ण है। 

विश्वविद्यालय के कुलपति श्री नौडियाल जी ने सहभागियों का स्वागत करते हुए कहा कि ये हमारे लिए खास आयोजन है। यहां जो सहभागी आए हैं वे उन छात्रों को पढ़ाते हैं जो बाद में हमारे विश्वविद्यालय का हिस्सा बनते हैं। तकनीकी और प्रौद्योगिकी की बात से इतर सीधे क्षेत्र से काम को समझना मेरे लिए भी नया है। उन्होंने कहा कि आब्र्जवेशन ही तो विकास की पहली सीढ़ी है। चायना पेटेण्टों का देश हैं। सोचने, पढ़ने का, मनन करने का ज़ज्बा हमारे भीतर अभी तक नहीं है। हमने अपने ज्ञान को अभिलेख में नहीं किया। हम स्मृति में ही रहे। अन्यथा हमारा देश पुरातन समय में सूचना तकनीक में गौरवमयी पहचान का देश रहा है। 

दोपहर बाद लगभग दो घण्टे के सत्र को देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने रोचकता के साथ पूर्ण किया। विज्ञान पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि विज्ञान और साहित्य को वे एक ही मानते हैं। उन्होंने कहा कि हम विज्ञान को अनुवाद के तौर पर न लिखें। हम सरल शब्दों में लिखें। उन्होंने मशहूर शेर भी सुनाया कि अपना कहा आप ही समझें तो क्या समझे। मज़ा तब है जब एक कहे और दूसरा समझे। उमैं जो कुछ लिखूं वो पढ़ने वाला समझ ले। मैं जिसके लिए लिख रहा हूं उसकी समझ में आ जाए। विज्ञान लेखन भी ऐसा ही है। हम चंद्रयान और मंगलयान की बात कर रहे हैं। अब इसे यदि चिट्ठी लिखकर मां, पिता या दादा को बताना है तो कैसे बताना है। हमें ऐसा लेखन करना होगा। 

देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा कि हम हमारे पुरखों को देखें तो वह दो पैरों पर खड़ा हो गया। दो पैरों को हाथ में तब्दील किया। उसने आग को समझा। हथियार बनाना सीख लिया। लुढ़कना देखकर उसने पहिया बनाया। बैलगाड़ी बनाना सीख लिया। सालों के सफर में पहिए के आविष्कार से इंसान कहां से कहां पहुंच गया। हम ग्रहों में चले गए हैं। ये जानकारियां मौखिक से, स्मृति से और वाचिक परंपरा से आते-आते यहां तक आई हैं। ये हमारे पुरखों की मेहनत हैं। सूर्योदय को देखना तो आज भी जारी है। हमारे पुरखे भी देखते रहे। समझ बढ़ाते रहे। 

उन्होंने कहा कि हम छात्रों में सूर्योदय और सूर्यास्त को कैसे समझाएं। दार्शनिकों में अरस्तु का नाम लिया जाता है। जो जैसा दिखाई देता है वैसा ही होता है। अरस्तु ने कहा। उसने यह भी कहा था कि भारी वजन और हलके वजन की एक साथ नहीं गिरते। यह मत उन्नीस सौ साल तक ऐसा ही चलता रहा। गैलिलियों ने सन्देह किया। उसने सिद्व किया कि यदि हवा का अवरोध न हो तो भारी हलके वजन की वस्तुए एक साथ धरती पर गिरेंगी। बाद में इसका अनुभव चंद्रमा में करके देखा गया। वहां वे वस्तुए एक साथ गिरी। हम जानते हैं कि एक समय था कि हम इतना जानते थे कि धरती ही केन्द्र है। बाद में कोपरनिकस और फिर गैलीलियों ने सूर्य को केन्द्र में बताया। बहुत विरोध हुआ। हम मानते रहे कि चांद प्यारा है। सुन्दर है। गैलीलियों ने लिखा था-‘‘चन्द्रमा में गड्ढे हैं। वह उबड़-खाबड़ है। अंधकार से भरा है। रूखा-सूखा टीला है।’’ बहुत विरोध हुआ। 

बहुत बाद में गैलीलियों की बातों की पुष्टि हुई। विज्ञान अवलोकन, व्याख्या और निष्कर्ष के आधार पर ही किसी बात को स्वीकार करता है। विज्ञान में जो कुछ हुआ है वह एक विज्ञान की विधि का परिणाम है। धर्म ग्रन्थ में परिवर्तन नहीं होता है। विज्ञान बदलाव का स्वागत करता है। न्यूटन महान है। लेकिन न्यूटन के सिद्वान्तों पर कालान्तर में बदलाव हुए हैं। उन्होंने कहा कि विज्ञान के रहस्यों को आम जन तक कैसे पहुंचाएं? इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि एक वैज्ञानिक हैं। उसके अध्ययन की एक तकनीकी भाषा है। खोजों के वर्णन की एक भाषा है। दूसरा वर्ग वह है जो वैज्ञानिक भाषा को समझता है। जानता है। अब यह काम शिक्षकों का है कि वह अपनी भूमिका को समझे। बेहद जटिल, भयंकर, दुरूह कठिन काम को आसान करने का काम ही शिक्षक का काम है। शिक्षक ही कठिन विज्ञान की अवधारणाओं को सरल कर विज्ञान को कक्षा में ले जाते हैं। विज्ञान को आसान करने के लिए शिक्षक ही उसे सरल शब्दों में व्यक्त करते हैं। 

आम जन के साथ छात्रों के साथ सरलता के साथ बेहतर संवाद का अध्यापक ही जरिया बन सकते हैं। आम जन के पास मिथक हैं। भूत प्रेत हैं। अंधविश्वास हैं। नर बलि है। उल्लू को पकड़कर मारा जाता है। नरबलियों की घटनाएं हो रही हैं। विज्ञान आमजन से दूर है। उन्हें विज्ञान के करीब ले जाना होगा। मीडिया की भूमिका बहुत खास है। आम जन का बौद्विक विकास कैसे होगा? समाज के उत्थान के लिए हमारी सोच वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भरी हो। अंधविश्वासों को दूर करने के लिए दाभोलकर जैसे लोगों ने अपना जीवन दे दिया। सूर्यग्रहण को उत्सव के तौर पर देखना अब आरंभ हुआ है। लेकिन आज भी कई हैं जो दरवाजा बंद कर देखते ही नहीं।

देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा कि यदि सरल लिखा जाए और विभिन्न शैलियों में लिखा जाए तो बात दूर तक जाती है। हम ऐसा लिखें जो पहचाना जाए। पढ़ते ही पहचाना जाए कि वह आपका है। लिखने का असर कहां तक होता है ये हमें तुरंत पता नहीं चलता। हम नहीं कह सकते कि आपका लिखा कब-कब और कितने पाठक पढ़ते हैं। उनमें पढ़कर क्या असर होता है? कितना होता है? यह कहना कठिन है। अगर हम अलग तरक से लिखते हैं तो पहचाने जाते हैं। हम अपने समय को दर्ज करें। अपने समय को अपने शब्दों में दर्ज करें। हमारे आज को ही हमारी रचनाएं प्रदर्शित करती हैं। उन्होंने एक पांच साल की बच्ची का एडमिशन से पूर्व लिए जाने वाले साक्षात्कार का बड़ा ही रोचक प्रसंग पूरी कहानी के साथ सुनाया। उन्होंने बताया कि बच्चों की कहानियों में सीता अपहरण और रावण से उसको छुड़ाने में हनुमान स्पाइडर मैन की मदद लेता है। हल्क को बुला लिया। डोरा डोल को बुला लिया। इस बीच कुछ सवाल भी सहभागियों ने देवेन्द्र मेवाड़ी से पूछे। भूपेन्द्र ने सवाल किया कि जिस तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाज में होना चाहिए था हुआ नहीं हैं। क्यों?

देवेन्द्र मेवाड़ी ने जवाब दिया कि यह आज भी रहस्य-सा है। तमाम कारण हैं। आज भी बच्चों को भूतों के नाम से डराया जाता है। अंधेरा को डर का प्रतीक बताय जाता है। इससे इतर कि सच का साथ दो। खाली सुनी सुनाई बातों पर विश्वास न करो। इसे एक तरफ रखकर ईश्वर की आड़ में तमाम तरह की भ्रांतियों से बच्चों को बचपन से परिचय कराया जाता है। चोला बदलकर वेश बदल कर रहने वाले कई हैं। जो सेमिनारों में सूट-बूट पहनते हैं। विज्ञान के नाम पर खाते-कमाते हैं और सुबह शाम रुद्राक्ष की मालादि पहनकर मंत्रोच्चारण में घंटों खपाते हैं। एक सवाल महेश बवाड़ी ने किया। उन्होंने पूछा कि कितनी परिस्थितियां बदल गई हैं लेकिन हमारी संवेदनशीलता कहां चली गई हैं?

देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा कि यह सब हमारी संवेदनशीलता का मामला है। कश्मीर की एक पत्रकार हैं। उनका एक दिन मुझे फोन आता है कि क्या आप एक बच्चे के लिए एक रुपया हर रोज एक महीना का दे पाएंगे? उन बच्चों के लिए जिनके पास कुछ भी नहीं है। ऐसे बच्चों के लिए साहस संस्था ने काम किया है। ऐसे काम करने वाले लोगों को, संस्थाओं को सहयोग देना ही चाहिए। 

ओम बधाणी ने सवाल किया कि पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर बच्चों को प्रेरित करें। यह बात सही है। लेकिन जब गुगल गुरु है। ऐसे जमाने में ऐसा क्या करें कि पढ़ने के लिए प्रेरित कैसे करें?

इस सवाल के जवाब में देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा कि युवा पीढ़ी सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही है। मैं स्वयं 2013 से फेसबुक में हूं। मेरे कई मित्र हैं। पाठक हैं। फेसबुक का इस्तेमाल कर रहे हैं। हमें कुछ नए साधन खोजने होंगे। उन नए तरीकों का सही इस्तेमाल करना होगा। मैं छोटी-छोटी चीजों पर सोचता हूं। लिखता हूं। पाठक पढ़ते हैं। तमाम लोग पढ़ते है। राय देते हैं। नए तरीके तो खोजने ही होंगे। कुछ और सवाल यह हैं-
कमेलश जोशी -साहित्य रस देता है। इसके माध्यम से हम अपने उद्देश्यों को पूरा करते हैं। विज्ञान के मौलिक चिन्तन को जब हम समझ पाते हैं। बोल  पाते हैं। ऐसे में भाषा के विरोधाभास को कैसे तोड़े? अपनी भाषा से दूसरी भाषा में जाने से बच्चे बहुत कुछ खो रहे हैं। क्या करें?

जवाब-मुझे एन सी पन्त का एक प्रसंग याद आ रहा है। वह कीट विज्ञानी हैं। वे कहा करते थे कि हम हिन्दी माध्यम से आते हैं। एक भाषा जिसमें हम बड़े हुए है। ठीक उसी समय में जब हम और समझ विस्तारित करने लगते हैं तब हमारी भाषा बदल दी जाती है। हमारी जड़े कट जाती हैं। हम अपनी ही भाषा में पढ़े होते हैं तो ज्यादा काम होता। यह तो है लेकिन सारा मामला भाषाओं का ही तो है। अपनी मूल भाषा में ही सब कुछ पढ़ने-लिखने को मिले तो बात बने। ऐसे काम तलाशने होंगे। 

मोनिका भण्डारी-क्या आप ईश्वर को मानते हैं?
जवाब-मैं इसे ऐसे देखता हूं। सूर्यग्रहण लगता था, थाली बजती है। राहू-केतू ने सूरज को निगल लिया है। ऐसा कहा जाता था। हमारे बचपन में ही पशु बलि दी जाती रही है। संवेदनशील व्यक्ति को महमूद कहानी पढ़नी चाहिए। शैलेश मटियानी जी की। पाकिस्तानी लेखक मंशायाद की कहानी-डंगर बोली। गीता गैराला की चखूली। मैं जल चढ़ाता हुआ दिखाई दे सकता हूं। सूर्य को जीवन को बनाए रखने के लिए जल चढ़ाता हूं। मैं पैड़ों को प्रणाम करता हूं। मेरे पेड़ मेरे लिए सांसे तैयार करते हैं। मेरे तो वे ही ईश्वर हैं। बचपन से ही बच्चों को सही बताना चाहिए। गलल का अहसास करना चाहिए। बच्चों को तैयार करना होगा कि वह तर्क के साथ सोचें और आगे बढ़ें। 

अपर्णा सिंह- बच्चों में क्यों नहीं विज्ञान का प्रभाव पड़ रहा है?
जवाब-विज्ञान तर्क से आगे बढ़त है। हमारे तर्क होगे। हमारा चिन्तन तर्क आधारित होगा कि हमारे आस-पास के अंधविश्वास दूर होंगे। मानसिक सोच को बचपन से काटा-पीटा जाता है। यदि बच्चों को समझाया जाए तो वह विज्ञान सम्मत बातें मानेंगे। विज्ञान लेखन में सम्मोहन हो। आतार्किक बातों की ओर सम्मोहित क्यों हों?

सुन्दर लाल नौटियाल-मान्यताओं को एकदम से न नकाराना क्या ठीक होगा। ऐसा सोचना सही है क्या?
जवाब-हमें समझना होगा कि हमेशा सही बात का ही प्रचार-प्रसार नहीं होता। गलत और भ्रामक बातें भी प्रचारित होती हैं। सही तरह से समाज में क्या प्रचारित होना चाहिए था और क्या प्रचारित हो रही हैं। हमें इसे समझना होगा। पांचवी सदी में यह पुष्ट हो गया था कि धरती घूमती है। लेकिन यह तर्क प्रकाश में नहीं आया। समाज में हम क्या फैला रहे हैं। आर्यभट्ट की बातों को फैलाया नहीं गया। कोपरनिकस और गैलिलियों की तो बातें तो बहुत बाद की हैं। 

दोपहर के भोजनोपरांत का सत्र प्रसिद्ध इतिहासविद्ध शेखर पाठक का रहा। उन्होंने कहा कि पिछले कई सालों से सोचता रहा हूं कि कुछ बेचैन लोगों के साथ बात करने का अवसर मिले तो कितना अच्छा होता। इस आयोजन की सूचना मिली तो अच्छा लगा। यह आयोजन कुछ रचनाशील लोग ही कर सकते हैं। यह सिलसिला चलते रहना चाहिए। यहां आकर अपने दो-तीन शिक्षक याद आ रहे हैं। हम सोचते थे जब हम बुनियादी स्कूल में पढ़ते थे कि हम क्यों एक ही प्रार्थना करें। एक अध्यापक आए जिन्होंने हर दिन अलग प्रार्थनाएं करने का अवसर दिया। एक अध्यापक थे जिन्होंने मेरे जे़हन में पूरी दुनिया का इतिहास हो सकता है। यह बात बिठाई। यह मेरे मन में बैठ गया। जब हम माध्यमिक में आए तो हमारे एक अध्यापक थे जिन्होंने सामान्य ज्ञान का सत्र रखा। हम सवाल करते थे। पढ़ाई की घोषित लाईन से बाहर इन तीन अध्यापकों ने मुझे आज भी उन बातों को भूलने नहीं दिया। 

शेखर पाठक ने कहा कि शिक्षा वह है जो हमें मुक्त करती है। लेकिन आज भी देखिए क्या हम पढ़ने-लिखने के बाद मुक्त हुए हैं। बच्चे के बनने का समय है वह तो निचले स्तर पर है। लेकिन उलटा है। सुविधाओं की बात होती है तो वह उच्च शिक्षा में सोचा जा रहा है। लेकिन जहां से सब कुछ आगे आ रहा है यानि बुनियादी स्कूलों के बारे में नहीं सोचा जा रहा है। आज देखें तो बच्चों में सोचने की आदत भी कम हो रही है। आज कठिन दौर है। आज हम ऐसे दौर में हैं जब सोच समझ कर बोलना पड़ता है। यह कठिन किस्म का दौर है। अच्छी जिरह करना कठिन होने लगा है। आज तर्क करना कठिन हो रहा है। 

आप सब लोग संवेदनशील हैं। कर्मठ हैं। मेहनती हैं। यह अच्छी बात है। हम हमेशा कहते रहे हैं कि शिक्षा विभाग को अपनी टीम बनानी चाहिए। शिक्षा विभाग में अध्यापकों में कई तरह के कौशल हैं। हम अध्यापक की हैसियत से और अभिभावक की हैसियत से जितने विचारशील होंगे। अध्ययन के बाद जो हमारी तार्किकता बढ़ती है। हमें किताबों की दुनिया में ही जाना होगा। जब हम स्पष्ट होंगे तभी हम छात्रों को बताएंगे। सूबे के बच्चों को हम भूगोल कैसे बताएं। तारादत्त ने सन 1953 में कुमाऊँ का भूगोल लिखा था। स्थानीय भूगोल को आज कितना स्थान देते है? कहना मुश्किल है। स्थानीय से लेकर वैश्विक में बच्चे कैसे आएंगे? आज गूगल अर्थ है। 

शेखर पाठक ने कहा है कि हम मध्य हिमालय में है। नेपाल उत्तराखण्ड मिलाकर मध्य हिमालय का हिस्सा होते हैं। पच्चीस फीसदी आबादी दून क्षेत्र में है। हिमालय, नदिया, ताल का परिचय दे सकते हैं। हम नदियों के सहारे तिब्बत में नहीं जा सकते। हमें दर्रो से जाना होगा। हमें अपने छात्रों में इतिहास और भूगोल के अंतरसंबधों के साथ जाना होगा। यदि हम छात्रों के साथ रोचकता के साथ किस्सों के साथ ले जाएंगे तो उनकी रूचि बढ़ेगी। 
उन्होंने कहा कि हम छात्रों के साथ इतिहास और भूगोल को उनके आस-पास से जोड़ सकते हैं। संस्कृति के संबंध में सावधानी से सही बात कैसे कहें यह बहुत जरूरी है। तेरह भाषाओं के साथ 18 या 19 भाषाएं हैं जो सूबे में बोली जाती हैं। इन्हें बचाने के साथ हमे उसके प्रभाव को भी बताना होगा। ढोल को देखिए, वह जहां-जहां बजता हैं वहां के जानवरों की खाल से बनता है। तो कुछ वाद्य यंत्र ऐसे हैं जो किसी खास क्षेत्र में ही बनते हैं। परम्परा के साथ-साथ हम कुछ वास्तविकताओं को कैसे बच्चों को समझाएं। हम छात्रों को किताबी इतिहास और भूगोल क्यों पढ़ाएं। हम इसे रोचकता के साथ पढ़ा सकते हैं। हम अपने बच्चों को बताना होगा कि हम पहाड़ी भूगोल की जमीन में रहते हैं। हमें बताना होगा कि 64 फीसदी वन सूबे में हैं। जल, जंगल और जमीन को कैसे बताएंगे। आपको कैसे बताना है कि हमारी जमीन को सरकार ने अपने स्वामित्व में कर लिया। एक जंगल जो कि पचास साल में बनता है। सामूहिकता का परिणाम थे। आज हमारे हक-हकूक जंगल में नहीं रहे। 

गंभीर टीचर को जनोन्मुखी आंदोलनों को बताना होगा। वन पंचायतों को जो पचास साल से अधिक का समय लेते हैं। जिन्हें गांववासियों ने बनाया आज वे गांव वासी उसके स्वामित्व से बाहर हैं। जल,जंगल और जमीन की वास्तविकता और उनके दोहन की राजनीति को कैसे छात्रों को समझाना है। बच्चे के मन में पलायन के सवाल हैं। जो बच्चे यहां हैं वे तो पलायन में नहीं हैं। पर क्या उनके कुछ अधिकार हैं? क्या वे किसी और धरती के बाशिंदे हैं। उनके बारे में कौन सोचेगा? जो इस राज्य में हैं। उनके पूरे अधिकार हैं। उनके बारे में कब सोचा जाएगा? बच्चों को आप सूबे के आंदोलनों को बारे में बताएंगे। आप यहां के व्यक्तित्वों के बारे में बताएंगे। हमारी प्रतिभाएं हैं। क्षेत्र के हीरों को कौन बताएगा? 
बीसवीं सदी में जो भी आंदोलन हुए वह क्षेत्रों से निकले हुए हैं। जयानन्द भारती असाधारण किस्म के हीरों थे। बीस साल तक जयानन्द भारती रोज विरोध झेलते रहे। बच्चों को बताना होगा। श्रीदेव सुमन चेतना जगाने वाले थे। हमें अपने राज्य का इतिहास, भूगोल बताना होगा। यदि हमारे क्षेत्रों में आंदोलन नहीं होंगे तो हमारे नेताओं को तमीज़ कौन सिखाएगा। राज्य के हालात बिगड़ते जा रहे हैं। इस ओर क्या इशारा नहीं होना चाहिए? कौन बिगड़ी हुई स्थितियों के लिए जिम्मेदार है? 
दुनिया में किसी भी पहाड़ का अध्ययन कर लीजिए आपकों चार लाईन की सड़क नहीं मिलेगी। पहाड़ और बर्फ कैसे बचेगी? सार्वजनिक वाहन हों या निजी वाहन हो। क्या सही है? बेचैन करने वाले सवाल हमारे बच्चों में कैसे पैदा होंगे? शिक्षक ही तो छात्रों को संवेदनशील बनाएंगे। तार्किक बनाएंगे। सोचने-समझने की क्षमता तो शिक्षक ही ला सकेंगे। तीन बजे प्रारम्भ हुआ सत्र पांच बजे तक चलता रहा। सहभागी शिक्षकों के सवाल करने का सिलसिला था कि थम ही नहीं रहा था। कुछ सवाल निम्न रहे।
मनोधर नैनवाल-हम यहां आकर क्यों बसे होंगे? पलायन ऐसे ही होता रहा तो क्या होगा?
जवाब-पलायन वहीं से होता है जहां जीवन स्थाई नहीं होता। हमले भी बड़ा कारण हैं। सताए हुए लोग भी जमीन छोड़ते हैं। पलायन हमेशा धार्मिक कारणों से नहीं होता। यह समझना होगा। अनिश्चितता के कारण पलायन होता है। असुरक्षा भी बड़ा कारण होता है। पलायन पिछड़ी से अगड़ी को असुरक्षित से सुरक्षित की ओर जाना होता है। आपको जाना ही होगा। हमारे बच्चे बाहर जाएंगे। देश ही नहीं यहां से बाहर दूसरे देश में जा रहे हैं और जाएंगें। हमने अपने अपने बच्चों को रोकने के लिए कुछ किया ही नहीं। हम प्रतिभाशाली हो गए हैं तो अपनी प्रतिभा के लिए तो आगे जाना होगा। पलायन हमेशा बरबादी के लिए नहीं होता। पलायन के दूसरे पक्ष भी हैं। उन्हें भी समझना होगा। इतिहास गवाह है कि हर जगह हर किसी को रोक नहीं पाती। संसाधनों को नहीं जुटाया। हमने अपने संसाधनों का सही उपयोग करना नहीं सिखाया। हमने संसाधनों से अर्थ नहीं जुटाया तो रोजी-रोटी के लिए तो पलायन होगा। नदियों के गोल पत्थर भी बिक सकते हैं। पर्यटकों के साथ राजस्व को नहीं जोड़ा। अपनी जमीन के साथ कौशल को नहीं जोड़ा। हाथ के काम, और विकल्प आधारित कौशल ही पलायन को रोक सकते हैं। आज का पलायन सताए हुए लोगों की तरह का नहीं हैं। प्रतिभा को यहां रोककर क्या करोगे? पहाड़ को समझना होगा। सेवा देने वाले की सुविधा के बारे में भी तो सोचिए। दूर दराज स्कूल खोलना काफी नहीं है। कार्मिकों को आवास भी चाहिए। सुविधाएं भी चाहिए। इसके बारे में कौन सोचेगा? हम कह सकते हैं कि पलायन जमीन बेच कर नहीं होना चाहिए। गांव में दिलचस्पी रखनी होगी। बरतन मलने के लिए पलायन क्यों हों। पलायन कौशल के साथ हो। पलायन के सकारात्मक लक्षण भी हैं। हमें उसे भी समझना होगा। राजनीतिक इच्छाशक्ति कमजोर होगी तो रहे-बचों के लिए क्या रहेगा? इसे ठीक से समझने की आवश्यकता है। आधा घण्टे से अधिक सवाल-जवाब के बाद दूसरे दिन के सत्र को समाप्त करना पड़ा। रात नौ बजे गीत संध्या हुई। संगोष्ठी के तीसरे दिन की सुबह कैमल बैक पर्वतारोहरण के संकल्प के साथ सत्र समाप्त हुआ। 
-मनोहर चमोली ‘मनु’ 

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