29 मार्च 2012

नंदन-अप्रैल, 2012. बाल कहानी..‘लोपू का तहखाना’..मनोहर चमोली ‘मनु’.

लोपू का तहखाना

-मनोहर चमोली ‘मनु’

    लोपू चूहा लोभी था। उसका लोभ बढ़ता ही जा रहा था। सब उसे सनकी कहते। एक दिन की बात है। एक गिलहरी ने पूछा-‘‘लोपू। कहाँ रहते हो? आजकल बिल से बाहर भी नहीं निकलते। बिल में तुम्हारा दम नहीं घुटता?’’ लोपू चुप रहा। बेचारी गिलहरी चुपचाप पेड़ पर चढ़ गई। लोपू मन ही मन मुस्कराया। उसने अपने आप से कहा-‘‘इन बेवकूफों को क्यों पता चले कि मैंने अपने बिल में बड़ा तहखाना बना डाला है। इतना बड़ा कि इस जंगल के सारे चूहे मेरे बिल में आसानी से रह सकते हैं। मैं आपातकाल के लिए भोजन जमा कर रहा हूँ। ये मूर्ख तो सारा समय खेल-मस्ती में बिता रहे हैं। आने वाले कल की चिंता तो कोई समझदार ही करता है।’’
    लोपू चूहे को लगता कि कभी भी खाने-पीने का संकट आ सकता है। दीवाली आई। जंगल में उत्साह था। सबने दीवाली धूम-धाम से मनाई। मगर लोपू को अपने बिल के तहखाने की ही चिंता थी। उसने सर्दियों की धूप का मज़ा भी नहीं लिया। एक दिन खीरू खरगोश ने लोपू से कहा-‘‘आजकल धूप सेकने का मज़ा है। कुछ देर तो धूप ताप लो।’’ लोपू टाल गया।
क्रिसमस के बाद नया वर्ष का पहला दिन भी आ गया। जंगलवासियों ने खूब मस्ती की। एक-दूसरे को बधाई दी। मगर लोपू चूहा बिल में ही दुबका रहा। उसका मन भी किया कि वो जमा किए गए भंडार से कुछ अच्छी चीज़ खा ले। मगर दूसरे ही पल उसे लगा कि ऐसे तो उसका जमा किया हुआ भोजन एक दिन खत्म ही हो जाएगा। लोपू अक्सर भूखा ही रहता। जब बहुत भूख लगती तो आधा भोजन ही करता। उसने अपने बिल में खाने-पीने का काफी सामान जोड़ लिया था। कई तरह के फल, बीज, धन, गेंहू, मक्का के दानों से उसका भंडार भरता ही जा रहा था।
    लोपू चूहा सुबह उठ जाता और देर रात तक खाने-पीने की चीज़े इकट्ठा करता रहता। सर्दियाँ बीत र्गईं। होली आई। सबने होली का भरपूर मज़ा लिया। मगर लोपू काम पर ही जुटा रहा। उसेे लगता कि उसका भंडार अभी भरा नहीं है। फिर बसंत का मौसम भी आया। चारों ओर हरियाली ही हरियाली छा गई थीं। सबने बसंत के नज़ारों का आनंद लिया। मगर लोपू ने तो प्रकृति के मनोरम दृश्यों की ओर आँखें मूंद ली थी। सब एक ही बात कहते-‘‘अरे लोपू। संतोष रखो। हर वक्त खाने-पीने की चिंता में लगे रहते हो। ज़रा देर हमारे साथ तो बैठो।’’
    लोपू भी एक ही जवाब देता-‘‘तुम लोग मेरे सुख से जलते हो। तुम्हें आने वाले कल की चिंता नहीं है। तुम लोग तो सिर्फ आज पर जीते हो। अरे! कल की भी तो चिंता करो।’’
जंगलवासी सुख-दुख में एक-दूसरे के काम आते। एक-दूसरे के घर जाते। मगर लोपू बिल में जमा किए भंडार की चैकीदारी करता। इस कारण वो कहीं जा भी नहीं पाता। सब उसे घमंडी कहने लगे। लोपू का विशाल तहखाना लगभग भर ही चुका था।
    एक दिन की बात है। लोपू ने अपने आप से कहा-‘‘मेरा बिल अनाज, फल और बीजों से भरने ही वाला है। आज शाम तक मैं इसे भरकर ही दम लूंगा।’’ लोपू फिर काम पर जुट गया। शाम तक उसने जी-तोड़ मेहनत की। लोपू थक कर चूर हो गया। लोभ के कारण उसने कुछ खाया भी नहीं। थकान के कारण उसे नींद आ गई। आषाढ़ का महीना था। अचानक आसमान में बादल छा गए। कुछ ही देर में घनघोर बारिश हुई। मूसलाधर बारिश से लोपू के बिल में पानी भर गया। सूखे बीज और अनाज के दानें पानी में तैरने लगे। लोपू बेखबर सोता ही रह गया। बारिश के कारण लोपू का तहखाना ढह गया। लोपू बड़ी मुश्किल से बच पाया। अगली सुबह लोपू के तहखाने का रहस्य जंगलवासियों का पता चला। लोपू के जमा किये हुए फल, तरह-तरह के बीज और अनाज के दानें बहकर जंगल में फैल गए थे। जंगलवासियों ने भरपेट भोजन किया। लोपू चुपचाप यह देख रहा था और सोच रहा था ज्यादा लोभ से कोई फायदा नहीं।


-मनोहर चमोली ‘मनु’, पो0बाॅ0-23, भितांई, पौड़ी ;गढ़वाल. उत्तराखंड ़पिन-246001 ़मो0-9412158688.

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