ग़ज़ल....... ‘वज़ूद आदमी का गलने लगता है’....
झूठ ओढ़ा और चेहरा बदलने लगता है।
यकीनन वजूद आदमी का गलने लगता है।।
दोपहर का सूरज चाहे लाख आँख दिखाए।
शाम आते ही यारों वो तो ढलने लगता है।।
बुरा कहो ताना दो या जी दुखाओ माँ का।
माँ का दिल माँ का है फिर पिघलने लगता है।।
वो अकेला था चाहे आँख का तारा ‘मनु’।
बाद उसके घर उसका फिर संभलने लगता है।।
-मनोहर चमोली ‘मनु’
झूठ ओढ़ा और चेहरा बदलने लगता है।
यकीनन वजूद आदमी का गलने लगता है।।
दोपहर का सूरज चाहे लाख आँख दिखाए।
शाम आते ही यारों वो तो ढलने लगता है।।
बुरा कहो ताना दो या जी दुखाओ माँ का।
माँ का दिल माँ का है फिर पिघलने लगता है।।
वो अकेला था चाहे आँख का तारा ‘मनु’।
बाद उसके घर उसका फिर संभलने लगता है।।
baad uske ghar uska fir sambhalne lagta hai... sundar!
जवाब देंहटाएंshukriya ji.
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