28 जून 2017

चार दिवसीय शिक्षक समागम में ‘पढ़ने-लिखने की संस्कृति बढ़ाने की ओर....’ child literature

पूरा दिन एक-दूसरे के बारे में बताया

-मनोहर चमोली ‘मनु’

नैनीताल स्थित कुमाऊँ विश्वविद्यालय के मानव संसाधन विकास केन्द्र में राज्य भर के उत्साही,रचनाधर्मी एवं ऊर्जावान शिक्षक चार दिवसीय शिक्षक समागम में ‘पढ़ने-लिखने की संस्कृति बढ़ाने की ओर....’ विषय पर बातचीत करने के लिए जुट गए हैं।

समागम का आरंभ अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के साथी भास्कर उप्रेती ने किया। सुबह का सत्र बारह बजे से पूर्व आरंभ हुआ। उन्होंने कहा कि अक्सर सोचा जाता रहा है कि पढ़ने-लिखने वाले शिक्षक साथी एक साथ कहीं बैठें। पढ़ने-लिखने की संस्कृति की ओर विषय पर बात करें। अपने अनुभव साझा करें। एक दूसरे को सुनेंगे। क्या पढ़ना चाहिए। पढ़ने की आदत बनी रहे, इस पर विचार करेंगे। भविष्य की दिशा तय करेंगे।
भास्कर उप्रेती ने कहा कि हम सब देखते हैं कि सूबे में शिक्षक पदों में बंटे हैं। उन्हें बुनियादी शिक्षक, माध्यमिक शिक्षक, प्रवक्ता उच्च शिक्षा का शिक्षक आदि नामों से जाना जाता है। बहुत बड़ी खाई दिखाई देती है। उस खाई को पाटने की आवश्यकता है। जैसा माहौल बना रहा है, इस दौर में अस्तित्व के संकट से गुजरना भी आज शिक्षक के लिए चुनौती है। उच्च शिक्षा से लेकर बुनियादी शिक्षा के मध्य एक-दूसरे से बहुत शिकायतें हैं। धारणाएं हैं। इन्हें समझने की जरूरत है।

कुमाऊँ विश्वविद्यालय के प्रदीप जोशी जी ने कहा कि इस संगोष्ठी का मक़सद और तरीका नायाब है। वातावरण और व्यक्तित्वों में आम संगोष्ठी से इतर की खुशबू साफ महसूस की जा सकती है। उन्होनंे कहा कि बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के रचनाशील शिक्षकों से संवाद करने का यह सुनहरा अवसर है। ज़ाहिर सी बात है कि बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। उन्होंने कहा कि आज जब छात्र की निर्भरता गूगल के भरोसे है, ऐसे में किताबों से दोस्ती की बात करना खास है। हर अपने चारों ओर देखते हैं तो पाते हैं कि विद्यालयों के पुस्तकालय वीरान हैं। छात्र उस ओर जाते ही नहीं। पाठ्य पुस्तकों की ओर भी छात्रों का रूझान नहीं है। हम आईपेड पर ही निर्भर हो रहे हैं। किताब का पढ़ना एक जीवंत अनुभव है। यह रिश्ता सूचना तकनीक के उपकरणों में बन ही नहीं सकता। आज छात्र कारपोरेट जगत की ओर बढ़ रहे हैं। पढ़ने की आदत खत्म हो गई है। उन्होंने उल्लेख किया कि नैनीताल में नारायण बुक केन्द्र हुआ करता था। आज वह बीते जमाने की बात हो गई है।

उत्तराखण्ड का इतिहास और वर्तमान भी पढ़ने-लिखने का केन्द्र के तौर पर विख्यात है। समूची दुनिया जानती है कि हमारे सूबे के लोगों में पढ़ने-लिखने की आदत है। लेकिन यह आदत अब नई पीढ़ी में तेजी से छूट रही है। इसे बनाए और बचाए रखना होगा। स्नातक ओर स्नातकोत्तर के छात्र भी नहीं पढ़ रहे हैं। फेसबुक और व्हाटस एप पर हम नई पीढ़ी को देख रहे हैं। हम कुछ मिलकर काम कर सकते हैं। आपस में बात करना, विचारों को बांटना और माथापच्ची करना बहुत जरूरी है।

प्रदीप जोशी ने कहा कि चाहे कुछ भी हो जाए विचार वह भी नया विचार ही हमारी पूंजी है। नया विचार ही तो समाज को लाभ देता है। विचार ही महत्वपूर्ण है। विचार से आगे और उससे बड़ा कुछ नहीं है। आज तो विचारों को उत्पाद के तौर पर देखा जा रहा है। युवाओं की क्षमताओं को हम विकसित नहीं कर पा रहे हैं। इस युवा शक्ति का उपयोग करना पहली चुनौती हो गया है। ज्ञान कौशल और व्यवहार। इनमें सामंजस्य नहीं दिखाई देता।

अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के खजान सिंह ने संस्था की स्थापना, मक़सद, काम करने के तरीकों पर विस्तार से बात की। उन्होंने कहा कि सूबे में हम एक दशक से काम कर रहे हैं। हम गैर लाभकारी संगठन है। हमारा मकसद है कि हम भारत के संविधान के मूलभूत सिद्वान्तों के आधार पर शिक्षक-शिक्षा को समझें। हम न्यायपूर्ण समताधारित समाज के निर्माण में संलग्न हैं। संवैधानिक मूल्यों के साथ काम करना ही हमारा तरीका है। खजान सिंह ने कहा कि हम शिक्षा के उद्देश्यों को देखें तो उसका एक बड़ा मक़सद विवेकशील नागरिक तैयार करना के तौर पर दिखाई देता है। हम क्या हर कोई भारतीय चाहता है कि हर भारतीय में भारतीयता हो। वह तर्क के साथ काम करे। वह अपने भीतर संवेदनशीलता को बनाये रखे। बचाए रखे। हम चाहते हैं कि हर नागरिक विवेकशील निर्णय लेने की क्षमता रखे। वह अपने रोजगार को आगे बढ़ाए। हम सब संवेदनशील हों। कोई भी पेशा अपनाएं पर उसके कर्म को संवेदनशीलता के साथ करें। कौशल के साथ अपना जीवन यापन कर सकें। हर कोई कल्याणकारी कार्य की ओर अग्रसर हो।

खजान सिंह ने कहा कि काम करते-करते यह भी समझ बनी कि सतत्,व्यापक और टिकाऊ काम करने से ही बेहतर परिणाम नज़र आएंगे। हम सभी को ऐसी टीम का हिस्सा बनना होगा जो शिक्षा में समाज के हित में बेहतर काम कर सके। शिक्षा, मनोविज्ञान, समझ के साथ काम करने का भाव जे़हन में रखने वाले समर्पित लोगों की टीम में शामिल होना ही चाहिए।

उन्होंने अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के प्रसार और काम करने के तरीकों पर विस्तार से बात रखी। सात राज्यों में काम के फैलाव पर भी चर्चा की। सूबे में हरिद्वार को छोड़कर सभी बारह जिलों में शिक्षकों के साथ काम करने के अनुभवों को भी उन्होंने साझा किया। उन्होंने शिक्षकों की भागीदारी, उनकी जरूरतें, उनके दुख-दर्द, उनकी समस्याओं पर भी बात करने की आवश्यकता बताई।

खजान सिंह ने कहा कि सार्वजनिक शिक्षा में काम करने वाले शिक्षक अपने-अपने क्षेत्र में काम कर रहे हैं। उन्हें एक मंच पर आना आवश्यक है। उनका एक साथ होना जरूरी है। ऐसे शिक्षक साथी जो पढ़ने-लिखने का काम करते हैं वह उत्तराखण्ड में अधिक हैं। लेकिन तब और संगठित तरीके से हमें एक-दूसरे के सहयोग की जरूरत है। अपने विचार को गहरे से साझा करने की जरूरत है। हमें एक दूसरे के सार्थक काम को आगे बढ़ाने की जरूरत है। यह आयोजन पहला है। इसके आलोक में हम नए विचार के साथ आगे की योजना भी बनाएंगे।

खजान सिंह ने कहा कि हमें एक समूह के तौर पर दिखाई देना चाहिए। समूह की ताकत दिखाई भी देती है। हम परिवर्तन भी समूह के माध्यम से ही कर सकते हैं। इकाई से समूह अधिक कारगर होता है। विचारशील व्यक्तियों का समूह ही दुनिया बदल सकते हैं। समूह की ताकत हम सब जानते हैं। समूह के साथ पढ़ने-लिखने वाले आगे बढ़ेंगे तो सार्थक काम कर सकते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हमारे पास बैठने का मंच हो। विचार को आगे बढ़ाने के लिए केन्द्र हांे। बड़े बदलाव छोटे-छोटे समूहों से ही आरंभ होते हैं। पढ़ने-लिखने की संस्कृति कैसे आगे बढ़े। इस पर बात करेंगे। हम अपने व्यावसायिक मुद्दों पर भी चर्चा करेंगे। हम अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को भी साझा करेंगे। हम अपने बारे में बताएंगे।
एक सहभागी शिक्षक ने सवाल भी किया। सवाल था कि सरकारी स्कूल हैं। वहां पैसा सरकार लगा रही है। हम क्यों सम्पूर्ण शिक्षा की बात नहीं करते हम क्यों शिक्षा को निजी और सार्वजनिक खांचों में बात करते हैं?

खजान सिंह ने सवाल का जवाब देते हुए कहा कि शिक्षा और स्वास्थ्य ऐसे दो मुद्दे हैं, जिनकी जिम्मेदारी राज्य की होनी चाहिए। यह और सुदृढ़ होनी चाहिए। ये दो क्षेत्र हैं जिन्हें दुकान चलाना और मुनाफा कमाना से नहीं जोड़ा जा सकता है। निजी क्षेत्र तो मुनाफा कमाने के लिए हैं। हम सार्वजनिक शिक्षा को प्रमुख स्थान इसलिए भी देते हैं क्योंकि आज भी यहां से निकले छात्र ही पूरे समाज को संभाले हुए हैं। उन्होंने कहा कि यही सार्वजनिक शिक्षा है जहां एक स्थाई शिक्षक अपने सेवा काल में तीन से पांच हजार छात्रों को कक्षाओं में पढ़ाता है। उनके जीवन को गढ़ने में सहायक होता है। यही कारण है कि हम सार्वजनिक शिक्षकों के साथ काम करने को ही प्राथमिकता के साथ लेते हैं।

इसके बाद उपस्थित सहभागियों ने अपना परिचय दिया। स्यूएाी मल्ली,चमोली से आए घनश्याम ढौंढियाल ने अपना परिचय दिया। उन्होंने कहा कि मैं कक्षा कक्ष की शिक्षा को नए स्तर पर ले जाने के लिए प्रयास करता हूं। नवाचार पर भरोसा करता हूं। शिक्षा बहते पानी की तरह है। वह ठहरेगी तो ठहरे हुए पानी की तरह सड़ जाएगी। यही कारण है कि हम गतिविधि आधारित शिक्षण करते हैं। खेल-खेल के माध्यम से छात्रों के साथ पढ़ने-पढ़ाने का काम करते हैं।  
  
   डायट बागेश्वर से आए केवलानन्द काण्डपाल ने कहा कि बच्चों के साथ और बच्चों को पढ़ाने वाले बुनियादी शिक्षकों के साथ काम करता हूं। पढ़ने-पढ़ाने की गतिविधियों में शामिल रहता हूं। मुझे सरकारी शिक्षा पर भरोसा है। सरकारी शिक्षा ही कारगर है। वही समाज के लिए मुफीद है। अनुभवों को लिखकर प्रकाशनार्थ भेजता रहता हूं। पढ़ता रहता हूं।

द्वाराहाट से आईं अध्यापिका अनीता प्रकाश ने कहा कि आरंभ से ही लिखने-पढ़ने का शौक रहा है। दो किताबों के संग्रह आए हैं। एक कहानी संग्रह आया है। मेरे अध्यापन कार्य के बारे में ठीक से मेरी छात्राएं बताएंगी। पढ़ने-पढ़ाने का शौक है।

पौड़ी से आई अनीता ध्यानी ने कहा कि प्राथमिक से लेकर जूनियर में पढ़ाती रही हूं। साहित्य का शौक रहा है। इन दिनों संकुल समन्वय हूं। कोशिश करती हूं कि अपनी अभिव्यक्ति को शब्द दूं। पढ़ने के लिए समय निकालना चाहती हूं।  
ऊधमसिंह नगर से आए प्रियंवद ने कहा कि भाषा का विद्यार्थी हूं। पढ़ने का शौक है। घूमने के साथ-साथ सुनने का शौक है।  

गंगाणी,नौगांव,उत्तरकाशी से आए ध्यान सिंह रावत ने कहा कि विषम परिस्थितियों में पढ़ाई की है। पढ़ाया है। अपने अध्यापकों को याद करता हूं। दिल से मन से पढ़ाते थे। हर बच्चे को ध्यान में रखते थे। दूरस्थ काम किया तो लोक को करीब से जाना। एनसीएफ 2005 के काम का विस्तार अपने विद्यालय में किया। शैलेष मटियानी पुरस्कार प्राप्त शिक्षक ध्यान सिंह रावत ने कहा कि मेरे पढ़ाए हुए बच्चों ने मेरा सम्मान किया तो वह बड़े बड़े सम्मानों से बड़ा सम्मान है।

टिहरी से आए मोहन चैहान ने कहा कि उत्तकाशी का रहने वाला हूं। चैदह सालों से बच्चों के बीच काम कर रहा हूं। अक्सर सोचता हूं और इसी दिशा में काम करता हूं कि मैं बच्चों के लिए क्या कर सकता हूं। रचनात्मक अध्यापक जो भी काम करते हैं उनके लिए एक मंच हो। हम अपने क्षेत्र में महीने में एक बार बैठते हैं। अपने अनुभव साझा करते हैं। छात्रों के लिए क्या करें, यही सोचते हैं। सोचते ही नहीं उस दिशा में काम करते हैं।
पौड़ी से आए मनोहर चमोली ने कहा कि वह अक्सर असंतुष्ट रहते हैं। असहमति रखता हूं तो चाहता हूं कि छात्र भी सवाल करें। असहमति को प्रकट करें। समझ का विस्तार अपने ढंग से करें।

चिन्यालीसौड़, उत्तरकाशी से आईं मोनिका भण्डारी ने कहा कि मैं महसूस करती हूं कि विज्ञान और गणित से बच्चे हमेशा से जूझते रहे हैं। बच्चे नहीं पढ़ रहे हैं। इसके कई कारण हैं। बुनियादी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों से हम ज्यादा उम्मीद करते हैं। हम पता नहीं क्यों भूल जाते हैं कि वह अपने साथ बहुत कुछ लेकर आता है। हम उसे पहले ही दिन से लिखने पर बाध्य करने लगते हैं। हम उन्हें स्थान दें। उसे संवाद करने दें। बच्चों से बात करने का मौका हम कम ही देते हैं। हम बच्चों से दूरी क्यों चाहते हैं? सबसे बड़ी समस्या है संवादहीनता है। उन्होंने कहा कि हमारा तरीका कई बार गलत होता है। हम बच्चों को अपने पास बुलाते हैं। हम बच्चों के पास कम जाते हैं। आज भी विद्यार्थियों में जेण्डर दिखाई देता है। अपना अनुभव सुनाते हुए उन्होंने कहा कि इंटरवल होता है तो बच्चियां केवल बातें कर रही मिलती हैं। तीन-चार ये खेलती क्यों नहीें। छात्राएं भी खेलें। उनके साथ हमें समय देना होगा।

उन्होंने कहा कि हर जगह लड़कियां बैठी हुई दिखाई देती हैं। मैं हमेशा सोचती हूं कि लड़कियां खेलती क्यों नहीं? संवादहीनता है। बच्चों को तैयारी करने के लिए उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। हम बच्चों के साथ सहभागी बनें। किशोरों की समस्याएं भी लेकर बच्चे स्कूल में आते हैं। हमें उनके साथ समय बिताएं। उनसे बात करें। गणित की समस्या है। गणित को और सरल ढंग से पढ़ाने के लिए हमें सोचना होगा।

गणेशपुर उत्तरकाशी से आईं रेखा चमोली ने कहा कि स्कूल बहुआयामी है ठीक है स्कूल दक्षताएं सीखाने के लिए है। स्कूल को एक यह काम भी करना चाहिए। आगे चलकर जीवन जीने का सलीका भी तो स्कूल ही देगा। दुनिया में काम करने का सलीका भी स्कूल की जिम्मेदारी है। स्कूल बाहरी दुनिया से जुड़ा हुआ क्यों नहीं होना चाहिए। हमें समझना होगा कि अपने साथियों के साथ कैसे काम करें। बाहर कैसे काम करें। हमारी संवेदनशीलता कहां चली गई? अगर स्कूल में वे बातें नहीं हो रही हैं जो घर में समाज में नहीं हो रही हैं तो  हमें वह सब साझा करना होगा जो बच्चों को घर में और परिवार में और समाज में नहीं मिल रही है। बच्चे एक दूसरे को समझते हंैं। मिलकर काम करते हैं। सवाल करते हैं। वे मदद करते हैं। शाम को ये जानने की कोशिश करती हूं कि मैंने आज क्या किया। और मैं क्या कर सकती हूं।

महाविद्यालय की शिक्षिका स्वाति मेलकानी ने अपने परिचय में लोहाघाट का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि इस विश्वविद्यालय से पढ़ी हूं। इस शहर की हूं। मुझे लगता है कि बच्चों में पढ़ने की धुन है। विज्ञान पढ़ाते समय वृक्षों की उपयोगिता को बच्चे अपने सन्दर्भ से समझते हैं। बताते हैं। बच्चों ने हमें बताया और सीखाया। मुझे लगता है कि शिक्षण ही एक रास्ता है जहां रहकर हम बच्चों को गहराई से समझ सकते हैं।

पौड़ी से आए कमलेश जोशी ने कहा कि वह मौलिक विज्ञान के शिक्षक हैं। 
विज्ञान का कोई सूत्र भी मौलिक प्रकृति से आया है। खुले परिवेश से आया है। हमारे पास जो बच्चा है वह भी खुली प्रकृति से आता है। पूर्व ज्ञान की समझ हमारे बच्चों में अधिक रहती है। किताबें उनकी तरह नहीं गढ़ी नहीं गई हैं। हमें उसके ज्ञान और समझ को आगे बढ़ाना होता है। सोशल मीडिया के तौर पर एक नया माध्यम है उसका मैं भी उपयोग करता हूं। चुनौतियां हैं लेकिन उनका सामना सकारात्मक तरीके से ही हो सकता है।  
उत्तरकाशी से आए राजेश जोशी ने कहा कि विज्ञान का शिक्षक हूं। प्राथमिक से माध्यमिक में आ गया हूं। आज हालत यह है कि दो टीचर हैं और दो ही बच्चे हैं। लेकिन आज भी ऐसे स्कूल हैं जहां बच्चे बहुत अधिक हैं। मैंने धीरे-धीरे काम किया। बच्चों से बातचीत की। शिक्षक से पहले में फार्मा का छात्र रहा। जानकार रहा। तो अपने अनुभवों के आधार पर दवाई देने लगा। इस काम ने मेरे विद्यालय में छात्र संख्या बढ़ाने में सहयोग किया। छोटे-छोटे बच्चों का भी आना शुरू हुआ। ऐसे विद्यालय में भी रहा जहां दो शिक्षक हैं और 152 छात्र रहे हैं। हम यह समझ लें कि हम ही नहीं बच्चों को समझते हैं बल्कि बच्चे भी हमें समझते हैं। हमें कक्षा कक्ष में और स्कूल में कोई सीमा रेखा नहीं खींचनी है बल्कि दायरे को तोड़ना है। हम तभी बच्चों को अच्छे समझते हैं जब हम उन्हें मौका देते हैं। वे खुलते हैं। बच्चों के परिवेश को उन्हें उनके नाम से जोड़कर उनकी दुनिया को स्थान देंगे तो बच्चे आगे बढ़ते हैं। लिखना-पढ़ना गतिविधि के साथ हो तो और भी आनंद आता है। बच्चों को जितना हम जानेंगे वह तभी हमें भी जान पाएंगे।

उत्तरकाशी से आए ओम बधाणी ने कहा कि मैं भौतिक विज्ञान का अध्यापक हू। अब सर्व शिक्षा अभियान में आ गया हूं। बीस साल की नौकरी के तौर पर मैं समझा हूं कि हमें काउंसलर के तौर पर भी काम करना होता है। उन्हें जो आता है उसे समझकर हमें पढ़ाना चाहिए। बच्चों के साथ जैसे वे हैं यदि हम बन जाएं तो और सुविधा हो जाती है। बच्चों को स्थान देना चाहिए। उनके भावों को समझें। उनका सम्मान करें।

चम्पावत से आए पूरन बिष्ट ने कहा कि मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ाता हूं। हल्द्वानी में रहता हूं। अल्मोड़ा से पढ़ा हूं। कभी किताबों को हाथ में ले जाकर शान हुआ करती थी। हमने नाटक भी किए। आज हल्द्वानी जैसे शहर आकार ले रहे हैं वह कंक्रीट के जंगल हैं। इन शहरों में पैसों की बात होती है। बच्चे पढ़ते हैं। हम आज जिन बच्चों को पढ़ा रहे हैं, वह पढ़ने की ललक से पहले अभावों में हैं।  बच्चों को स्कूल में लाने से पहले उनके परिजनों से बात करनी पड़ती है। उनकी दुनिया में पढ़ने के महत्व से पहले बहुत कुछ है। अभाव है। गरीबी है। समस्याएं हैं।

हल्द्वानी से आए शिक्षक नेता महेश बवाड़ी ने कहा कि मैं नैनीताल में पढ़ा हूं। अपने दौर में बहुत कुछ पढ़ा। शिक्षक बन गया। कुछ ऐसा पढ़ लिया जिसने प्रतिरोध करना सिखाया। हस्तक्षेप करना सिखाया। हमने विद्यालयी शिक्षा के हित के लिए अधिकारियों से बहसें की। विवाद भी हुए। मतभेद भी हुए। बीस साल से भाभर के क्षेत्र में रह रहा हूं। पढ़ना भी एक तरह की बीमारी है। यह लगनी जरूरी है। पढ़ने-लिखने की बातचीत जरूरी है। गणित पढ़ाता हूं। सामूहिक कक्षाएं भी चलता हूं। मैं सकारात्मकता में भरोसा करता हूं। बच्चे सकारात्मक हों। हम केवल स्कूली किताबों पर क्यों भरोसा करें। हम क्यों नहीं कविता, कहानी, मैच आदि पर बात करते? दरअसल हमारे केन्द्र में बच्चे नहीं हैं। हम में से अधिक आने-जाने वाली नौकरी कर रहे हैं।

भूपेन ने कहा कि मैं टीचिंग में नहीं हूं पर टीचिंग में रहा हूं। पढ़ने-लिखने के काम में रहा हूं। कविता की। नाटक किए। फिल्म भी की। सत्रह साल में बारह नौकरी की। हमारे सोचने-समझने का तरीका होता है, हम वैसे ही हो जाते हैं। साझा करने की आदत खत्म हो रही है। ज्ञान की राजनीति न हो। कक्षा-कक्ष में ज्ञान तभी फैलेगा जब कक्षा में भेदभाव न हो। बच्चों को सम्मानित करने का दायित्व भी हमारा है। पारम्परिक तरीके पर सवाल करने की जरूरत है। आलोचना करने का अधिकार दें। सीखने की प्रक्रिया कैसे आए। कक्षा कक्ष में हम सबको अवसर दें। ज़्यादा बेहतर इंसान दें। मेरे छात्रों में मैं लोकप्रिय हूं। वे मेरे दोस्त भी हैं। टीचर बहुत बदलता है। यदि सवाल करे वह बच्चों से। उन्हें सवाल करना सिखाए।

बाजपुर से आए सुरेश चन्द्र भटृट ने कहा कि ग्यारह साल से पढ़ा रहा हूं। उन्होंने कहा कि छात्रों के मन में मेरी क्या जगह है ये तो वे ही बता सकते हैं। लेकिन संस्थाध्यक्षों की आंखों में हमारे जैसे लोग खटकते हैं। हम हस्तक्षेप करते हैं। बच्चों के हितांे की बात करते हैं। इस हस्तक्षेप को बढ़ाए जाने की जरूरत है।  हमने स्कूल में वो सब करने की कोशिश की जो बच्चों को पसंद आए। पुस्तकालय को जीवंत किया। दीवार पत्रिका का काम किया। बच्चों में रचनात्मकता के काम करता हूं। परम्परागत अध्यापक से मैं अब नवाचारी काम करने लगा हूं। सीखता हूं। बच्चों को समझने की कोशिश करता हूं। बच्चों के संस्मरण आते हैं। उनमें लेखन कला का विकास करता हूं। लोक कथाओं, स्थानीय संस्कृति पर लेखन करवाता हूं। उन्हें समझते हुए करियर और काउंसलिंग करने की कोशिश भी करता हूं।

नैनीताल से आए विनोद जीना ने कहा कि यह सही है कि अधिकतर शिक्षक स्कूल आना और जाना ही अपना काम समझते हैं। अर्थशास्त्र पढ़ाते हुए मुझे लगता है कि यदि सन्दर्भ से बात करंे तो बच्चे खुलकर बातें करते हैं। बच्चों से सीखने को मिलता है। मैं सोचता हूं कि हम यहां आए सुझावों का कैसे अपने स्कूल में इस्तेमाल करें यह चुनौतीपूर्ण है और इसे करना ही होगा। भले ही यह समस्या के तौर पर देखना हमारी सोच है लेकिन मैं यह भी जानना चाहंूगा कि नवाचारों का आप सब लोग कैसे इस्तेमाल करते हैं। यह समझना भी अपने आप में सीखना है। बहुत सारी चुनौतियां हैं जिनमें यह सवाल हमें परेशान करता है कि हम और हमारे स्कूल यदि इतने गुणवत्तापूर्ण हैं तो हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ा पाते हैं।

कल्जीखाल पौड़ी से आए मनोधर नैनवाल ने कहा कि वह बुनियादी स्कूल में विज्ञान पढ़ाते हैं। अध्यापन से पहले पन्द्रह साल बेरोजगारी को बेहद करीब से देखा है। बहुत सारी असफलताएं देखी हैं। असफलताओं के साथ मेरी जिद भी बढ़ती गई। मैं लक्ष्य बनाता हूं तो पाता हूं कि मैं उन लक्ष्यों को हासिल भी कर लेता हूं। शायद जीवन में जो असफलताओं का सामना किया उन्हीं की वजह से मेरी जिद पूरी हो जाती होंगी। एससीईआरटी के सेवारत प्रशिक्षण लिए और दिए भी। कंप्यूटर के साथ शिक्षण कार्य किया। कंप्यूटर सीखते-सीखाते एक समूह की जरूरत पड़ी। मिल-जुल कर सृजन समूह का गठन किया। 2008 में सृजन समूह बनाया। तभी से हम कुछ शिक्षक बैठते हैं। शिक्षा के सरोकारों से जुड़े मसलों पर चिन्ता करते हैं। उन्हें साझा करते हैं।

रुद्रपुर महाविद्यालय की इतिहास प्रवक्ता अपर्णा सिंह ने कहा कि यह बात भी सही है कि बच्चे पढ़ते नहीं। लेकिन यह बात भी उतनी सही है कि उन्हें पढ़ने के अवसर कितने मिलते हैं। उन्हें पढ़ने के लिए विविधता से भरी पुस्तकें काॅलेज में मिलती भी है या नहीं। यह भी गौर करना जरूरी है कि यदि वे पढ़ने आते हैं तो अध्यापक उन्हें पढ़ाने के लिए कितना तत्पर हैं। हां यह बात भी सही है कि यदि हम उनसे जुड़ते हैं तो वे भी हमसे जुड़ने के लिए तैयार रहते हैं।

चकराता के भटाड़ से आए निरंजन सुयाल ने कहा कि मेरे अध्यापन में पहाड़ शामिल है। स्थानीय सरोकारों की पत्रिकाएं और पत्र शामिल है। पढ़ाने के साथ-साथ पहाड़ को पढ़ना मेरा काम है। यह के कामों को,पीड़ाओं को समझना भी मेरा काम है।

अगस्त्यमुनि से आए गजेन्द्र रौतेला ने कहा कि हमारे भीतर की आवारगी और घुमक्कड़ी जिन्दा रहनी चाहिए। जिंदगी तो बहती नदी है। इसे नहीं थमना होता है। हमारे पैरों को भी नहीं थकना चाहिए। हम जहां हैं वहां की जिंदगियों को समझना भी हमारा काम है। जड़ों से जुड़े रहना और उसे समझना भी जरूरी है। गजेन्द्र रौतेला जी ने कहा कि शिक्षक की भूमिका केवल विद्यालय में ही नहीं है। स्कूल से बाहर भी हमें काम करना होगा। संवाद समुदाय से हों तो कोई परेशानी नहीं होती। उन्होंने कहा कि यदि देखा जाए तो सुदूर गांव में अध्यापक अपने आप में एक सरकार है। वह केवल पढ़ाता ही नहीं है। वह सारे काम में सहयोग भी करता है।

रानीबाग से आए दिनेश कर्नाटक ने कहा कि जब सेवा में आया था तो बड़ी उम्मीदें लेकर आया था। लेकिन धीरे-धीरे लगा कि अधिकतर अध्यापकों में निराशा ज़्यादा है। लेकिन आशावादी नज़रिए वाले अध्यापकों की भी कमी नहीं है। हमने दख़ल प्रारंभ किया। पर्चा निकाला। धीरे-धीरे शैक्षिक दख़ल ने आकार लिया। आज 1300 से अधिक सदस्यों तक पत्रिका सीधे पहुंच रही है। हम यह समझ पाए हैं कि शिक्षा की भी राजनीति होती है। शिक्षा में भी राजनीति होती है। हां हम यह समझते हैं कि एक समान शिक्षा को लागू करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि शिक्षक का काम केवल पढ़ाना ही नहीं होता। वह शिक्षा से जुड़े और भी कामों में हस्तक्षेप करे। उन्हें समझे। जाने और विमर्श का हिस्सा बने।

 
पिथौरागढ़ से आए निर्मल ने कहा कि मैं दो हजार छह से शिक्षा में काम कर रहा हूं। बच्चों के साथ मिलकर काम किया। बच्चों को अपने आस-पास के बारे में जानने वाले काम किए। बच्चे अपने आस-पास के काम को करने में आनंद लेते हैं। आवासीय विद्यालय में काम करने का अलग आनंद है। छात्र में ग्रहण करने का भाव भी बेहद जरूरी है। वह उसके अंदर से होना चाहिए।    

टिहरी से आए सुनील डंगवाल ने कहा कि तेइस साल से पढ़ा रहा हूं। लेकिन जो उत्साह पहले था उसे आज भी बनाए रखा है। पढ़ने लिखने का काम कक्षा से बाहर भी करने की जरूरत है। पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना और उनमें लिखना भी हमारे काम का हिस्सा होना चाहिए। सुनील डंगवाल ने कहा कि प्रातःकालीन सभा में बच्चों के साथ बेहतर ढंग से काम किया जा सकता है।

उत्तरकाशी से आए सुन्दर लाल नौटियाल ने कहा कि अभी सीखने का दौर है। आज समझ में आ रहा है।  उन्होंने कहा कि हमारी वैचारिक शून्यता को तोड़ने का समय है। हमारी कार्य संस्कृति में जनपक्षधरता दिखाई देनी चाहिए। निजी से अधिक हम सामूहिकता की ओर बढ़ें। शिक्षक का काम पढ़ाना है और लगातार पढ़ना भी है।
 
पिथौरागढ़ से आए चिन्तामणि जोशी ने कहा कि मुझे तो अपने अध्यापन कार्य पर गर्व होता है। उन्होंने बाल साहित्य में चस्का लगने का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि मैंने एक खरगोश के बदले में पत्रिकाएं पढ़ने की शुरूआत की। जिन्दगी में सीखने-सीखाने का मौका हर बार हर समय मिलता रहता है। हमें अपने आस-पास के परिवेश को गहराई से समझने की जरूरत है।

पिथौरागढ़ से आए गिरीश चन्द्र पाण्डेय प्रतीक ने कहा कि पिछले ग्यारह सालों से पढ़ा रहा हूं। मैं भी बदला हूं। बच्चों ने मुझे भी बदला है। बच्चों के साथ लगातार दूर्गम में रहने के कारण मैंने लोक को समझा है।

अगस्त्यमुनि से आए मनोज कंडियाल ने कहा कि दूर-दराज में रहने से हमने गांव को समझा, बच्चों की समस्याएं और मनस्थिति को समझा। मैं गणित पढ़ाता हूं। लेकिन केवल गणित नहीं पढ़ाता। गणित के किस्से भी सुनाता हूं। विज्ञान पढ़ाता हूं। विज्ञान नहीं पढ़ाता विज्ञान से जुडें व्यक्त्यिों,घटनाओं और बातों के किस्से सुनाता हूं। हमें बच्चों में लेखन को बढ़ाने के लिए नए-नए तरीकों को समझना होगा। हमें बच्चों को सपने दिखाने होंगे। उनके अपने सपने हों। वह उन सपनों को अपनी आंख से देंखें। उन्हें साकार करने के लिए आगे बढ़ें।

खजान सिंह ने समय को ध्यान में रखते हुए लगभग सात बजे से पूर्व एपीएफ के साथियों का परिचय भी दिया। जिनमें प्रतिभा कटियार, चन्द्रकला, भास्कर उप्रेती, विवेक सोनी, प्रमोद पैन्यूली, प्रियम्वद, मदन मोहन पाण्डे, कमलेश जोशी प्रमुख थे। सुबह ठीक छह बजे टिप एण्ड टाॅप घूमने जाने के संकल्प के साथ पहले दिन का समापन हो गया।

-मनोहर चमोली ‘मनु’
9412158688 

1 टिप्पणी:

यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।