12 अक्तू॰ 2010

सुजीवन की कुंजी है चरित्र

-मनोहर चमोली 'मनु' manuchamoli@gmail.com

ई बार पढ़ा कि ‘चरित्र ही जीवन की रक्षा करता है।’ इस वाक्य में जीवन का सार छिपा है। वाक़ई चरित्र है, तो सब कुछ है। चरित्र नहीं बचा तो जीवन पशु के समान ही है। कहा भी गया है कि धन तो आता है, चला जाता है। कुछ भी नष्ट हो गया तो उसे फिर से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया। यह सदियों से सुनते-पढ़ते आए हैं। मगर सुनने-पढ़ने के बाद गुनने वाले कितने हैं? यही विचारणीय है। बहरहाल सज्जन हर संभव चरित्र की रक्षा करते हैं। अच्छे आचरण वाला चरित्र को सर्वोपरि रखता है।
आख़िर चरित्र है क्या? क्या बुरा आचरण कुचरित्र है। एक पिता घर में बच्चों के लिए बुरा आचरण करता हो, मगर बाहर उसका आचरण अच्छा हो तो? साँप की फितरत डसना है। मगर डसना उसकी विवशता भी तो है। कहते भी हैं कि घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या। घास के लिए घोड़े का आचरण क्या है? वहीं घोड़ा घास खाने के अलावा अपने स्वामी के लिए तो आजीवन अच्छा आचरण करता है। तब घोड़े का चरित्र क्या है?
आपका व्यवहार किसी के लिए अच्छा हो सकता है, और वही व्यवहार किसी ओर के लिए बुरा हो सकता है। आदत और चरित्र में अंतर है। आदतें अच्छी और बुरी हो सकती हैं। यह ज़रूरी नहीं कि हर किसी की आदत हो कि वह ज़ल्दी उठता हो। लेकिन देर से उठने वाला कुचरित्र कैसे हो सकता है। एक व्यक्ति चोरी करता है। चोरी को उसने कर्म बना लिया। मगर दूसरे क्षण वह एक गरीब परिवार की दयनीय स्थिति देखकर चोरी के धन से ही उनकी मदद करता है, तो चोर के इस व्यवहार को आप क्या कहेंगे। क्या उसका समस्त आचरण अमानवीय है?
सच्चरित्र श्रमसाध्य है। कुआचरण वाला हमेशा ऐसा ही रहे। यह कहना ठीक नहीं होगा। वहीं चरित्रवान आज है, संभव है कल उसका पतन हो जाए। दूसरे शब्दों में चरित्रवान बने रहना दुष्कर कार्य है। इसे बनाए ओर बचाए रखना ही श्रमसाध्य है। अच्छे आचरण को पाने के लिए सुख-सुविधा, स्वार्थ, मोह और भोग-विलास तक त्यागना पड़ता है। किसी को कटु वचन न कहना, दूसरे के सम्मान की रक्षा करना, दूसरे को अपमानित न करना भी अच्छे आचरण का प्रतीक है।
कहते है कि वह सत्संगी है। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी सत्संग में ही जाया जाए। सत्संग यानी सज्जनों का साथ करना। सज्जन कौन है। जो सत्य के मार्ग पर चलते हैं। पर क्या आज के युग में सत्य के मार्ग पर चलने वाले हैं? आजकल सत्संग का प्रचलन ख़ूब है। पर क्या वहाँ वाकई सत्संगी हैं। कुछ पल, कुछ दिन सत्संग कर लें और बाकी समय हमारा आचरण फिर असामाजिक हो, तो ऐसे सत्संग का क्या लाभ? सत्संगियों का साथ करना होता है। सत्संग का अर्थ है सच्चे लोगों का साथ। भले लोगों का आश्रय। भले व्यक्तियों में ही दया, करुणा, ममता, सहयोग और सहभागिता के गुण होते हैं।
अब पुनः चरित्र पर आते हैं। सत्पुरुष वही है जो अध्ययन करता है। सत्य, दया, सरलता और परिश्रम का पालन करता है। आलस से दूर रहता है। लोभ, झूठ, आलस, पाखंड और दुर्जनों का साथ हमें सच्चरित्र से दूर ले जाता है। यही कारण है कि बड़े-बुजुर्ग हमेशा अच्छी संगति करने को कहते हैं।
जीवन और मरण हमारे वश में नहीं है। मृत्यु अटल सत्य है। किंतु जीवन भर जो पाखंड करता है। जीवन भर मोह से बंधा रहता है। पाप में लीन रहता है। दुश्मन बनाता है। चुगली करता है। घमण्ड करता है। दुर्जनों का साथ करता है। ऐसा व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह सकता। वह ज़ल्दी ही मृत्यु को प्राप्त होता है। यदि जीवन लंबा है, तो सम्मान नहीं है। संगति अच्छे लोगों की नहीं है। समाज में प्रतिष्ठा नहीं है। ऐसा व्यक्ति मरे के समान ही तो है। कुसंगति अपने साथ कई तरह की बुराईयाँ लाती है। बुराईयों से घिरा व्यक्ति समाज में आदर नहीं पाता। यही कारण है कि उसका जीवन लंबा नहीं होता। लंबे जीवन का अभिप्राय उम्र से नहीं लगाया जाना चाहिए।
कुख्यात अपराधी जीवन भर पकड़े जाने के भय से इधर-उधर छिपता है। पकड़े जाने के भय से वह आम जीवन भी नहीं जी पाता। पकड़े जाने पर सज़ा भुगतता है। भागने पर मुठभेड़ का शिकार हो जाता है। ऐसे दुर्गुणी के जीवन की रक्षा कैसे हो सकती है। दुर्गुण की कोई सहायता नहीं करता। ऐसा भी नहीं है कि दुर्गुणी गुणों को नहीं अपना सकता। अंगुलीमाल हो या डाकू फूलन देवी। कई चरित्र हैं जो बाद बद से सद् हुए हैं। पर उनका बद उनके साथ हमेशा चलता है। हमारा बद् हमारा पीछा नहीं छोड़ता। दाग़ लग जाने पर दाग भले ही छूट जाए। पर दाग़ का क़िस्सा मरते दम तक नहीं छूटता।
दुश्चरित्र का कोई मित्र नहीं होता। तब भला ऐसे व्यक्ति के जीवन की क्या सुरक्षा और क्या रक्षा? पुराणों, उपनिषदों और धार्मिक ग्रंथों में भी कहा गया है कि सज्जनों का ही जीवन दीघार्यु होता है। सज्जन बनना कठिन है। दुर्जन बनना आसान। किसी चीज़ को तोड़ना आसान है, मगर किसी चीज़ को जोड़ना कठिन है।
कबीरदास, तुलसीदास, विदुर और चाणक्य ने भी चरित्र की विस्तार से व्याख्या की है। चरित्र कोई वस्त्र नहीं है, जिसे ओढ़ा और जीवन सुरक्षित हो गया। अच्छे आचरण के लिए अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है।
चरित्रवान हमेशा अहंकार से दूर रहता है। वह अपनी उपलब्धियों पर इतराता नहीं। वह जीवन की नींद में नहीं बिताता। चरित्रवान मेहनती होता है। वह हमेशा सतर्क रहता है, सावधान रहता है। दुष्टों के साथ से दूर रहता है। बु़द्धिमानों का साथ करता है। ऐसे चरित्रवान व्यक्ति के पास धन-सम्पदा और यश ख़ुद चलकर आते हैं।
छात्र जीवन में ही चरित्रवान बनने की दिशा मिल सकती है। यदि छात्र सुख-सुविधा में पड़ गया। उसका अपने गुस्से में नियंत्रण नहीं है। वह लोभी हो जाता है। स्वाद और चटोरापन उसकी आदत बन जाती है। तो वह कभी चरित्रवान नहीं हो सकता। वह जब इन आदतों का आदी हो जाता है तो आम जीवन में यह सब चीज़ें हासिल नहीं की जा सकती। फिर क्या होगा? इन्हें हासिल करने के लिए वो दूसरे रास्तों पर चलेगा। यहीं से चरित्र की संभाल की पकड़ ढीली हो जाती है। जो छात्र श्रृंगार यानि सजने-धजने में अपना समय बिताता है, वह सद्गुणों को कभी हासिल नहीं कर सकता। जो छात्र आस-पड़ोस की चमक-दमक और चका-चौंध के बारे में ही सोचता रहता है, वह मेधावी हो नहीं सकता। अधिक समय सोने में और आलस करने वाला छात्र भी चरित्रवान नहीं हो सकता। जो चरित्रवान नहीं है, वह कितना ही बलशाली हो, कितना ही धनवान हो वह आदर का पात्र नहीं होता।
अच्छे चरित्र वाले के लिए अच्छी शिक्षा पाना मुश्किल नहीं है। अच्छी शिक्षा पा चुका छात्र कहीं भी जा सकता है। अच्छे आचरण के कारण अजनबी भी उसके मित्र-बंधु बन जाते है। वह सारी दुनिया में वह यश पाता है। कहीं भी जाकर रोज़गार पा सकता है। तब उसे जीवन की रक्षा का भय भी नहीं होता है। यही कारण है कि जीवन को बचाए और बनाए रखने के लिए चरित्रवान होना पहली शर्त है।
हम भूल जाते हैं कि सुजीवन की कुंजी है चरित्र। हम जान कर भी अंजान बन जाते हैं और ऐसा आचरण या कृत्य कर बैठते हैं, जिसके लिए हमारा चित्त हमें रोकता भी है और टोकता भी है। मगर कुछ ऐसा होता है कि हम बुराई की ओर न चाह कर भी बढ़ ही जाते हैं और अपना चरित्र खो बैठते हैं। बस फिर क्या चरित्र की रक्षा की कुंजी हमसे खो जाती है। या यूं कहें कि फिर कोई भी हमारे आचरण रूपी ताले को अपनी कुंजी से खोल लेता है। तब क्या रक्षा और सुरक्षा।
चरित्रवान के लिए कोई री-प्ले नहीं है। कोई री-टेक नहीं है। कोई क्षमा नहीं है। ख़ुद भी अंतर्मन बार-बार धिक्कारता है कि तुमने चरित्र खो दिया। सो हर दिन नहीं, हर पल चरित्र को शीर्ष पर बनाये रखने का यत्न प्राथमिकता में होना ही चाहिए।

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