11 अक्तू॰ 2010

बच्चे अब बच्चे नहीं रहे

दि आप बच्चों को ‘बच्चा’ और उन्हें नासमझ मानते हैं तो यक़ीनन आप ग़लती कर रहे हैं। इस दौर के बच्चे अब वे बच्चे नहीं रहे, जिन्हें लोरी सुनाकर और परियों की कथा सुनाकर चुप कराया जाए। अगर आप आज के बच्चों को छोटा बच्चा समझ कर समझाने का प्रयास करते हैं, तो आपको बाल मनोविज्ञान की शरण में जाना पड़ेगा। कम-से-कम उन्हें तो अपने कार्य-व्यवहार में बदलाव लाना ही होगा जो दस से तेरह साल के उन बच्चों को अभी तक नासमझ मानकर उनकी उपेक्षा करते हैं या फिर नज़रअंदाज़ करते हैं। विद्यालयों के बच्चों ने लिखित में अपनी भावनाएँ इस तरह प्रकट की हैं कि बड़े-से-बड़ा भी दाँतों तले अँगुली दबा ले। यह बच्चे उच्च प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते हैं। इन बच्चों से दो ही सवाल पूछे गए। बच्चों को अपना नाम व विद्यालय न लिखने की छूट भी दी गई थी। परिणाम यह हुआ कि बच्चों ने अपनी समझ और भावनाएँ बिना किसी लाग-लपेट के कागज़ पर उतार दी। ‘मुझे शिकायत है...’ और ‘......कैसा हो स्कूल हमारा...’ सवालों के जवाब में खट्टे-मीठे जवाब आए हैं। मसलन बच्चों ने लिखा है कि उन्हें उन शिक्षकों से शिकायत है जो स्कूल में पीरीयड के दौरान भी मोबाइल कान में चिपकाए रखते हैं। उन शिक्षिकाओं से जो चाय बनवाती हैं और अपने टिफ़िन भी हमसे धुलवाती हैं। लकड़ी और पानी मँगाती हैं। घाम (धूप) तापती हैं और टॉफी, चॉकलेट खाकर रैपर हमसे उठवाती हैं। शिक्षक पान-बीड़ी-गुटखा न सिर्फ़ खाते हैं, बल्कि हमसे मँगवाते हैं।

बच्चों ने सिर्फ़ स्कूल और गुरुजनों पर ही तंज़ नहीं कसे हैं। कुछ बच्चों ने अपने दादा-दादी, बड़े भाई-बहिनों सहित माता-पिता की शिकायतें भी लिखी हैं। बच्चे अपने घर के बड़े-बुजुर्गों के व्यवहार से भी आहत दिखाई दिये। बच्चों को अपने माता-पिता का झूठ बोलना अच्छा नहीं लगता। उनके सपनों का स्कूल भी उनकी बातों में साफ झलकता है। बच्चों ने लिखा है कि उनके स्कूल में विशालकाय मैदान होना चाहिए। खेल का सामान होना चाहिए। पुस्तकालय होना चाहिए। कंप्यूटर होना चाहिए। शिक्षाप्रद फ़िल्में और सामाजिक फ़िल्में दिखाई जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। साप्ताहिक सांस्कृतिक कार्यक्रम होने चाहिए। व्यायाम और योगा की कक्षाएँ होनी चाहिए। स्कूल में पर्याप्त कमरे होने चाहिए। पर्याप्त टॉयलेट की व्यवस्था होनी चाहिए।

पहले बच्चों की शिकायतों पर नज़र डालते हैं। बच्चों की अधिकांश शिकायतें अपने शिक्षकों से हैं। शिक्षकों में भी ज़्यादा उनका ध्यान शिक्षिकाओं पर ज़्यादा गया है। मसलन बच्चे लिखते हैं कि शिक्षक कक्षा में पढ़ाते समय, कॉपियां जाँच करते समय, अंक देते समय भेदभाव करते हैं। औसत और कमज़ोर बच्चों की शिकायतें हैं कि शिक्षक होशियार छात्रों की ओर ही ध्यान देते हैं। उन्हें कमज़ोर बच्चों से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें हिक़ारत की दृष्टि से देखा जाता है। यही नहीं बच्चों का कहना है कि जब किसी कारण छात्रों की उपस्थिति कम होती है, तो शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं। कठिन पाठ और कठिन सवालों का हल नहीं कराते। गृह कार्य दे देते हैं। बात-बात पर ताने देते हैं। बार-बार स्टूल पर खड़ा कर देते हैं। डाँटते-मारते-पीटते हैं। अपशब्दों का प्रयोग करते हैं। ‘तुम कुछ नहीं जानते। मूर्ख कहीं के। बेवकूफ़ आदि संज्ञाओं का प्रयोग करते हैं।‘

बच्चों को अपने आत्मसम्मान की भी परवाह है। उन्हें कक्षा में उनका मज़ाक़ उडाना, ताने देना पसंद नहीं। वे कहते हैं कि हमारी उपेक्षा ही नहीं कई शिक्षक हमें हतोत्साहित करते हैं। बच्चों ने प्रार्थना स्थल को भी संदेह के घेरे में ला खड़ा किया है। बच्चे लिखते हैं कि शिक्षक प्रार्थना स्थल पर देर से पहुँचते हैं। शिक्षक स्वयं जेब में हाथ डाल कर खड़े होते हैं। प्रार्थना सभा में आपस में बातें करते रहते हैं। कई शिक्षक-शिक्षिकाएँ तो प्रार्थना सभा में न आकर स्टाफ़ रूम में ही बैठे रहते हैं। कक्षा में न पढ़ाकर घर पर ट्यूशन पढ़ाते हैं। ब्लैक बोर्ड का प्रयोग नहीं करते। बोल-बोलकर ज़ल्दी-ज़ल्दी लिखाते हैं। प्रार्थना सभा में ही बच्चों को अपमानित किया जाता है। कुछ बच्चों की शरारत पर समूची कक्षा को दण्ड दिया जाता है। शिक्षक कक्षा में आगे की दो पंक्तियों में बैठे हुए बच्चों पर ही ध्यान देते हैं। पीछे तक बैठे हुए बच्चों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। आधा-अधूरा पाठ पढ़ाकर बाकी खुद पढ़कर आना कहकर अभ्यास की ओर बढ़ जाते हैं। सालाना परीक्षा तक भी पाठ्यक्रम पूरा नहीं करा पाते।

बच्चों ने शिक्षकों के खान-पान पर भी टिप्पणी की है। वे लिखते हैं कि कक्षा में ही शिक्षक कुछ न कुछ चबाते रहते हैं। टॉफी-चॉकलेट आदि के रैपर बच्चों से उठवाते हैं। झूठे टिफ़िन धुलवाते हैं। पानी मंगवाते हैं। शिक्षिकाएँ अधिकांशतः घर-परिवार-फ़ैशन की बातें करती हैं। करोशिया-स्वेटर बुनती हैं। पकवानों-व्यंजनों की बातें करती हैं। कुछ बच्चों ने शिक्षकों के पहनावे पर भी टिप्पणी की है। बच्चों को शिक्षकों का जींस-टी शर्ट और काला चश्मा पहनकर स्कूल आना अच्छा नहीं लगता है। बच्चों को उनके उपर शिक्षकों का चॉक फेंकना भी अच्छा नहीं लगता है। बच्चों को कुछ शिक्षक घमंडी लगते हैं। बच्चों को शिक्षकों के आपसी व्यवहार का भी पता है। वे नहीं चाहते कि स्कूल में शिक्षकों में आपस में तनातनी हो। बच्चे नहीं चाहते कि शिक्षक च्विंगम,पान-बीड़ी-तम्बाकू और मदिरा का सेवन करे। बच्चे चाहते हैं कि उनके शिक्षक उन्हें प्यार करें। उनके कॅरियर के बारे में सोचें। उन्हें दिशा दें। बच्चों की बातों को नज़रअंदाज़ न करें। अकारण सज़ा न दे।

-मनोहर चमोली 'मनु'

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