11 अक्तू॰ 2010

'बटन खुला आहे......' मनोहर चमोली ‘मनु'

या ज़माना है। इक्कीसवीं सदी का ज़माना है। वो दिन लद गए जब हर वस्त्रों पर बटन थे। आज तो जिसे देखो, वही बटन खुले रख कर छुट्टा घूम रहा है। अव्वल अब न तो कुर्ते में बटन रह गए हैं, न ही बटन वाली पेन्ट पहनने का समय बचा है। वे स्वेटर भी चली गई हैं, जिन पर कभी बटन दिखाई पड़ते थे।

कुर्ताधरी भी बटन की जगह चैन का प्रयोग कर रहे हैं। वो चैन भी खुली सी लटकती रहती है। एक ज़माना था, जब बटन खुलापन को बंद करने के संकेत थे। अगर कमीज़ के कॉलरों से नीचे का दूसरे नंबर का बटन खुला पाया गया तो क्या शिक्षक और क्या आमजन, सभी टोक दिया करते थे। इशारा से ही समझ लिया जाता था कि बटन खुला हुआ है। जिसका बटन खुला होता था, वो भी अहसास होते ही झट से बटन बंद कर लिया करता था। उस पर तो घड़ों पानी पड़ जाता था।

आज तो खुलापन आ गया है। समाज में भी और काम-काज में भी। आचार-व्यवहार में भी और लाज में भी। आज तो कपड़े ही कम पहनने का रिवाज़ है। क्या लड़की और क्या लड़का। बटन खोलते समय दिक्कत होती होगी न!

हम आधुनिक समाज के बंदे हैं। हमें हर चीज़ में सरलता चाहिए। चैन झट से खुल जाती है। खिसक जाती है। कोई आरोप भी नहीं लगा सकता। कह सकते हैं कि चैन थी। खुल गई। इस खुलेपन से क्या-क्या खुल गया। इस पर न हमारी नज़र है। न हमें परवाह है। जिसकी नज़र है तो लो कर लो बात। बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला। अगर कुछ खुल भी जाता है तो क्या। नज़र ही तो है। सकारात्मक हो, तो खुलना खलेगा ही नहीं। खोलना तो दूर की बात है।

बड़े-बूढ़ों को कहते सुना था कि ‘बटन तहज़ीब और तमीज़ का पर्याय होते हैं।’ बटन थे कि एक बार लगा लो, और निश्चिंत हो जाओ। अब तो चैन है, कि कब खिसक गई या कब खुल गई। पता चलता है क्या? फिर आगे सुना कि ‘अरे चैन भी तो पुरानी हो गई। देख नहीं रहे। अब तो ऐसे कपड़े पहनो, जिसमें चैन का भी झंझट नहीं रहा। अब क्या पारंपरिक वस्त्र, क्या बाहर के वस्त्र और क्या भीतर के वस्त्र। कोई अंतर है क्या? नहीं रहा न! दिख नहीं रहा क्या? देख नहीं रहे क्या?

अब तो सिले-सिलाये व खुले-खुलाए का चलन है। दर्जी भी चैन ख]राब हो जाने पर दूसरी चैन लगाना नहीं चाहता।

वैसे तो ‘बटन’ अँगरेज़ी शब्द है। जिसका अर्थ संभवतः गोलाकार चीज़ से है, जिसे किसी छेद के अंदर से टाँगा जाता है। अपने इस देश की बात करें तो हमारे इस देश में सिले-सिलाए कपड़े पहने ही नहीं जाते थे। धोती जैसे परिधान थे। पता नहीं ये पेन्ट और शर्ट कब और कहाँ से आ गये। सुनते हैं कि अब तो दुनिया एक गाँव है। अब देशी-विदेशी कहना भी पाप है। अति आधुनिक तो बटन को कष्टदायक बताते हैं। एक राजनीतिक विश्लेषक से जब बात की तो वो झल्लाते हुए कहने लगे-‘‘जहाँ बटन आया, उसने तो सोचने-समझने की शक्ति ही क्षीण कर दी। अब देखो न। अत्याधुनिक वोटिंग मशीन में बटन आ गया न। पत्रा क्या गए अब मतपत्र भी गए। कहाँ रह गए मतपत्रा? बटन दबाओ और गई तुम्हारे मत की मतशक्ति। बटन दबाते समय मतदाता एक क्षण के लिए भी नहीं सोचता। बटन दबाते ही मतदाता की महत्ता ख़त्म। क्यों?’’

इस पर आपकी क्या राय है? बटन-काज का संबंध भी देखते बनता है। बटन का महत्व तभी है, जब काज है। काज नहीं तो बटन बंद कहाँ से होगा। काज बंद करता था, बंद होता नहीं था। आज तो चैन बंद करती है। भले ही बंद के पीछे खुलापन का नंगा नाच होता है। फिर हमाम में हम सब नंगे ही तो हैं। आज बाप क्या और माँ क्या। जवान बेटी क्या और किशोरी क्या। बाज़ार साथ-साथ चलते हैं। न बाप को कुछ दिखाई देता है न माँ को। वहीं बेटी और किशोरी धड़ल्ले से ध्ड़ंग चली जा रही है। माँ-बाप को जानने वाली दर्जनों आँखें भी बेटी और किशोरी को घूरे जा रही हैं। माँ-बाप या तो नज़रें नीची कर चल रहे हैं या इस खुलेपन में उन्होंने अपनी आँखें खोल कर जो रखनी है। भले ही इन आँखों की मस्ती में कुछ भी हो जाए।

समाज में चाहे जितना खुलापन आ जाए। बटन रहे न रहे। मगर काज सांकेतिक रूप से हमेशा रहेगा। काज यानी बटन को बांधे रखना। घर में, स्कूल में, कार्यालय में, खुले मैदान में आज भी कुछ ऐसा है, जो हमे जानवर नहीं होने देता। परिवार में, पड़ोस में, दोस्तों में, बिरादरी में, समाज में, देश में ही नहीं समूची धरती में कुछ ऐसा है जो बटन का ही पर्याय है, जो हमें बांधे रखता है। जिस दिन ये ‘ऐसा कुछ’ काज से बाहर हो गया, तो मनुष्य की मानवता और नैतिकता ही खिसकी समझो।

ये ओर बात है कि मानव रूप में कई लोग हैं, जिनका ये ‘ऐसा कुछ’ खिसक गया है। वे मानव रूप में पशु ही हैं। अब देखना यह है कि मानवता हम मनुष्यों को मानव बनाये रखती है या धीरे-धीरे पशुओं की ज़मात में शामिल तो नहीं कर रही? अरे! मैं तो भूल ही गया। ज़रा मैं ख़ुद को भी तो देखूँ। मैं किस परिधि में आता हूँ ! अरे ! आप क्यों मुस्करा रहे हैं? मेरे बहाने ही सही, आप भी तो टटोलिए न। बस ! खा गए न गच्चा। अरे! अपने कपड़े नहीं अपने अंतर्मन को टटोलिए अंतर्मन को। और हाँ, टटोलते समय यह ज़रूर गौर करना कि कोई देख तो नहीं रहा है। क्यों गौर करेंगे न?

-मनोहर चमोली ‘मनु'


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