12 अक्तू॰ 2010

प्रियतमा को पत्र

-मनोहर चमोली 'मनु' manuchamoli@gmail.com

प्रियतमा को पहला पत्र

प्रिय अनु,
आशा ही नहीं, दृढ़ विश्वास है कि इस पत्र को पढ़ते समय आप बेहद रोमांचित और आनंदित हो रही होंगी। होना भी चाहिए, क्योंकि आपने मुझे तीन दिन की लगातार उधेड़बुन के पश्चात विवश किया है कि मैं पत्र लिखने बैठ गया। अब हम जीवन के चरम सुख देने वाले, आनंददायी ज़िम्मेदारीपूर्ण सोपान पर साथ-साथ प्रवेश करने जा रहे हैं। मैंने अंतस से आपको जैसा जाना है, उसी के आधार पर ये सब लिख रहा हूँ। अब तक आपने अपनों का, दूसरों का ख़्याल रखा है। अब आपका ख़्याल रखने वाला, आपको संभालने और प्यार करने वाला, आपकी उलझनों को समझने वाला आपकी रग-रग में समा चुका है। इसका अहसास आपको है। इस अहसास की गहराई से अनुभूति आपको हो जाने वाली है।
मैं भी चाहता हूँ कि आप मुझे जानें, समझें। मुझे सँवारे। मेरी क्षमताओं को बढ़ाएँ। मुझे अधिक योग्य बनाने में सहभागी बनें। बनेंगी न ? मैं नहीं जानता कि मैं आपकी उम्मीदों, अपेक्षाओं और पसंद में कितनी जगह बना पाया हूँ। हां। मैं आशावादी हूँ। आपसे अपेक्षाएँ इसलिए कर रहा हूँ कि आपमें वे सब क्षमताएँ हैं, जो हम दोनों को निखारेंगी। काश ! आप पाँच-सात साल पहले मुझे मिल जातीं। ये पाँच-सात साल जो गुज़र गए हैं, मैं आपके सहयोग से क्या से क्या हो जाता। अब इन गुज़रे सालों की भरपाई करनी है। करोगी न?
मुझे लगता है कि हम दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने होंगे। आपकी आँखों और आवाज़ में मुझे अपनापन नज़र आता है। हमें ऐसा जीवन जीना है, जो यादगार जीवन कहलाए। जिसकी लोग मिसाल दें। आपमें कुछ ऐसा है,जो मुझे उत्साहित और बेहद रोमांचित करता है। मेरी इच्छा है कि हम दोनों का प्रवाह निरन्तर तेज़ हो, गतिशील रहे। बहता रहे। आप ख़ुद भी गतिवान रहेंगी और मुझे भी शिथिल नहीं होने देंगी। ऐसा करोगी न?
मुझे लगता है कि मैं तुम्हें अनंत ख़ुशियों के साथ-साथ चुनौतियाँ भी दूँगा। उन चुनौतियों को आप सहर्ष स्वीकार भी करेंगी। विजयी भी होंगी। ऐसा अटूट विश्वास मुझे है। इसे तोड़ने न देना। है न ! बस एक ही डर मुझे कभी-कभी डरा देता है, मैं रात को उठ बैठता हूँ। ये डर है कि आप कहीं अपनी क़ाबिलियत, क्षमता, उर्जा और सामर्थ्य को सीमित न कर दो। पर इस डर को आप ख़ुद ही दूर कर देती हो। मैं बड़ी सहजता से बता ही देता हूँ और दूसरे ही क्षण आप आ आती हो। मुझे छोटे बच्चे की तरह पुचकारती हो। मेरे बालों को सहलाती हो। तब मुझे लगता है कि ये जो पहला सपना;जो मुझे डराता है, उस पर दूसरा सपना अनायास ही मेरे डर को दूर भगा देता है। फिर मैं मान लेता हूँ कि सपना तो सपना ही होता है। मगर सारे सपने महज़ सपने ही होते हैं। ये मैं नहीं मानता।
इस उम्मीद के साथ कि हम दोनों की नई शुरुआत, नया जीवन ख़ुशहाल होगा। हम, दोनों को, हमसे जुड़े लोगों को ख़ुश रख पाएँगे। असीम-अनंत प्यार के साथ,
आपका ही
मनोहर चमोली ‘मनु’
इसे संभालकर रखना। रखोगी न ?
06 अक्टूबर 2007
 

 

प्रियतमा को लिखा दूसरा पत्र

मेरी प्रिय अनु,
लगता ही नहीं बल्कि यक़ीन हो चला है कि आप मेरी कमज़ोरी बन चुकी हो। मुझे आज भी वो दिन याद है, जब आपने पहली बार मुझे फ़ोन किया था। तब ऐसा लगा था कि हम दोनों का रिश्ता दूसरों से अलग है। अनूठा है। यह भी कि जैसी मेरी आदतें हैं, वे भी चलती रहेंगी, और आप ज़्यादा मेरे काम में, सोच में, विचार में, रूटीन के कामों में दख़ल नहीं दोगी।
आज लग चुका है कि मैं कितना ग़लत था। आप ने क्या कर दिया? मैं नहीं जानता। बस इतना चाहता हूँ मुझे टूटने न देना। मुझे अब तक जो न मिला, वो आप देंगी। मुझे लगे कि मेरा कोई है। कोई ऐसा जो मेरे अपनों से भी ज़्यादा अपना है। मुझे अपना मानता है। आपकी आँखें इसे पढ़ते हुए क्या महसूस करेंगी, मैं नहीं जानता। मगर यदि आपने मुझे सच्चाइयों से महसूस किया हो तो आपको आभास होगा कि मैं लिख तो रहा हूँ, मगर मेरी आँखें गीली हैं। आँखों का छलकना शेष है। मैं वैसे आँसूओं को कमज़ोरी मानता हूँ। पर कभी-कभी मेरी आँखें भी मुझे कमज़ोर-सा कर देती हैं। मैं लिखना तो बहुत कुछ चाहता था, पर अब नहीं लिख पा रहा हूँ। मुझे माफ़ कर देना। हाँ। अब इतना तो है कि लगता है कि ज़िदगी से बड़ी आप हो गई हैं, मेरे लिए।
तुम्हारा ही
मनोहर चमोली ‘मनु’
07 अक्टूबर, 2007

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