15 अप्रैल 2012

दिन तक सो जाना कभी-कभी



 भला    है   यूँ    ही    रो   जाना   कभी-कभी
मुँह  का  इस  तरह  धो  जाना   कभी-कभी 

जिस  भीड़  से  हमेशा  डर  लगता  है  मुझे
भाता  है    उसमें  खो    जाना    कभी-कभी

ये  बात  सच  है  कि  सादगी  ही   भली  है
सजना    चँदा-सा   हो   जाना  कभी-कभी

सुबह होते   ही  उठ  जाना अच्छा है  मगर
क्या हुआ  दिन तक  सो  जाना कभी-कभी 


-मनोहर चमोली ‘मनु’

2 टिप्‍पणियां:

  1. एक झटके में आपकी नयी और पुरानी कई गज़लें पढ़ गया...बहुत ही दिल से लिखते हैं आप...बहुत अच्छा लगा आपकी ब्लॉग पर आ कर....

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  2. aapka behad aabhaar ummid hai ki aate rahenge our houslaa bdaate rhaenge mera..aapko naman mera..

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यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।