खौले मेरा ही ख़ूँ क्यों
मैं ही उससे उलझूँ क्यों
नैया अपनी नाविक मैं
अपना भाड़ा मैं दूँ क्यों
मेरी जान का दुश्मन वो
फिर मैं उसको चाहूँ क्यों
वो आदत से रूखा है
इस पर इतना चाौकूँ क्यों
वो फासला रक्खे मुझसे
मैं ही हाथ बढ़ाऊँ क्यों
.............
-मनोहर चमोली ‘मनु’
-24. 4. 2012. सुबह सवेरे.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
यहाँ तक आएँ हैं तो दो शब्द लिख भी दीजिएगा। क्या पता आपके दो शब्द मेरे लिए प्रकाश पुंज बने। क्या पता आपकी सलाह मुझे सही राह दिखाए. मेरा लिखना और आप से जुड़ना सार्थक हो जाए। आभार! मित्रों धन्यवाद।